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शिक्षा और संस्कार

"शिक्षा और संस्कार हर औलाद को इतनी अच्छी मिले।
ना सड़कों पर माँ-बाप और ना कचरे में बच्ची मिले।"
शिक्षा जीवन का अनिवार्य अंग है, आज के युग में शिक्षा बिना प्रगति संभव नहीं है। हमारे समाज में भी शिक्षा का स्तर दिनों दिन बढ़ रहा है। हमारे बच्चे उच्च शिक्षा प्राप्त कर उच्च पदों पर आसीन हैं। विशेषकर हमारी बेटियाँ सफलता के परचम लहरा रही हैं। यद्यपि बेटे भी तरक्की की राह पर हैं पर बेटियाँ अत्यधिक ऊँचाई पर पहुंच रही हैं। अत्यंत उच्च पैकेज पाकर आज हमारे बच्चे हमें गौरवान्वित कर रहे हैं। किन्तु मेरा एक प्रश्न अपने समाज के सम्मुख है कि क्या ऊँचा पद, ऊँचे स्वपन, विदेशों में बसना यही प्रगति की निशानी है?
समाज के बच्चे आज उस शिखर को छू रहे हैं जहाँ से उन्हें अपना आधार नहीं दिखाई देता और आधारहीन मिनार चाहे कितनी भी बुलंदी पर हो गिर जाती है। इस आधारहीन पीढ़ी को इस स्थिति तक पहुँचाने में हम खुद जिम्मेदार हैं। हम तुतलाती भाषा बोलते बालगोपाल से भी यही सवाल करते हैं कि बेटा बड़ा होकर क्या बनोगे। और चाहते भी यही हैं कि हमारा बच्चा या बच्ची एक बड़ा नामचीन आदमी बने। यह कभी नहीं सोचते कि वह एक अच्छा इंसान बने। इसी संदर्भ में एक कहानी है चार औरतें पानी का मटका लेकर आ रही थी। राह में उनके पुत्र मिले जिनमें एक बड़ा ज्ञानी, दूसरा बड़ा पहलवान व तीसरा बड़ा संगीतज्ञ था। वे तीनों अपनी माताओं को देखकर चले गए। तीनों की माताएं उनकी प्रंशसा कर फूली नहीं समा रही थी। परंतु चौथी माता का पुत्र कोई बड़ा गुणी नहीं, अपितु सीधा सादा व्यक्ति था। उसने माँ के सिर पर घड़ा देख कहा - माँ तुम चलो, यह घड़ा में लाता हूँ। बताइए कौनसी माँ को अपनी संतान पर गौरवान्वित होना चाहिए।
बात करें शिक्षा संग संस्कारों की तो पाएंगे कि ज्यों-ज्यों शिक्षा के साथ भौतिकवादिता बढ़ रही है, नैतिक मूल्यों का पतन जारी है। अपने आपको सबसे अधिक ज्ञानवान समझने वाली ये पीढ़ी पुरानी पीढ़ी और उसके सिद्धान्तों को दरकिनार करने लगी है, अपनी मर्जी के मालिक बनकर अपने हिसाब से रहने वाली नई पीढ़ी शादी-ब्याह के निर्णय भी स्वत; लेने लगी हैं। कहाँ पहले खानदान, परिवार तक देखे जाते थे। आज जाति समाज की भी अनदेखी की जा रही है। चाहे फिर उसके दुष्परिणाम भुगतने पड़ें। सामाजिक व पारिवारिक बंधन से मुक्त ये स्वच्छन्द पक्षी अंत में गर्त में पहुंच जाते हैं। पैकेज देखकर विवाह करने वाले भौतिकता की दौड़ में पड़कर अपनी जड़ों को अपने संस्कारों को भूलते जा रहे हैं।
इन सबका कारण हमारे बच्चों को अत्यधिक ढील देना, परिवार समाज से काटकर रखना व उन्हें अपनी संस्कृति की सीख ना देना है। पहले परिवार में दादा-दादी, चाचा-बुआ संयुक्त रूप में रहकर बालपन से ही बच्चों को सही, गलत की सीख देते थे। चाहे डांटकर या प्यार से बेटा फला काम मत करो ये गलत है या ये सही है समझाया जाता था।
आज बढ़ते एकल परिवार उनके हाथों में बचपन से ही मोबाइल, कम्प्यूटर थमा देते हैं। पिता आवश्यकता से अधिक कमाने में व्यस्त रहते हैं। माता खुद मोबाइल, टी.वी. पर मशगूल रहती है। घर में बच्चों को अकेला अपना एक कमरा प्रदान किया जाता है, जो उनकी मनमानी गतिविधियों को बढ़ाने में सहायक होता है। बड़े होकर ये ही बच्चे माता-पिता से सवाल करते हैं, आखिर आपने हमारे लिए क्या किया है। अत: कोरी शिक्षा यह भौतिकवाद को जन्म देती है। वह वृक्ष जिसकी जड़े खोखली होती है, कभी अपना वजूद नहीं रख पाता। इसलिए अपने बच्चों को शिक्षा के साथ संस्कार भी दें उन्हें समाज के कार्यक्रमों में अपने साथ लाए। परिवार के सदस्यों का मान-सम्मान करना सिखाएं। सिर्फ और सिर्फ किताबी ज्ञान पर्याप्त नहीं। उन्हें एक अच्छा इंसान बनाए। व्यावहारिक ज्ञान, संगठन की शक्ति का औचित्य बताकर अपनी जड़ों से जुड़े रहने का सबक दें। अन्यथा ये दिशाहीन पीढ़ी अपना मार्ग गुम हो जावे का दोषारोपण हम पर करेगी कि आपने तो हमें यह नहीं सिखाया था। एक जिम्मेदार माता-पिता बनकर अपनी संतानों को शिक्षा के साथ-साथ संस्कारों का पाठ भी पढ़ाएं।

-- श्रीमती मधु शर्मा, इन्दौर