राम से श्रीराम
त्याग राजसी वैभव सारे, तन झुलसाना पड़ता है।
प्राणों की आहुति देकर, वचन निभाना पड़ता है।।
सूर्य वंश की बचाने आन, बान, शान।
चाहे हो भगवान "राम" बन, वन को जाना पड़ता है।।
राम पूज्य हैं, राम प्रणम्य हैं, राम अनुकरणीय हैं। पुत्र, भाई, पति, शासक, मित्र, मानव हर रूप में आदर्श राम की जयन्ती "रामनवमी" पर उन्हें नमन करते हुए हम अपने भीतर के राम को जगाए और राम में एकाकार हो जाए। रामचरित मानस में संत तुलसीदास ने राम के आदर्श जीवन को केन्द्र में रखकर कथा का गान किया है। यह महज स्तुति या प्रशस्ति नहीं है, अपितु प्रेरणा और अनुशंसा है। राम के संपूर्ण जीवन चक्र में अनुकरणीय आदर्शों को ढूंढने उनमें झांकने का एक प्रयास -
रिश्तों का सम्मान-भारतीय संस्कृति परिवारों की संस्कृति है। तमाम स्वार्थ लिप्सा और भौतिकता के बावजूद आज भी रिश्तों का सम्मान बचा है। इसीलिए राम भारतीयों के दिलों में बसते हैं। वचन निर्वहन के लिए राज तिलक के स्थान पर वनवास स्वीकार करते राम माता को बिलखता छोड़ कर्तव्य पथ पर अग्रसर राम रिश्तों की मर्यादा समझाते हैं। कठिन क्षणों में ऊँची सोच दिखाते। त्याग पक्ष को अंजाम देते राम कैकयी से कहते हैं, माँ तूने मेरी भावना समझ ली। वनवास से पिता के धर्म का पालन होगा, भाई भरत को राज्य मिलेगा मुझे वन में संतों का सान्निध्य। कौशल्या को धैर्य बंधाते हुए कहते हैं पिता ने मुझे वन का राजा बनाया है मैं राजा का बड़ा भाई कहलाऊंगा। सिंहासन पर बैठने से बड़ा है राजा का बड़ा भाई होना।
साहस संग धैर्य - राम धर्म के संरक्षक के रूप में सामने आते हैं। महान् नेतृत्व के लक्षण दर्शाते हैं। असुरों के संहार हेतु गुरु विश्वामित्र जब दशरथ से राम को मांगते हैं तब विश्वामित्र का दर्शन था कि दुष्टता को दुष्टता से ही मिटाना है, किन्तु राम का मत था दुष्ट को शिष्टता से जीता जाए तो शिष्टता जीतेगी। धनुष यज्ञ में तीन महापुरुषों के बीच राम का चरित्र प्रकाशित होता है। जब वे शिव धनुष को तोड़ते हैं तो विकट क्रोध की मूर्ति परशुराम प्रकट होते हैं, धनुष तोड़ने से वे क्रुध हो परसा उठाते हैं, किन्तु विनम्र राम अपना धनुष नीचे रखते हैं और उनसे कहते हैं मुनि मैं पराजय मानता हूँ। नाम आपका ही बड़ा है, मैं राम आप परशुराम और इस विनम्रता से पराजित परशुराम प्रसन्न हो जाते हैं और विजयी राम सर झुकाए खड़े। दण्डकारण्य में अस्थियों का समूह देखकर जब उन्होंने जाना कि ऋषि मुनियों को खा डाला तो उनकी आँखों से अश्रु बहने लगे और उन्होंने दृढ़ प्रतिज्ञा ली "निसिचर हीन करउँ महि भुज उठाइ पन कीन्ह" अर्थात् मैं पृथ्वी को राक्षस रहित कर दूंगा और उन्होंने ऐसा किया भी।
विपरीत परिस्थितियों में दृढ़ - महलों के सुख वैभव को तज वन जाते समय भी तनिक विचलित न होते राम वन में राक्षसों संग संघर्ष करते-करते अचानक शूर्पणखा और उसके भाईयों से जूझते रहे। पत्नी के अपहरण से व्यथित राम रूके नहीं, थके नहीं। वानर भालूओं को साथ लेकर ही आगे बढ़ते रहे। विपरीत हालातों में भी वे हताश नहीं हुए, अपितु उनका आत्मविश्वास इतना दृढ़ था कि वे कहते रहे बस सीता का ठिकाना मिल जाए फिर वो काल को भी पराजित कर सीता को छुड़ा लेंगे।
"एक बार कैसेंहु सुधि जानौं, कालुह जीति निमिष महुँ आनौं।।"
राम का यह अटल विश्वास निराशा के क्षणों में प्रकाश स्तंभ है, पूरी मानव जाति के लिए एक संबल थे।
उदार नेतृत्वकर्ता - रावण जैसे महावीर को पराजित कर वे वानर भालुओं से बोले "हे साथियों प्रबल शत्रु रावण तुम्हारे ही बल पर हारा है। गुरु वशिष्ठ को अपने साथियों का परिचय कराते हुए वे कहते हैं कि मैंने इनके सहारे ही संग्राम रूपी सागर पार किया है। दूसरों का श्रेय चुराने और आत्म प्रवचना के दौर में सफलता का श्रेय स्वयं न ले अपनी टीम को देने वाले राम आज इस दौर में और अधिक प्रासंगिक हो उठे हैं। अपने भुजबल से किष्किंधा और लंका को जीतने वाले राम ने कभी उस तरफ मुड़कर नहीं देखा। सोने की लंका का सिंहासन विभीषन को देकर स्वयं वन लौट आए। राम जैसा निर्लिप विजेता सोने की लंका को देखने भी नहीं गया।
निर्बल के बल राम - राम का रामत्व यही है कि उनकी करूणा सदा शोषितों के पक्ष में रही। शबरी, केवट, जटायु, अहिल्या के उद्धारक राम ऊँच-नीच में कोई फर्क नहीं मानते थे। अयोध्या लौटने पर अभिषेक के समय वे भरत से पूछते हैं मैं कौन हूँ, भरत हाथ जोड़कर कहते हैं - आप राजा हो मैं दास हूँ तब राम भरत को आसन पर बैठा देते है और उनकी जटाए सुलझाने लगते है और कहते है मुझे राजा बनने की जल्दी नहीं, वैसे भी तुमने 14 सालों में कोई समस्या नहीं छोड़ी केवल तुम्हारी जटाओं को सुझलाना है। देखकर अयोध्यावासी रो पड़े।
शासक, स्वामी को उदार दिल होना चाहिए, उसे अपने नहीं अपनी जनता के अनुसार स्वयं को ढालना होगा। ये आदर्श मर्यादा पुरुषोत्तम राम पत्नी त्यागकर दिखा गए।
जन को तारते रहे, मन को मारते रहे।
एक भरी सदी को दोष, खुद पे धारते रहे।
ऋण थे जो मनुष्यता के, उम्रभर उतारते रहे।
जानकी तो जल के जीत गई, राम बस हारते रहे।
-- श्रीमती मधु शर्मा, इन्दौर