तीर्थ क्षेत्र
अन्य क्षेत्रे कृतं पापं, तीर्थक्षेत्रे विनश्यति।
तीर्थ क्षेत्रे कृतं पापं, वज्र लेपो भविष्यति।।
तीर्थ वे स्थल हैं, जहाँ से चेतना की एक धारा स्वतः प्रवाहित हो रही है और इन तरंगों को प्रवाहित करने के लिए सदियों से मेहनत की गई हो। तीर्थ क्षेत्र सकारात्मक ऊर्जा प्रवाहों के केन्द्र होते हैं। इसी कारण तीर्थ स्थलों में जाकर व्यक्ति को शांति व सुकून अनुभव होता है और इन क्षेत्रों में साधना करना सहज होता है। नकारात्मक ऊर्जा वाले क्षेत्र में ध्यान करना कठिन है तथा नकारात्मक क्षेत्र में व्यक्ति अशांत रहता है। अतः ध्यान में विघ्न उत्पन्न हो जाता है। असली तीर्थ वह क्षेत्र है जहाँ तरंगें शरीर से आत्मा की ओर बह रही हैं, जहाँ पूरा वातावरण तरंगित है। इन तरंगों के संपर्क में आते ही व्यक्ति की चेतना शीघ्र ऊर्ध्वगामी हो जाती है। ऐसे क्षेत्र जहाँ बैठकर लोग समाधिस्थ हुए, जहाँ बैठकर लोगों ने परमात्मा का दर्शन पाया। वहाँ सदैव ही विशेष प्रकार की तरंगें प्रवाहित होती रहती हैं, जो जीवन को सही दिशा का बोध कराती है। ऐसे ही स्थलों से यदि मन लगा लिया जाए तो स्वतः ही तीर्थ यात्रा शुरू होती है।
व्यक्ति कहीं भी साधना करे तो विशेष अनुभूति हो-संभव नहीं। क्योंकि प्रथम तो व्यक्ति यहाँ ग्रहणशील नहीं हो पाएगा, क्योंकि ध्यान को पूर्णत: केन्द्रित करने के लिए एकाग्रता जरूरी है व दूसरा क्षेत्र का आध्यात्मिक प्रभाव तीर्थ क्षेत्र, वे क्षेत्र हैं जहाँ पर नियमित रूप से आध्यात्मिक क्रिया कलाप सम्पन्न होते हैं। इसी कारण ये क्षेत्र आध्यात्मिक ऊर्जाओं के पुंज बन जाते हैं। तीर्थ कहलाने का कारण यही है कि वहाँ पिछले कई सालों से आध्यात्मिक गतिविधियाँ चल रही हैं। काशी, रामेश्वरम और पुरी आदि की परम्पराओं के बारे में यदि पुराणों का गहराई से अध्ययन किया जाए तो यह पता चलता है कि इन तीर्थों में दौ सौ साल पहले तक पन्द्रह से बीस प्रतिशत लोग हमेशा ऐसे रहते थे, जो तप, स्वाध्याय और ज्ञानदान के अलावा मंदिरों में पूजा पाठ की गतिविधियाँ चलाते थे। ये व्यवस्थाऐं और परम्पराऐं अब क्षीण हुई हैं। इसी कारण इन तीर्थों का स्वरूप गड़बड़ाया है। इसकी प्रमुख वजह है कि तीर्थों में पवित्र पुण्य भाव से यात्रा करने की बजाय इन स्थानों पर घूमने-फिरने वालों की व सैर-सपाटा करने वालों की संख्या तेजी से बढ़ी है। साथ ही इन क्षेत्रों में आबादी का घनत्व भी बढ़ा है। इन क्षेत्रों में सुख-सुविधाओं के लिए निर्माण, होटल, आलीशान रेस्ट हाऊस, रेस्टोरेंट आदि का भी वातावरण बिगाड़ने में योगदान है।
शास्त्रों में निर्दिष्ट है कि तीर्थ क्षेत्रों में जाकर तप, साधना, दान आदि करना चाहिए, पुण्य अर्जन करना चाहिए। लेकिन आज लोग इन बातों की परवाह न करते हुए मात्र मौज-मजे के लिए यात्रा करते हैं। तीर्थ यात्रा पहले पद यात्रा के रूप में होती थी, जोकि आज भी गोवर्धन, चित्रकूट, गिरनार, नर्मदा परिक्रमा आदि के रूप में की जाती है। तथापि आवागमन के सुलभ साधनों के कारण आज इन स्थलों पर पेट्रोल-डीजल से चलने वाले वाहनों की भी भीड़ रहती है। इसीलिए आज तीर्थ यात्रा अपना पारंपरिक महत्व खोती जा रही है। तीर्थ स्थल पर्यटन स्थलों में परिवर्तित होने लगे हैं। लोग इनके आध्यात्मिक महत्व के स्थान पर इनका सौंदर्य पक्ष देखना अधिक पसंद करते हैं। तीर्थ स्थल व पर्यटन स्थल अलग-अलग चीज हैं। तीर्थ पुरानी सभ्यता के खोजे हए बहुत गहरे, सांकेतिक व अनूठे आविष्कार हैं, लेकिन उनके सभी रूप खो गए हैं। उन्हें निर्मित करने के प्रायोजन लोग भूल चुके हैं। दिव्य पवित्र सकारात्मक ऊर्जा का लाभ लेने के लिए एवं आध्यात्म से लाभान्वित होने के लिए तीर्थों की यात्रा जरूरी है। लेकिन यदि कुल स्थानों पर यात्रा संभव न हो तो उन धार्मिक स्थलों के प्रति अपनी पवित्र भावनाएं रखकर पूजन-अर्चन किया जा सकता है। किंतु यह कहना कि तीर्थ स्थानों पर कुछ नहीं है, वहाँ जाने से क्या प्राप्त होगा जैसी बातें सर्वथा अनुचित हैं व उससे भी अनुचित है उन तीर्थों पर जाकर मौज-मस्ती करना। केदारनाथ आपदा के समय भी कुछ लोगों का मत था कि वहाँ शराब, आधुनिक मनोरंजन के साधनों द्वारा धार्मिक भावनाओं का हनन ही उस आपदा का एक कारण था। क्योंकि धर्म मखौल का विषय नहीं, वो हमारी संस्कृति का रक्षक है, जिसे हमें जड़ों में सिंचित करना है।
-- श्रीमती मधु शर्मा, इन्दौर