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आध्यात्म की अलख

हमारे विश्वकर्मा समाज की महान विभूति श्री आदिशंकराचार्य ने समस्त राष्ट्र को संकट की घड़ी से निकाल यहां आध्यात्म की अलख जगाकर जाग्रत कर दिया था। जिस समय हिन्दू धर्म अपने पतन के चर्म पर था वेदों की महत्ता विनाश की ओर अग्रसर थी, भारत को सांस्कृतिक रूप से पुनः संगठित करने का श्रेय इस वेदोद्धारक को ही है। वैशाख शुक्ल पंचमी 23 अप्रैल को अवतरित यह महान बालक ( त्वष्टा ) वंश से संबंध रखता है। बौद्ध धर्म जब चहुं ओर फैल चुका था, शेव वण्ण शक्ति सभी बुद्धं शरणम गच्छामि हो चुके थे, बौद्ध विहारों में राज्यों से सहायता मिलती थी। वेद दर्शन गीता उपनिषद की उपेक्षा की जा रही थी, ब्रह्मा, विष्णु, महेश, गणेश को लोग भूलते जा रहे थे। इन विपरीत हालातों में आदिशंकर ने धार्मिक क्षेत्र में प्रवेश कर वैदिक धर्म की पुर्नःस्थापना का कार्य किया। बौद्धों के सिद्धान्त जान उनसे शास्त्रार्थ कर अपने सनातन धर्म का पुर्नजीवित करने वाला यह महामना मात्र 32 वर्ष की आयु में देश में सराहनीय वैचारिक क्रांति फैला गया।
अपने जन्मस्थान केरल से पदयात्रा कर ये नर्मदा तट ओंकारेश्वर महेश्वर आए और म.प्र. में अपने गुरु गोविन्द पाद के दर्शन किए। इसी स्थान पर उत्तर मीमांसा, वेदांत सूत्र आया, आपने ज्ञान प्राप्त किया तत्पश्चात् तीर्थ नगरी काशी जाकर वेदों के आध्यात्मिक पक्ष को लिपिबद्ध करने का पुण्य कार्य किया। इसके बाद आप पवित्र धाम बद्रीनाथ पहुंचे। साधनारत हो यहाँ भगवद गीता, विष्णु सहस्त्रनाम और उपनिषदों पर रचना की। यहां से आपने त्रिवेणी धाम इलाहाबाद संगम तट पर डेरा डाला। जहां उनकी वेद विद्वान कुमारित भट्ट से मुलाकात हुई जिन्होंने आदिशंकर को महेश्वर के विद्वान मण्डनमित्र से शास्त्रार्थ करने को प्रोत्साहित किया और महेश्वर आकर आपने सही में मण्डनमित्र को पराजित किया तभी से आप वैदिक धर्म के सांभ के रूप में जाने लगे।
उत्तर भारत के पश्चात आप दक्षिण भारत के श्रीशेलम स्थान पर पहुँचे जो कृष्णा नदी के तट पर हैदराबाद के पास यहाँ आपने मल्लिकार्जुन व ब्रह्माजी की आराधना की। इसके बाद आपने गोकर्ण नामक स्थान पर भगवान शंकर के अर्धनारीश्वर रूप की पूजा-अर्चना की और यहीं से आप श्रृंगेरी तुनभद्रा नदी के तट पर पहुंचे। शिष्यों के साथ तपस्या की ओर देवी माँ के नाम पर यहां एक मन्दिर बनवाया जो श्रृंगेरी मठ कहलाता है। आपने इसके पश्चात् रामेश्वरम का रुख किया। फिर प्राचीपुर जहां आपने कामाक्षी मंदिर में श्रीचक्र की स्थापना की फिर वे तिरुपति गए जहां उन्हें श्रीकृष्ण का बोध हुआ। वे द्वारका जा पहुंचे जहां उन्होंने गीता का सूक्ष्म यज्ञ किया। द्वारका से ये महाकाल के दरबार उज्जैन पहुँचे फिर असम कामाख्या पहुँच देवी की आराधना की। असम में आपको धर्म की जीत के लिए शाक्त सम्प्रदाय के नवगुप्त से शास्त्रार्थ करना पड़ा इन्होंने उन्हें भी पराजित किया। जीत के बाद आपने जगन्नाथपुरी का मार्ग लिया। इस महातीर्थ महाधाम पर आपने ब्राह्मासूत्र का प्रचार किया। यहां से कश्मीर जाकर शारदा मां के धाम पर रुक अनेक ब्राह्मण विद्वानों से तर्क किए। विजयश्री पाते-पाते आप पुनः बद्रीनाथ जाकर अद्वैतवाद का प्रचार करने लगे और अंतिम दिनों में केदारनाथ पहुँचे।
उपरोक्त धार्मिक सांस्कृतिक योद्धा ने ईश्वर के लिए गिने चुने वर्षों में उसकी भरपूर आराधना की और पूरे देश में जा-जाकर अज्ञान कलह आलस्य और विलास रूपी समाज में व्याप्त शत्रुओं का संहार कर सम्पूर्ण राष्ट्र को जागृत किया। अपने सनातन धर्म की अलख जगा राष्ट्र को पुनः उसकी ओर अभिमुख करने का पुनीत कर्म करने वाले यह महानायक असली देशभक्त था। देश के चारों दिशा में चारधाम स्थापित कर धर्म को मजबूती देने वाला आज भी अपनी इस महा उपाधि के रूप में जीवित है। शंकराचार्य वह पवित्र उपाधि है जिससे हमारे समाज के अनेक विभूतियाँ प्रकाशित हुई। हमारे समाज के अन्य शंकराचार्य विश्व रुपाचार्य व श्रृंगेरी मठ के द्वितीय पीठाधीश्वर स्वामी पृथ्वी धराचार्य हुए हैं।

-- श्रीमती मधु शर्मा, इन्दौर (म.प्र.)