शक्ति हुई शक्तिहीन
"एक औरत का टूट चुका है सब पर से विश्वास
दादा की, पिता की, या हो बेटे की उम्र का, नहीं किसी से आस"
जगत की सृजनहारी नौ माह अपनी कोख में अपने रक्त और हाड़-मांस से पुरुष की निर्मात्री नारी का अस्तित्व आज इस पुरुषपरक समाज में खतरे में पड़ा हुआ है। चाहे जन्म से पहले जान हो या जन्म के बाद अस्मिता सभी पर गर्दिश के बादल मंडरा रहे हैं। स्त्री को शास्त्रों से संविधान तक देवी का दर्जा देने वाला समाज वास्तव में उसे दोयम से भी गया गुजरा दर्जा देता है। वैसे भी देवियाँ प्रस्तर की ही स्वीकार्य है। समाज के देवता हाड़-मांस के होते हैं और वर्चस्व उन्हीं का है, स्त्री तो उनके आगे नतमस्तक है। खुद को कमजोर व निर्भर मानने का खामियाजा आज उसे भुगतना पड़ रहा है। अपनी दुनिया का पुरुषीय निगाह से आँकलन उसके लिए आत्मघाती साबित हो सकता है और हो रहा है। यूं भी उसकी अपनी दुनिया आधी से ज्यादा सिकड़ कर चौथाई होने लगी है, गिरता हुआ लिंगानुपात इसका स्पष्ट प्रमाण है तथा लिंगी असमानता का मुकाबला करना कितना कठिन होगा उन बच्चियों से पूछे जिनकी आन बान के साथ जान भी ली जा रही है।
पूर्व का वही समय लौट रहा है जब स्त्री रोज राजबाड़े में अपनी शारीरिक सौंदर्यता के कारण उपभोग की जाती थी। उसे उस समय नकाब (घूँघट) का सुरक्षात्मक आवरण ओढ़ाया जाता था तथापि घरों व महलों में वह शारीरिक एवं मानसिक हिंसा का शिकार हुआ करती थी। नारी को वस्तु की तरह पेश करने में सिनेमा, मीडिया, नेट, इन्टरनेट आदि का भी पूर्ण योगदान है। बाजारीकरण के इस दौर में किसी छोटी से छोटी वस्तु चाहे वो चाय हो या सिगरेट के विज्ञापन में भी अर्धनग्न नारी को पेश किया जाता है। वैसे ही प्राचीनकाल से अतिशोषित किए जाने से महिलाओं की दबी कुचली मानसिकता ने सर उठाकर अपने आप को सिद्ध करने के लिए तेजी से तरक्की की है चाहे वह शिक्षा का क्षेत्र हो या कारोबार का वह हर कदम पर पुरुषों से कन्धा मिलाकर खड़ी है, जिसे पितृसत्तात्मक समाज स्वीकार नहीं कर पा रहा है और पुरुष उसे प्रतिद्वंदी की तरह ले रहा है। जहाँ रेल, बस में पहले महिलाओं को अपनी सीट दे देते थे, आज वही पुरुष उनके खड़े रहने पर फब्तियाँ कसते हैं।
महिलाओं के समानता की मुखर "कमला भसीन" के अनुसार महिलायें दुनियां का आखरी उपनिवेश है, दूसरे उपनिवेशों में कम से कम अपनी औपचारिक आजादी तो हासिल कर ली है लेकिन महिलायें तो उससे महरूम है उनकी मेहनत करने की शक्ति, संसाधन और लैंगिक ताकत अभी भी पुरुषों की गुलाम है। उनके काम और योगदान को गंभीर रूप से कम आँका जाता है उनके घरेलु अवैतनिक काम काज का मूल्यांकन किया जाए तो सालाना तकरीबन 1 लाख करोड़ डॉलर बैठेगा। अन्तर्राष्ट्रीय श्रम संगठन के आंकलन से दुनियां का 66% काम महिलायें करती हैं, किन्तु दुनियाँ की आय का 10% वह कमाती है और दुनिया की सम्पदा का स्वामित्व उनके पास केवल 1% है। जैविक तौर पर ऐसा कुछ नहीं है जो पुरुषों को महिलाओं से श्रेष्ठ बनता हो। हमने औरतों की विचार प्रक्रिया में कुछ पूर्वाग्रह व अन्धविश्वास ऐसे जमा दिए हैं कि वे स्वतंत्र सोच से ही दूर हो गयी हैं। हमने उनका निजीत्व हर लिया है। वे खुद को बकरियों की तरह हाकी जाने की आदी हो गयी हैं, उन्हें आत्ममुग्ध बनाकर आईने में कैद कर उनके अवचेतन मन में झूठे मूल्यों की स्थापना कर यह बात बैठा दी गई है कि तुम केवल प्रेम के लिए बनी हो सोचना तुम्हारा काम नहीं।
पुरातन काल से ही अन्याय चला आ रहा है एक ही अपराध के लिए अहिल्या के दंड व असली अपराधी इंद्र के दंड में अंतर था। महिला अपराधों की संख्या में इजाफा इतना हो रहा है कि एक आंकलन के अनुसार एक तिहाई महिलायें अपने घरों, सड़कों, कार्यस्थलों व सार्वजनिक स्थलों पर हिंसा का शिकार हो रही हैं। पुरुष प्रधान समाज का वजूद आज थर्रा रहा है। बच्चियों के माता-पिता एकाएक चहक उठे हैं, किस पर भरोसा के यह सवाल धुएं की तरह उनका दम घोट रहा है। आरोपियों को अपने दुष्कृत्यों पर कानूनी शिकंजे का डर कितना है इसका अंदाजा इसी बात से लगता है कि दिल्ली की दुर्दांत घटना व उसके विरोध में पूरे देश में मुखरित स्वर के बाबजूद रोज नयी दुर्घटनायें बालिकाओं से लेकर उम्रदराज महिलाओं के साथ घटित हो रही हैं। तर्क करने वाली या अपनी बात रखने वाली नारी को यहाँ "सबक" सिखाना जरूरी है।
कानून, सजा, सुरक्षा जाँच ये सारे मलहम है जख्म की वजह नहीं। चन्द अपराधियों को सजा दिलाकर इंडिया गेट पर प्रदर्शन कर कुछ हासिल नहीं होगा। उत्साहवश चन्द दिनों बबाल मचाकर, राजनीति कर सब ठंडा होकर बैठ जायेंगे और सोचेंगे चलो अपनी बहु बेटी तो अभी तक सुरक्षित हैं। हमें उन कारणों को बेअसर करना होगा जो क्षति पहुंचाते हैं। जननी को अपनी दुनियां को खुद ही ठीक करना और सुरक्षित रखना होगा। अपनी दुनियाँ को देखने समझने के लिए अपनी नज़र, अपना नजरिया बनाना होगा। स्त्री शक्ति की रक्षा का हर संभव प्रयास करना होगा। देश या समाज नहीं सोच के स्तर पर भी। स्त्री को खुद को "इंसान" के तौर पर स्वीकृत करना और करवाना है वह सृजक है, प्रवाह केवल उसी में है तट से बंधी नदी में ज्वार आने की प्रतीक्षा न करना बेहतर होगा। विनाश की रात्रि के बाद ही सृजन की भोर आती है, उस बेला में अंतर्नाद आक्रमणकारी हो जाता है और होना भी चाहिए।
-- श्रीमती मधु शर्मा, इन्दौर (म.प्र.)