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राम राज्य

दैहिक दैविक भौतिक तापा, राम राज नहीं काहुहि ब्यापा
सब नर करहिं परस्पर प्रीती, चलहिं स्वधर्म निरत श्रुति नीति ।।
अर्थात् रामराज्य में देहिक दैविक भौतिक ताप दुःख नहीं देते। सब परस्पर प्रेम करते हैं और वेदों में बताई मर्यादा में रहकर अपने- अपने धर्म का पालन करते हैं। लंका से रावण वध कर लौटे राम ने रामराज्य की स्थापना की थी। आज हमारे राम फिर अयोध्या आए हैं। पुनः सब सत्य शिव और सुंदरम् होगा यही आस सब लगाए हैं। जब भी नेतागण सुशासन का उल्लेख करते हैं, बहुधा रामराज का दृष्टांत देते हैं। वर्तमान हालात को देखते हुए यह एक कल्पना मात्र लगता है, लेकिन युगों पश्चात् भी यदि यह शब्द मानस पटल पर अंकित है तो अवश्य ही यह साकार रहा होगा। रामराज्य की व्याख्या रामचरित मानस के उत्तरकाण्ड में की गई है, तुलसीदास जी ने रामराज्य पर कुछ यूं लिखा है-
बरनाश्रम निज निज धरम निरत बेद पथ लोग।
चलहिं सदा पावहिं सुखहि नहिं भय सोक न रोग ।।
इसके अनुसार जब प्रत्येक व्यक्ति अपने वर्ण एवं आश्रम के धर्म अनुसार अपने निहित कार्य करता है, तो वेदों के अनुसार किसी प्रकार का भय, दुःख, रोग नहीं होता, यही रामराज्य है।
वाल्मिकी रामायण में वर्णित रामराज्य की कुछ अनूठी विशेषताएं इन सबकी आज की अराजक होती परिस्थितियों में अत्यंत आवश्यकता है:-
1. भगवान् राम वे 11,000 वर्षों तक संपूर्ण पृथ्वी पर राज किया था।
2. उस समय अयोध्या सम्पूर्ण विश्व की राजधानी थी।
3. भगवान राम के शासन काल में वन, नदियां, पर्वत, पृथ्वी, सातों दीप और सातों समुद्र प्रचुर मात्रा में जीवन की सभी आवश्यकताएं पूरी करते थे।
4. भोजन वस्त्र और आवास की कोई कमी नहीं थी। गरीबी नहीं थी, क्योंकि लोग लालची नहीं थे और प्रकृति का शोषण नहीं करते थे।
5. वहाँ कोई मानसिक और शारीरिक कष्ट नहीं था।
6. उनके शासन काल में चोरी नहीं होती थी। जंगल के जानवर भी अपनी दुश्मनी भूल गए थे ।
7. सभी नागरिक राम से प्यार करते थे और हमेशा उनकी गतिविधियों पर चर्चा करते थे।
8. लोग सैंकड़ों वर्षों तक खुशी से रहते थे और उनके कई बच्चे होते थे।
9. पूरी पृथ्वी बैकुंठ में परिवर्तित हो गई थी, जो कि श्री हरि का निवास है।
नैतिक मूल्यों के गिरते इस काल में राम राज्य की स्थापना हेतु राम की मूर्ति मात्र स्थापित करने से काम नहीं चलेगा। अपितु उनके आदर्शों का अनुसरण कर पुनः रामराज्य लाया जा सकता है। एक प्रशासक चाहे वो देश का हो समाज का या परिवार का मुखिया उसे राम के सदृश्य त्याग, पौरूष, सागरी सी गंभीरता और हिमालय सी धैर्य शीलता रखनी होगी। वे क्रोध में कालाग्नि के समान व क्षमा में पृथ्वी के सदृश्य होना चाहिए। जिस राम ने भारत के जनमानस के रोम-रोम में अपना स्थान बना रखा है। वो राम वे हैं मर्यादा भी जिनमें समाकर स्वयं संपूर्णता का अनुभव करती है। उनका रहन-सहन आचार-विचार मिलना-जुलना, बोलना, उनका विवाह, वनगमन, दुर्बल से मैत्री, युद्ध संचालन विजय और विजय के पश्चात् लंका की तरफ मुड़कर भी न देखना आज के परिवेश में असंभव सा प्रतीत होता है। उनका परिवार, शबरी, केवट, मुनिजन, गुरुजन, प्रजाजन, भालू, गिद्द आदि के साथ व्यवहार ये सब आदर्श हैं, मर्यादानुसार हैं धर्मानुसार हैं।
राम की मूरत जो अयोध्या में विराजी हैं, उनको जन-जन के कंठाहार में मन में, प्राण में समाहित करने के लिए उनके आदर्शों को जीवन में उतारकर रामराज्य की कल्पना को साकार किया जा सकता है भारत उनसे ही अर्थ पाता है, राम ही भारत के प्रतिरूप हैं और भारत उनका । राम को भारत से या भारत को राम से अलग नहीं किया जा सकता, राम भारत की आत्मा है, राम भारत के पर्याय हैं।
राम नाम मनि दीप धरु, जीह देहरीं द्वार ।
तुलसी भीतर बाहेरहूँ, जौं चाहसि उजियार ।।
यदि दे तुम अपने हृदय के अंदर और बाहर दोनों तरफ प्रकाश चाहते हो तो राम नाम रूपी मणि के दीपक को जीभ रूपी देहली के द्वार पर रख लो। रामराज्य तभी स्थापित होगा, जब यह रामनाम देवीय राम से भी ऊपर मानव राम के चरित्र को जन मानस अपनाएगा और प्रशासक से लेकर प्रजाजन सभी मर्यादाओं धार्मिक मान्यताओं और निःस्वार्थ भाव से जनहित में कार्य करेंगे।

-- श्रीमती मधु शर्मा, इन्दौर