Jangid Brahmin Samaj.Com



विजयदशमी

दशहरा अर्थात् विजयादशमी बुराई के प्रतीक माने जाने वाले रावण के अंत पर मनाया जाता है। जिस रावण को बुराई का पुतला बनाकर जलाया जाता है, क्या वह वास्तव में बुराई से परिपूर्ण था। उसकी अच्छाईयाँ बुराईयों के तले दबकर रह गई। उनके आचरण में उनके जीवन चरित्र में आज आमजन केवल बुराई ही बुराई के दर्शन करता है। रावण का कागज का प्रतिरूप जलाकर हम बुराई पर अच्छाई की जीत का जश्न मनाते हैं। यदि गहराई से अध्ययन किया जाए तो शायद एक ही वो अवगुण था, जो रावण को ले डूबा "अहंकार"। अहंवश व्यक्ति में सही गलत का भेद करने की क्षमता जाती रहती है, उसे यह भान नहीं रहता कि कहाँ खड़ा रहने से मेरा अहित हो सकता है 'मैं' वश इंसान स्वयं को सबकुछ समझने की जो भूल करता है, वही रावण ने की थी।
आइए जाने रावण के जीवन चरित्र के बारे में –
1. रावण ब्रह्मा जी के प्रपौत्र थे, वे ब्रह्मर्षि पुलस्त के पौत्र व ऋषि विर्खा के पुत्र थे। अर्थात् आपका संबंध एक उच्च ऋषि (ब्राह्मण) कुल से था। यद्यपि उनकी माता कैकयी एक राक्षसी थी, तथापि उनके नाना सुमाली ने उन्हें सदैव संस्कारों की शिक्षा दी।
2. रावण एक महापंडित, महाज्ञानी, महान् ज्योतिष था। फिर उसने राम से बैर मोल लेकर अपने विनाश को आमंत्रण दिया अथवा मुक्ति का मार्ग प्रशस्त किया।
3. वह त्रिकालदर्शी था तो भूत, वर्तमान, भविष्य सब देख सकता था तो फिर उसे माँ सीता में छुपी शक्ति का आभास नहीं था। क्या अन्यथा यह इस अपराध को जानबूझ कर करता।
4. तीनों लोकों का स्वामी दशानन वायु मार्ग तक में गमन करता था। उसे आकाश युद्ध में पराजित करना कठिन था। वह आकाश में सूर्याकार व्यूह रचना करता था। भूलोक व पाताल लोक में तो उसका अटल साम्राज्य था।
5. शिव का अनन्य भक्त था वह उसने शिव तांडव स्रोत की स्वयं रचना की थी। पार्वती की मंशानुसार जब महादेव ने कैलाश पर श्रीलंकापुरी विश्वकर्मा जी ने बनवाई थी और उसका वास्तु करवाने के लिए रावण को पंडित के रूप में आमंत्रित किया था और उसने दक्षिणा के रूप में श्रीलंका ही मांग ली थी।
6. रावण के पांडित्य का इतना त्यागपूर्ण उदाहरण है कि रामेश्वरम् की स्थापना भी इनके हाथों ही सम्पन्न कराई गई थी, जबकि उन्हें ज्ञान था कि ये उस खुद की मृत्यु का प्रायोजन था।
7. श्रीलंका का उत्तरी भाग जहाँ एक पहाड़ी थी, वहाँ पर वैधशाला बना रखी थी। राम की सेना को आते हुए रावण ने इसी जगह से देख लिया था और अपने सारे प्रक्षेपणास्त्र तैयार कर लिए थे। युद्ध के अंतिम चरण में रावण यहीं से सारे आदेश प्रसारित करते थे। इस गुम वैधशाला की जानकारी भी विभीषण ने राम को दे दी थी।
8. रावण का पुत्र इन्द्रजीत महायोद्धा था उसके पास कुशल एवं तीव्र गति से चलने वाले विमान अभेद अस्त्र-शस्त्र व अनेकों अनेक सिद्धियाँ प्राप्त की जिनके बल पर उसने इन्द्र को भी जीत लिया था। स्वर्ग पर देवताओं पर रावण ने अंकुश लगाकर उन्हें बंदी बना लिया था। इस महाशक्तिशाली रावण की कैद में देवता भी बंदी थे।
9. नवग्रहों को अपने आधीन करने वाले रावण ने प्रबल ग्रह शनि को अपनी राजसभा में उल्टा लिटा रखा था।
10. मायावी दशानन के दस सिर थे, नाभि में अमृत था, अनेक वरदानों से लबालब यह महायोद्धा महामानव एक तपस्वी, वनवासी राम से किसी प्रकार हार गया। अभेद लंका जो चहूँ ओर से सुरक्षित थी। भला किस तरह लुट गई, तबाह हो गई।
उपरोक्त यशगान यह दर्शाता है कि हम चाहे कितने भी शक्तिशाली हो, ज्ञानी हो, उच्च पदासीन हो यदि हम अभिमान वश सही-गलत का निर्णय नहीं कर पाते तो हमारे द्वारा उठाया गया, एक गलत कदम हमें विनाश की ओर ले जा सकता है। हमारी सर्वस्व यशकीर्ति को धूमिल कर सकता है। बदला लेने की भावना जो कि रावण ने बहन शूपर्णखा के बहकावे में आकर की थी, उसे ले डूबी। प्रतिशोध के भाव सामने वाले का तो नाश करते ही हैं, स्वयं को भी जलाकर राख कर देते हैं। अत: हमें जो मानव जन्म मिला है, उसे अच्छे कार्यों में लगाकर सार्थक करें नाकि रावण की भांति अपनी ऊर्जा, विद्या, शक्ति का अपव्यय कर जीवन को कलंकित करे।

-- श्रीमती मधु शर्मा, इन्दौर