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अजन्मी

अजन्मी बेटी का माँ के नाम पत्र :
माँ अगर मैं जन्मी तो दादी गुस्सा होंगी कोसेगी तुम्हें और मुझे, आंगन में जाकर फोड़ेगी नमक की हाँडी। क्योंकि उसे पोते की आस रही होगी। किन्तु तुम हिम्म्त मत हारना माँ और मुझे सुरक्षित रखना और उस दिन की प्रतीक्षा करना जब मेरे जन्म होने पर भी तुम्हारे आंगन में घी के दिये जलेंगें। जब मैं तुम्हारा नाम किसी बेटे के समान रोशन करूंगी।
--- तुम्हारी, अजन्मी लाड़ली

"कन्या भ्रूण का कोख में कत्ल" आज के समाज की एक भयावह समस्या है। जिससे हमारा समाज मी अछुता नहीं है। विशेषकर उत्तर भारत के राज्यों, म.प्र., पंजाब, राजस्थान एव हरियाणा में इस समस्या ने महामारी का रूप धारण कर लिया है। महिला आयोग एवं अन्य स्वयं सेवी संगठनों के प्राप्त अनुभवों एवं सर्वे के अनुसार समाज में महिलाओं का प्रतिशत पुरुषों की तुलना में गिरता जा रहा है, यह तथ्य हमारी विचारधारा पर प्रश्न चिन्ह लगा रहा है, कि यही क्रम उत्तरोत्तर बढ़ता रहा तो भविष्य में क्या हो सकता है। कहीं जन्म से पूर्व रोक, तो कही उसके बाद उपेक्षा तो कहीं बोझ समझकर समयानुसार गरीबी के कारण किसी के भी गले मार देने का इरादा तथा अन्त में उसकी परिणिति जलने, हत्या या आत्महत्या जैसी परिस्थितियों का स्वरूप सामने आता है। स्त्री जाति का अधिकतर यहीं हश्र दिखाई देता है।
उक्त समस्या के कारणों पर गौर करे तों इसके मूल में अशिक्षा और दहेज नामक दानवों को आप पायेंगें। एक मध्यमवर्गीय परिवार भी सामान्यतः 2 से 3 लाख रूपये तक विवाह में व्यय करने की परिस्थितियों पर मजबूर हो जाता है, या संपन्नता के दिखावे के चक्कर मे भ्रमित होकर दहेज के मकड़जाल में फँस जाता हैं। इसके लिए दोनों पक्षों तथा उपस्थित सामाजिक वातावरण को विचार करना चाहिए।
विवाह सम्बन्ध की चर्चा के दौरान वर पक्ष अप्रत्यक्ष रूप से लड़के की शिक्षा दीक्षा व परवरिश पर होने वाले व्यय को बताना नहीं भूलता जिसका सीधा अर्थ समझ में आता है, कि उनकी किस क्षतिपूर्ति की इच्छा है। परन्तु इस पर भी विचार करना चाहिए कि क्या एक कन्या के लालन पालन उसकी शिक्षा दीक्षा में क्या कुछ खर्च नही होता है? इस तथ्य को भी हमें समझना होगा। वर्तमान में हमारा समाज शिक्षित तो हो रहा है, परन्तु इस में स्त्री शिक्षा की गति बहुत कम है। बालिकाओं को यही समझकर समयानुसार उच्च शिक्षा की ओर कम प्रेरित किया जाता है, कि इन्हें तो घर का चौका चूल्हा सम्भालना है तथा अधिक पढ़ा दिया तो समकक्ष वर ढुंढ़ना कष्टदायक है और मिल भी गया तो उनकी मांग पूर्ति करना अधिक कष्टदायक है। इसके अपवाद स्वरूप आजकल कुछ परिवार उच्चा शिक्षा तो करवा देते है, लेकिन उनकी शिक्षा के प्रति वो जज्बा नहीं कि हमारी बेटियां भी इस योग्य हो जाये कि पुरूषों के साथ सहभागिता से मिलकर सामाजिक बुराइयों का प्रतिरोध कर उन्हे सहन नहीं करे। यदि माता पिता अपनी बेटियों को शिक्षित करने की सोच विकसित करें और पुत्रों के समान दर्जा दे तो दहेज का भय भी कुछ मायनों में समाप्त हो सकता है। तथा वह दिन दूर नहीं जब हमारे जांगिड समाज के सनातन सागर में भी रत्नरूपिणी गुणों से युक्त किरण बेदी एवं कल्पना चावला जैसी प्रतिभाओं की कोई कमी नहीं होगी।
जांगिड कन्यायें मात्र परिवार ही नहीं बल्कि पूरे राष्ट्र का गौरव बनकर विश्व के आकाश पर उभरेंगी। इसमें प्रत्यक्षीकरण के लिए समाज के वर्तमान को कुछ चिंतन मनन की आवश्यकता है।
प्रसिद्ध लेखक मुंशी प्रेमचन्द जी के विचार "संसार में जो भी कुछ सुन्दर है, उसकी प्रतिमा को स्त्री स्वरूप कहा जा सकता है।" पर ध्यान देने की आवश्यकता है।


-- श्रीमती मधु शर्मा, इन्दौर (म.प्र.)