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नेकी कर, कुंआ में डाल

नेकी कर, कुँआ में डाल - यह कहावत यों ही नहीं बनी है। समाज में प्रचलित, कोई भी कहावत के पीछे अनेक लोगों के वर्षों के अनुभव और तजुर्बे होते हैं। इसीलिए किसी कहावत को महज चुटकुला समझकर उसका मजाक नहीं उड़ाना चाहिए।
प्रत्येक कहावत की प्रचलन के पीछे उसका लम्बा इतिहास होता है और उसमें जीवन से जुड़े अनेकों समस्याओं के संघर्ष कथा- व्यथा मिली होती है। इस आलेख में मैं समाज सेवा के अपने उन्हीं अनुभवों की कथा-व्यथा की चर्चा कर रहा हूँ। इस आलेख का यह उद्देश्य नहीं है कि मैंने जो समाज सेवाएं की उनका बखान करूँ, वरन् इस आलोक को लिखने का उद्देश्य यह है कि समाज सेवा करने वालों के प्रति समाज के मन में क्या भाव होता है और वे लोग जिनके बीच कोई समाज सेवा करता है तो उसके प्रति वे लोग क्या भाव रखते हैं।
समाज सेवा के महत्त्व और महानता पर हमारे धर्म ग्रंथों में बहुत लिखे गए हैं। स्वार्थ और परमार्थ की चर्चा संत महात्मा लोग हमेशा अपने प्रवचनों में करते रहते हैं।
समाज सेवा को महान धर्म कहा गया है संत तुलसीदास जी कहते हैं- "पर हित सरिस धरम नहीं भाई" दूसरे की सेवा के समान और कोई धर्म नहीं है।
कबीरदास जी भी कहते हैं- 'परमारथ के कारणे साधु धरे शरीर' दूसरे की सेवा के कारण ही साधु मानव शरीर धारण करते हैं। परमार्थ पर चर्चा करने बैठूं तो कई मोटे ग्रंथ बन जायेंगे क्योंकि सभी धर्म तथा सभी धर्मों के संत महात्माओं ने दूसरों के हित, दूसरे के कल्याण को सर्वश्रेष्ठ धर्म कहा है।
सिख धर्म में गुरुनानक ने कहा है- "बंड के छको' यानि बाँट कर खाओ, खाते समय यह ध्यान रहे कि दूसरा कोई भूखा न रहे। मगर, ये ही समाज सेवा करने वाले जब अर्थाभाव या किसी विपत्ति में पड़ जाते हैं तो कोई उसे देखने वाला नहीं होता। लोगों का कर्त्तव्य बनता है कि उनकी सेवा करें, उनकी सहायता करें, उनकी पूछताछ करें, जिन्होंने उनकी सेवा में अपनी जी जान लगा दी। ऐसे असहाय समाज सेवियों की बड़ी संख्या है जो कहीं अनाथालय में पड़े हैं तो कहीं वृद्धा आश्रम में गल-पच रहे हैं। ऐसा ही एक समाचार अखबारों में पढ़ने को मिला है कि जिस व्यक्ति ने अपने जीवन का उद्देश्य यह बना लिया था कि वह किसी बेसहारा व्यक्ति की लावारिस लाश को शमशान घाट अपने बलबूते पर ले जायेंगे और उसका विधिवत अंतिम संस्कार करेंगे।
सैंकड़ों लावारिस लाशों के अपने परिश्रम और खर्च से अंतिम संस्कार करने वाला व्यक्ति मरता है तो उसकी लाश को शमशान घाट ले जाने के लिए चार कंधे भी नसीब नहीं होते तो उसे बदनसीब की लाश को नगरपालिका वाले बोरे में डालकर किसी जगह मिट्टी में गाड़ आते हैं और मजदूर उस लाश को इतने कम गहराई में गाड़ते हैं कि कुत्ते उसे खोदकर बाहर निकालते हैं और चील और कुत्ते मिलकर उस लाश को महाभोज का मजा लेते हैं। समाज सेवा परमार्थ आदि पर मैंने बहुत धर्म ग्रंथों और पुस्तकों में पढ़ा है। उन किताबी बातों पर मैं और अधिक नहीं लिखना चाहता। मैं लिखना चाहता हूँ समाज सेवा पर अपना अनुभव जिसमें मैंने विगत 75 वर्ष गुजारे हैं। जब मैं महज 6 वर्ष का था, तभी मैं अपने गाँव के बारे में सोचने लगा था पता नहीं कैसे-कैसे मेरे मन में गाँव के गरीब लोगों की सेवा के भाव जाग गए थे।
उन्हीं दिनों मुझे अंग्रेजी में एक किताब हाथ लगी थी- "Miss a Meal Movement” (एक शाम का खाना छोड़ो अभियान ) । मैं तो उन दिनों ठीक से हिन्दी लिखना पढ़ना नहीं जानता था। गाँव में बलदेव गुरुजी के घर पढ़ने जाया करता था। जहाँ बच्चे जमीन पर बोरा बिछाकर पढ़ते थे। मैंने उस किताब का अर्थ किसी अंग्रेजी जानने वाले से जाना। उस छोटी सी पुस्तिका में लिखा था- तुम एक शाम का भोजन छोड़ दो। उस भोजन के बराबर अपने घर में एक बर्तन में अनाज जमा करो और जब वह इतना हो जाए कि तुम दो-चार गरीब के बीच उसे बाँट सको तो उसे उनमें वितरण कर दो। उस पुस्तक ने मेरे समाज सेवा का दीया जला दिया जो आज तक नहीं बुझा है। समाज सेवा का गुणगान तो लोग करते हैं मगर कोई किसी के प्रति नेकी करे, भलाई करे तो ऐसे नेकी करने वालों की कोई पूछ नहीं होती। इसीलिए यह कहावत प्रचलित हो गई कि - नेकी कर, कुँए में डाल ।

-- डॉ. लक्ष्मी निधि, जमशेदपुर