मुंदहूँ आँख कतहुँ कोऊ नाहीं
आँख मूंदे रखने वालों को दुनिया नहीं दिखायी पड़ती मगर, जो अपनी आँखें खोल कर रखेगा तो उसके सामने संसार भी होगा, और संसार की समस्याएं भी होंगी। विश्वकर्मा समाज में धनवंतों और गुणवत्तों की कोई कमी नहीं है मगर, मुंदहूँ आँख कतहुँ कोऊ नाहीं। इन धनवंतों और गुणवंतों की अपने समाज के लिए आँखें बंद हैं इसीलिए इस समाज की मूल समस्याओं पर विचार-विमर्श करना पूर्णत: अनछुये रह जाते हैं।
विश्वकर्मा समाज के सभा-सम्मेलन में ये छः मुद्दे उठाये जाते हैं
1. विश्वकर्मा समाज की राजनीति में भागीदारी।
2. विश्वकर्मा समाज के युवकों और युवतियों को कार्यपालिका और न्यायपालिका के विभिन्न विभागों में ऊंचे ओहदों पर स्थान मिले।
3. विश्वकर्मा के पंचपुत्रों को एक मंच पर लाया जाये ताकि हमारे समाज की एकता बढ़े।
4. विश्वकर्मा शिल्पकला विज्ञान के विकास के लिए विश्वकर्मा विश्वविद्यालय की स्थापना की जाये। विश्वकर्मा शिल्प-कला विज्ञान के शिक्षण प्रशिक्षण के साथ-साथ विश्वकर्मा के उसी शिल्प-कला के शोध की व्यवस्था हो जिस पर अब तक कभी ध्यान नहीं दिया गया।
5. स्वावलंबी तथा स्वाभिमानी भारत के निर्माण के लिए विश्वकर्मा शिल्प कला-विज्ञान से जुड़े सभी प्रकार के उद्योगों की स्थापना की जाये तथा उसमें शिक्षा-प्रशिक्षण तथा नियोजन में विश्वकर्मा समाज को प्राथमिकता दी जाये तथा उन्हें इस शिल्प कला से अपने पेशे से जुड़े कार्यों के लिए सूद रहित दस लाख रुपये देने की व्यवस्था की जाये। इन्हें उद्योगों की स्थापना के लिए भूमि की व्यवस्था की जाये। इन मुद्दों के अलावा और भी बहुत से मुद्दे हैं, जिन पर चर्चा करना तथा उनके संबंध में समुचित निर्णय लेना विश्वकर्मा समाज के संगठनों का दायित्व है।
6. इंजिनियरिंग कॉलेजों में विश्वकर्मा पीठों की स्थापना।
असल इस समाज का कोई केन्द्रीय शक्तिशाली संगठन नहीं है। इस सभा में संगठन के नाम पर अनेकों झंडे और अनेकों पंड़े हैं। सबकी अलग-अलग डफली और अलग-अलग राग है। कोई इसको सुनने वाला नहीं है। सभी अपनी-अपनी राह पर चलते हैं जिसकी कोई मंजिल नहीं है। विश्वकर्मा समाज का सांस्कृतिक पक्ष बिल्कुल कमजोर है जिसके कारण इस समाज के उच्च शिक्षा प्राप्त वर्ग इस समाज से जुड़ नहीं पाते और जो अपनी ओर से किसी संगठन से जुड़ना चाहते हैं तो वे वहाँ उपेक्षित से रह जाते हैं।
विद्वानों को अपने संगठन से कैसे जोड़ा जाये, उनकी विद्वता तथा अनुभवों से कैसे लाभ उठाया जाये, उन बिन्दुओं पर कभी विचार नहीं किया गया कि समाज के प्रबुद्ध वर्ग को समाज के संगठनों में किस तरह सक्रिय किया जाये तथा किस तरह उनके हाथों में नेतत्व थमाया जाये। यह ऐसा प्रश्न है जिसके उत्तर में समाज के सर्वांगीण विकास के बहुत से मुद्दे जुड़े हैं।
संगठन चलाने वाले अपने गले में माला पहनने के लिए हर सभा-सम्मेलन में अपनी गर्दन आगे कर देते हैं। सांस्कृतिक पक्ष यदि मजबूत होता तो हमारे समाज की पत्रिकायें, सम्पादकों की मृत्यु के पश्चात नहीं मरती। 'पंचपुत्र' तरुण विश्वकर्मा, शेखावाटी की तलहटी से, राष्ट्र हितैषी आदि पत्रिकायें उनके सम्पादकों की मृत्यु के साथ चिता पर चढ़ गयी। एक पत्रिका है विश्वकर्मा टूडे, उसके सम्पादक थे आर.पी. शर्मा। इनके परिवार वालों ने संकल्प लिया है वह विश्वकर्मा का दीया बुझने नहीं देंगे। इन तमाम पत्रिकाओं का बंद हो जाना यह खबर देता है कि हमारे समाज का सांस्कृतिक पक्ष इतना कमजोर है कि समाज के किसी ने इन सम्पादकों के परिवारों को सांत्वना के दो शब्द भी नहीं भेजे।
अपने समाज के रचनाकारों की रचनायें इस समाज के लोग खरीदते तो इस समाज में ऐसे-ऐसे लेखक, कवि, कथाकार तथा उपन्यास हैं कि वे उच्च कोटि के साहित्य से टक्कर लेने वाली रचनायें प्रस्तुत करते।
मगर, 'का पर करूं सिंगार, पिया मोर आन्हर' अर्थात् किस पर सिंगार करूँ। जब सिंगार देखने वाले मेरे पति ही अंधे हों। इस समाज के बड़े-बड़े कल-कारखाने हैं मगर, उनका कोई अपना संगठन नहीं है। मैं बहुत दिनों से कह रहा हूं-अखिल भारतीय विश्वकर्मा चैम्बर ऑफ कॉमर्स एण्ड इंडस्ट्रीज बनाईये मगर, इधर किसी का ध्यान नहीं जाता।
समय बेरा को देखते हुये नयी कल्पना, नयी सोच, नये दृष्टिकोण से अपने समाज के सर्वांगीण विकास के लिए सुसंगठित तथा मजबूत संगठन खड़ा करना होगा तभी इस समाज की आवाज सुनी जायेगी तभी इस समाज के शासन और प्रशासन में अपनी भागीदारी हासिल हो सकेगी।
देश में जहाँ कहीं कोई विश्वकर्मा मंदिर है, विश्वकर्मा धर्मशाला है, जांगिड धर्मशाला है या अन्य कोई सामाजिक संस्थान हैं वे सब हमारे विश्वकर्मा समाज के बुजुर्गो और पुराने लोगों की देन है। हम जिसे अपने समाज की नई पीढ़ी कहते हैं और आशा करते हैं कि यही नई पीढ़ी हमारे विश्वकर्मा समाज को नई उड़ान देगी। वहीं नई पीढ़ी के नौजवान अपने समाज की किसी जवाबदेही का जुआ अपने कंधों पर रखने नहीं दे रहे। अब हमें कोई बताएं हम किस को क्या कहें और समाज के बुजुर्ग लोगों के कंधों पर अपने समाज के विकास का दायित्व कब तक लदा रहे। बूढ़े बैल भारी बोझों को लेकर कितनी दूर तक बैलगाड़ी खींच पायेंगे।
-- डॉ. लक्ष्मी निधि, जमशेदपुर