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लोकतंत्र में लोकमत की भूमिका

लोकतंत्र में लोकमत का बहुत बड़ा महत्त्व है, इसीलिए भारतीय संविधान ने इसे नागरिकों के अधिकारों की सूची धारा 19 में बोलने और अभिव्यक्ति के अधिकार में मतदान के अधिकार को मतदाता का संवैधानिक अधिकार को सम्मिलित किया है। संसदीय प्रणाली में राजनीतिक दलों द्वारा खड़े किए गए या स्वतंत्र उम्मीदवारों को मतदाता अपना वोट देकर विजयी बनाते हैं।
जिस दल को बहुमत मिलता है, वह सरकार बनाता है। सरकार भगाता है। आजकल चरित्रहीन नेताओं एवं नीति और सिद्धान्त विहीन राजनेताओं के प्रति मतदाताओं का कोई आकर्षण नहीं रहा, इसीलिए आज नेता लोग अपने उम्मीदवारों को विजयी बनाने के लिए फिल्मी हीरो-हीरोइनों को चुनाव में उतारने लगे और उन्हें उम्मीदवार भी बनाने लगे। मगर उनकी चमक-दमक भी काम नहीं आई।
फिर इन राजनीतिक दलों ने गुंडा के द्वारा बूथ लुटवाने लगे, मतदाताओं को डराने-धमकाने लगे। चुनाव के समय बड़े-बड़े अपराधियों के गिरोहों को चुनाव में बुलाया जाने लगा। चुनाव के समय घातक हथियारों की खूब बिक्री होती थी। मगर, अब वह भय भी दूर होने लगा है। नक्सलवादी इलाकों में नक्सलियों के चुनाव बहिष्कार का हुक्म भी व्यर्थ हो गया है। लोग बंदूकों के डर की साया से बाहर निकलकर मतदान देने लगे है।
इस बार जो निर्वाचन हुआ, उसमें दो बातें देखने को मिलीं। बंदूकों के डर की साया से मतदाता तो जरूर बाहर निकला है, मगर वह रुपयों के लोभ में फंस गया है। चुनाव में रुपयों का बोलबाला बढ़ा है। जिस उम्मीदवार को नहीं जीतना चाहिए, उसे उसके रुपयों ने जिताया है। ग्रामीण क्षेत्रों में रुपयों का बोलबाला बढ़ा है। वहाँ के मतदाता कहते हैं- जब ये नेता जीत कर जाते हैं तो करोड़ों-करोड़ कमाते हैं, तो फिर हम अपने वोट का दाम क्यों न लें?
शहरों में न बंदूकों का भय और न रुपयों का लोभ की भूमिका रहती है। यहाँ जो वर्ग बुद्धिजीवी कहलाते हैं, वे चुनाव के प्रति उदासीन हैं। वे कहते हैं-किसे वोट दूं? हम जिसे वोट देते हैं, वह हमसे पूछे बिना पार्टी बदल लेता है। कोई पार्टी उम्मीदवारों के चयन में हमें साझेदार नहीं बनाता है। उसे बुद्धिवादी कहते हैं, दागी, अशिक्षित तथा बेकाम के उम्मीदवारों को वोट देने के बजाय घर में बैठे रहना ही अच्छा है।
चुनाव के प्रति जो सजगता बुद्धिजीवियों में होनी चाहिए, वह देखने में कोई नहीं मिल रही है। चुनाव के प्रति गाँव के लोग भी अच्छे विचार नहीं रखते। जनता के विचार ही तो लोकमत का निर्माता है। मगर मतदाताओं में एकता नहीं रह गई है। वे दिग्भ्रमित हैं। इसी कारण आज किसी भी दल को बहुमत नहीं मिलता है।
बहुमत के अभाव में सरकार बने तो कैसे बने? अब नेताओं ने एक युक्ति निभानी है-मिली-जुली सरकार के गठन की। यह राष्ट्रीय सरकार नहीं होती। राष्ट्रीय सरकार का चित्र और चरित्र राष्ट्रीय होता है। आजकल जो मिली-जुली पार्टियों की सरकार बनने लगी है, वे सबके सब चुनाव में पराजित दल हैं। जनता के द्वारा नकारी हुई पार्टियाँ हैं। मतदाताओं ने जिन्हें सरकार बनाने के लायक नहीं समझा, वे ही राजनीतिक दल आपस में मिलकर सरकार बनाते हैं। जिनके घोषणा पत्र अलग-अलग होते हैं। वे सब अपनी नीति, अपने सिद्धान्त, अपने घोषणा पत्र को ताक पर रखकर कुर्सी के लिए एक हो जाते हैं और मंत्री बनकर मलाईदार विभाग लेने के लिए विवाद खड़े कर देते हैं। देश और समाज की फिक्र नहीं रहती, उसे फिक्र है कि कैसे हम सत्ता की कुर्सी पर बैठे?
'लोकतंत्र' लोकमत महत्त्वहीन हो गया है। मिली-जुली सरकार बनाने के प्रावधान को समाप्त कर देना चाहिए। नए राजनीतिक दल को पाँच वर्षों के बाद ही चुनाव में भाग लेने का अधिकार मिलना चाहिए। इससे दल छोड़कर कुर्सी के लिए घुड़दौड़ रूकेगी। एक नेता मात्र तीन बार ही चुनाव लड़ सकता है। दल बदल ही जनप्रतिनिधि की कुर्सी तथा अन्य सारे पद छोड़ने पड़ेंगे और जनप्रतिनिधि को घोषणापत्र को मतदाता के साथ कन्ट्रेक्ट समझना चाहिए, जिसके भंग होने पर उनके ऊपर कानूनी कार्यवाही हो सकती है। लोकतंत्र में लोकमत की भूमिका तब महत्त्वपूर्ण होगी जब हम राजनीतिक घोड़ों के मुँह में लगाम लगायेंगे।

-- डॉ. लक्ष्मी निधि, जमशेदपुर