संकल्प करें कि हम यह काम कर सकते हैं।
भारतीय दर्शन शास्त्र में विज्ञान की बातें भी, धर्म के सूत्रों के द्वारा समझाया गया है। पृथ्वी की रचना के सम्बन्ध में कहा जाता है, विश्वकर्मा ने इसकी रचना की। इसीलिए विश्वकर्मा को विश्वरचैता कहा जाता है।
पृथ्वी की संरचना के पश्चात् उन्हीं विश्वकर्मा ने शिल्प-कलाविज्ञान के अधिष्ठाता आचार्य बनकर, पदार्थों का अनुसंधान किया तथा लोहा, लकड़ी, सोना, ताम्बा तथा शिला से अनेकों प्रकार के उपयोगी वस्तुओं का निर्माण कर मनुष्य की आवश्यकताओं की पूर्ति की तथा मानव सभ्यता और संस्कृति का सृजन किया।
यदि शिल्प, कला, विज्ञान के द्वारा संसार में ये सारी चीजें निर्मित नहीं होती, तो आज मानव समाज का विकास ऐसा नहीं हुआ होता, जैसा आज हम देख रहे हैं। शिल्प, कला, विज्ञान के चमत्कार ने 'वनमानुष' को 'मानव' बनाकर पेड़-पर्वतों से नीचे उसे उतारकर 'मनुष्य' बनाया। वही 'मनुष्य' ने कालक्रम में आगे बढ़ते हुये, आज चन्द्रमा और मंगल ग्रह पर चढ़ने की क्षमता हासिल कर ली है।
जब तक 'मनुष्य' 'वनमानुष' के साथ में था, उसके हाथ नहीं थे। उसके चार पैर थे। वह उन चारों पैरों के बल चलता था, मगर ज्यों ही वह 'वनमानुष' नीचे उतरा तो उसने दो पैरों पर खड़ा होने और चलने की कोशिश की तथा दो पैरों को हाथों के रूप में इस्तेमाल करने लगा। जिस दिन से उसने अपने चार पैरों में से, दो पैरों को हाथ के रूप में उपयोग करना शुरू किया, उसी दिन से उसकी जीवन शैली बदलने लगी। आज संसार में जो कुछ देखते हैं, वह सब 'विश्वकर्मा' विज्ञान-कला-शिल्प की देन है।
आदि काल में 'मनुष्य' की एक ही जाति थी "मानव जाति" मगर ज्यों-ज्यों मानव समुदाय के लोग तरह-तरह के काम में जुटने लगे तभी से उसके पेशा के आधार पर उसको पुकारा जाने लगा और बाद में, वह उसकी जाति बन गयी। अब कोई वह काम करे या न करे, अगर वह उस परिवार में है तो उस परिवार के पैतृक-पेशे के आधार पर उसकी वही जाति बन गयी।
विश्वकर्मा के पाँच पुत्र हैं - मनु (लौहकार), मय (काष्ठकार), त्वष्टा (ताम्रकार), देवड़ा (स्वर्णकार) तथा शिल्पकार (शिलाकार - पत्थर की मूर्तियाँ बनाने वाले) इन पेशों के आधार पर विश्वकर्मा के पाँच समुदायों का जन्म हुआ। ये पाँचों विश्वकर्मा ही हैं। मगर भाषा, देश, काल, खण्ड के आधार पर इनके विभिन्न स्थानों में विभिन्न नामों से पुकारा जाता है। विश्वकर्मा जातियों को, देश के विभिन्न भागों में लगभग एक हजार नाम हैं। 'मूल वंश' के आधार पर इनके गोत्रों का निर्धारण हुआ। यह गोत्र उनके उपनाम बन गये हैं। इन विभिन्नताओं के बीच एक अभिन्नता है कि ये सभी विश्वकर्मा हैं। इन अनेकताओं के बीच एक एकता है वह एकता का सूत्र है कि सभी विश्वकर्मा हैं।
भारत वर्ष बड़ा देश है इसमें विभिन्न राज्य हैं। उन राज्यों की विभिन्न भाषाएं हैं। इसीलिए वह शिल्प, कला, विज्ञान के व्यवसायों से जुड़े लोगों की भाषाएं अलग हैं, नाम भी अलग हैं, जीवन शैलियाँ भी अलग हैं। इसीलिए आज सबसे बड़ी आवश्यकता है कि इन बिखरे और छिताये समुदायों को एक विश्वकर्मा सूत्र से जोड़ा जाये।
'विश्वकर्मा एकीकरण' की मूल बातों को समझने में हम भूल न करें। एकीकरण का यह अर्थ नहीं है विश्वकर्मा की जातियों को तोड़कर एक किया जाये। इस सम्बन्ध में कभी-कभी कुछ लोग कह उठते हैं हम सभी 'विश्वकर्मा' शब्द अपने नाम के आगे लगाएँ। कुछ लोग राय देते हैं हम अपने नाम के सामने शर्मा लगायें।
आज के नौजवान अपना 'जनेऊ' अपने गले से निकालकर फैंकने लगे हैं। अपनी जातिय परम्परा का परित्याग करने लगे हैं। इसीलिए ऐसे विचार या सुझाव सार्थक नहीं हैं। ऐसी बात नहीं है कि ऐसी बात नहीं हुई है। गुरु गोविन्द सिंह ने सिक्खों को अपने नामों के आगे “सिंह" लगाने का आदेश दिया। आज सभी सिक्खों का पदनाम “सिंह" है। यदि विश्वकर्मा समाज में, ऐसा होता है, तो हम उसका स्वागत करेंगे। मगर, आज की जो स्थिति है, उसमें ऐसे अभियान के प्रति हम आश्वस्त नहीं हैं।
मगर उसकी संभावना है कि पंचपुत्रों का एक संयुक्त मंच बने। उसके माध्यम से सम्पूर्ण विश्वकर्मा समाज का संगठन खड़ा हो, पाँचों समुदायों के बीच रोटी-बेटी का रिश्ता होना चाहिए। अपने समाज में वैवाहिक सम्बंध करने में वे हिचकते हैं, मगर दूसरी जातियों से रिश्ता जोड़ने में कोई हिचक नहीं होती। पंचपुत्रों के परिवारों में विवाह होगा तो दूसरी जातियों में विवाह के लिए विश्वकर्मा समाज के युवक-युवतियों का पलायन नहीं हो सकेगा।
रिश्तों का विस्तार है। 'रोटी-बेटी' के रिश्तों का बड़ा महत्त्व है। प्राचीन काल में, इसी रोटी-बेटी के रिश्तों के बल पर राजा लोगों ने अपनी ताकत बढ़ायी। अपनी शक्ति का विस्तार किया।
समाज के प्रबुद्ध लोग अपने समाज की सेवा क्या करेंगे, वे तो इतने बुजदिल हैं कि अपनी जाति का नाम तक बताने की हिम्मत नहीं कर पाते। मगर, उन्हें विश्वकर्मा के गौरवपूर्ण इतिहास का पता नहीं है कि पृथ्वी का प्रथम पुरोहित कोई ब्राह्मण नहीं विश्वकर्मा ही हैं।
कहा जाता है विश्वकर्मा समुदाय के लोग देश में 16 करोड़ हैं। यदि कहीं दो एक राज्य में इतनी आबादी होती तो फिर वहाँ की हुकूमत विश्वकर्मा समाज के हाथों में होती। मगर ये जाति भी विभिन्न राज्यों में छिट-पुट रूप से फैली है। इसीलिए “मतदाता” के रूप में इसकी शक्ति कहीं ऐसी नहीं बनती कि इस समाज के लोग, कहीं अपने आदमी को जीताकर एम.एल.ए. या एम.पी. बना सकें।
जब यह समाज अपने आदमी को जीताकर जनप्रतिनिधि नहीं बना सकता, तो दूसरे उम्मीदवार को परास्त करने की 'राजनीति' का खेल खेलना चाहिए यदि चुनाव में विजय हासिल करना जीत है तो किसी को परास्त करना भी जीत ही है। इसीलिए इस समाज के लोग, कहाँ, किसी रूप से राजनीति करें, इस पर विचार-विमर्श करें। टेढ़ी ऊँगली से घी निकलता है। 'राजनीति' में इस समाज का 'प्रभुत्व' तब जाहिर होगा जब हम सामाजिक स्तर पर मजबूत होंगे।
सामाजिक स्तर पर मजबूत होने के लिए विभिन्न पेशों के लोगों को अपने साथ जोड़ें। नाई (हमाम) समाज तथा कुम्हार समाज, को भी विश्वकर्मा की श्रेणी में रखा जा सकता है। इसमें 'ना-नू' करने वाले लोगों की ओछी दृष्टि से समाज को नुकसान होगा। इस बिन्दु पर अब जोर देने का जमाना नहीं रहा। अब समाज में, दूसरी दृष्टि और दृष्टिकोण से काम करने की जरूरत है।
यह काम क्या है? इसको कैसे करना चाहिए? इस काम में, किसको-किसको जोड़ना चाहिए? इन तमाम बातों पर विचार-विमर्श करने के लिए आप एक बैठक करें। आपस में, विचार-विमर्श करें।
विचार-विमर्श के गर्भ से रास्ते भी निकलेंगे, योजनायें भी निकलेंगी। कार्यकर्ता भी निकलेंगे। कोई काम असंभव नहीं है।
मानव जब जोर लगाता है
पत्थर पानी बन जाता है।
मैं एक ऐसे व्यक्ति की चर्चा थोड़े शब्दों में यहाँ करना चाहता हूँ कि वे सरकार के बड़े ओहदे पर थे। अपने को ब्राह्मण जाति के बुर्के में छिपाकर रखते रहे। उनके पिता की मृत्यु हुई तो उनकी अर्थी में कंधा देने वाला कोई नहीं मिला। न उनके तथा कथित ब्राह्मण समाज का कोई आदमी आया और न विश्वकर्मा समाज का कोई आदमी। उनके पिता की श्राद्ध में मुंह जुठाने के लिए भी नहीं जुटा।
अपने समाज से जुड़िये। बड़ी शान से कहिये, मैं विश्वकर्मा की संतान हूँ। यही आपका मान सम्मान बढ़ायेगा। भगवान् ईशा भी तो बढ़ई (विश्वकर्मा थे) तो क्या जाति के आधार पर कहीं उनकी उपेक्षा हुयी? श्री रामशर्मा आचार्य ने युगनिर्माण का जो अभियान चलाया, वे भी तो विश्वकर्मा ही थे। आज सारी दुनिया में उनके करोड़ों शिष्य हैं। सरदार जेल सिंह, राष्ट्रपति बने क्या आप नहीं जानते हैं कि वे विश्वकर्मा ही थे। आदि शंकराचार्य भी विश्वकर्मा ही थे।
भैया क्यों पड़े हो चक्कर में
कोई नहीं है टक्कर में।
इसीलिए संकल्प करें कि हम अपने समाज के सर्वांगीण विकास के अभियान के अग्रदूत बने।
-- डॉ. लक्ष्मी निधि, जमशेदपुर