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दस्तकारों का विराट रूप निखरना जरूरी

आज जो संसार में मानव समाज हैं, उसका पूर्वज बंदर था। वह बंदर जो सबसे पहले पेड़ से नीचे उतरकर जमीन पर अपने दो पैरों पर चला और अपने दो पैरों को हाथ की तरह उपयोग किया, वहीं से मानव सम्यता की शुरूआत हुई। पहले बंदर चौपाया जानवर था, उसके चारों पैर उसके शरीर का बोझ ढोने में लगा रहता था मगर जब वह पेड़ से नीचे उतरा तो उसने अपने जीवन का विस्तार प्रारंभ किया।
जिस दिन उस बंदर ने देखा कि वह दो पैरों से ही जमीन पर चल सकता है, तो उसने अपने दो पैरों को हाथ की तरह उपयोग करना प्रारम्भ किया और इस तरह चौपाया बंदर से वनमानुष का जन्म हुआ। जब बंदर को दो हाथ मिले तो वह हाथों में अपनी बुद्धि उतारने लगा। और वह पाषाण युग कहलाया। पत्थर को पत्थर पर रगड़ रगड़ कर उसने हथियार बनाये, और इस तरह दस्तकारी कला का जन्म हुआ। "दस्त" कहते हैं हाथ को और "कारी" कहते है कला को। दस्तकारी याने हाथ की कला।
और इसी तरह दस्तकारी के साथ बुद्धि विवेक का विकास होता गया। आवश्यकता आविष्कार की जननी होती है। जब तक बंदर पेड़ों और पहाड़ों पर रहता था उसके जीवन की जरूरतें सीमित थी, मगर पृथ्वी का विस्तार बहुत है, जमीन पर उतरते ही समस्याओं से उसे साक्षात्कार होने लगा, उसे अपने तथा अपने बच्चों को जंगली जानवरों से बचाना था, क्योंकि अब वह बंदर नहीं था। शेर की दहाड़ सुनते ही पेड़ों पर कूदने की कला भी भूलने लगा था। और जमीन पर चलने की कला सीखने लगा था। अब उसे जमीन पर ही रहना है तो जमीन से जुड़ी समस्याओं के समाधान की खोजबीन करने लगा और इसी खोजबीन से जन्म हुआ विज्ञान का। इसलिए कला और विज्ञान का जन्मदाता हुआ वही दस्तकार जो आज भारतवर्ष में विश्वकर्मा समाज के नाम से जाने जाते हैं, सबसे पहले विश्व में जो पुरुष उतरा, वह और कोई नहीं, विश्वकर्मा था।
इसी समाज के लोगों ने पृथ्वी के गर्भ में पड़े अनेकों धातुओं की पहचान की, तथा उन धातुओं को मनुष्य के लिए उपयोगी बनाया-लोहा, सोना, तांबा, ये मूल धातुयें हैं, जिनमें अपनी कला विज्ञान के चमत्कार दिखाने वाले लौहकर, स्वर्णकार, ताम्रकार कहलाये, लकड़ी में अपनी कला उतारने वाला काष्ठकार कहलाया, पत्थर में अपनी कला उतारने वाला शिल्पी कहलाया।
पहले तो यह संसार पानी - पत्थर, जंगलों से भरा था, मगर उसमें कला और विज्ञान से रौनक लाने वाला विश्वकर्मा कहलाये, क्योंकि इन्ही लोगों की सूझबूझ से मानव जीवन में निखार आता गया और मानव सभ्यता का विकास होता गया। अब हम पाषाण युग से इस कम्प्यूटर युग मे प्रवेश कर गये है। यह लम्बी दौ़ड़ लगाने वाला और कोई नहीं, विश्वकर्मा की संतान ही रहे है।
खोज करो तो विश्वकर्मा की और संतान का पता चलेगा जो नाना प्रकार के दस्तकारों के रूप में भारत के कोने कोने में फैले हैं। भगवान विश्वकर्मा श्रम के देवता तो हैं ही, आविष्कार के भी अधिष्ठाता है। मगर आज जो स्थिति है, वह यह है कि इस समाज के नेता लोग अपनी पूरी शक्ति लगाकर यह खोजते है कि विश्वकर्मा ब्राह्मण था। विश्वकर्मा को ब्राह्मण भी प्रमाणित किया जा सकता है और क्षत्रिय भी। राजस्थान के गाडिया लोहार अपने आप को राणा प्रताप के वंशज मानते हैं। राणा प्रताप ने संकल्प किया था, जब तक हम यवन से अपनी मातृभूमि को आजाद नहीं करा लेते, तब तक, हम न पलंग पर सोयेगें, न थाली में भोजन करेगें, और न एक जगह रहेंगे। राणा प्रताप के वे वंशज, आज भी खानाबदोश का जीवन जी रहे हैं, जो गाड़िया लोहार हैं। आप विभिन्न राज्यों की जातियों की सूचियों को देखें, आपको विश्वकर्मा को कहीं पिछड़ी जाति तो कहीं अनुसूचित जनजाति में दिखाया गया है।
बिहार में लोहार जाति के लोग ने सुप्रीम कोर्ट में अपनी जाति को अनुसुचित जनजाति की सूची में दर्ज कराने के लिए लड़ रहे है, ताकि उन्हे अनुसूचित जनजाति को मिलने वाले लाभ हासिल हो सके। कहने का तात्पर्य यह है कि नाम, गोत्र, प्रान्त, धर्म भले ही अलग-अलग हों मगर सभी विश्वकर्मा समाज के सदस्य है। राष्ट्रीय स्तर पर इसकी एक पहचान बननी चाहिए। सारे भारत में विश्वकर्मा शक्ति को खड़ा करने की जरूरत है।
आज जरूरत है विश्वकर्मा समाज का अपना इतिहास लिखा जाये, आज आवश्यकता है कि इस समाज के रत्नों की खोज की जाये तथा उनकी जीवनी को प्रकाश में लाया जाये। आज जरूरत है विश्वकर्मा भगवान की वंशावली का अन्वेषण किया जाये। हमारे पूर्वजों में कितने पुरूषार्थी हुये, कितने चमत्कारी लोग हुये है ऐसी समाज की प्रतिभाओं को भी प्रकाश में लाने की जरूरत है।
पूर्वजों की तलाश में वर्तमान पीढ़ी को हर्गिज नहीं भुलाया जाना चाहिए। वर्तमान में अपने समाज की प्रतिभाओं की खोज भी जरूरी है। मगर हैरत की बात यह है कि इस समाज में अभी वैसी चेतना जागृत नहीं हो सकी जिसकी आज जरूरत है, इस समाज में साहित्यकारों, बुद्धिजीवियों तथा विभिन्न पेशों से जुड़े उच्चाधिकारियों तथा सम्पन्न लोगों का अभाव तो नहीं है, मगर अपनों को सम्मान देने का भाव नहीं है, विश्वकर्मा वंशी होने का गौरव नहीं है।
अतः विश्वकर्मा समाज के नेताओं इसलिए आज आवश्यकता है कि विश्वकर्मा समाज का विस्तार हो, और उस विस्तार में सभी को समेटा जायें। जिसके पास धन है, वे धन लगावें, जिसके पास समय है, वे समय लगाये, जिसके पास बुद्धि है, वे बुद्धि लगाये। सब को हाथ बँटाना है, सबों को एक मंच पर आना हैं तभी इस समाज का विराट रूप खड़ा हो जायेगा।

-- डॉ. लक्ष्मी निधि, जमशेदपुर