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पंचपुत्रों का एक संयुक्त मंच कैसे बने?

विश्वकर्मा के पंच पुत्रों की उपजातियों को मिलाकर विश्वकर्मा समाज बनता है, जो आज अधूरा है। पांचाल और जांगिड जातियों के संगठन भले ही अलग-अलग हों, मगर इन संगठनों के नेता आपस में मिलते है, एक दूसरे के सम्मेलनों में भाग लेते है। दोनों जातियों के सम्मेलनों में विश्वकर्मा समाज की चर्चायें होती हैं। विश्वकर्मा समाज की एकता और अखंडता की बातें होती हैं। मगर उसके लिए कोई योजना नहीं बनती। कोई कार्यकर्ता खड़ा नहीं होता।
केवल विचार करने से, संकल्प लेने से, प्रस्ताव पास करने से कोई काम नहीं होता है। कोई भी काम काम करने से पूरा होता है। क्योंकि कर्म ही फलता है। आम का पेड़ लगाना चाहिए, यदि हम मात्र इसकी इच्छा तक सीमित रह गये तो, आम का फल, आम का पेड़ लगाने के प्रस्ताव में नहीं फलेगा। यह फलेगा आम के पेड़ लगाने पर ही। आम तभी मिलेगा जब आम के पेड़ लगा हो।
तो यदि हम चाहते है कि "विश्वकर्मा समाज" की एकता खड़ी हो, तो जिन लोगों समुदायों, गुटों, तथा जातियों के बीच एकता की है, उन लोगों को खुले दिल-दिमाग से इसके लिए बैठकर बात करनी होगी, एक सामाजिक चेतना को विकसित करना होगा जो संयुक्त संगठन के प्रति अपनी सहमति और सहयोग प्रदान करे।
डाक्टर इलाज के पूर्व रोग का परीक्षण करता है, जितना हो पाता है, खुद करता है, जो खुद नहीं कर पाता, तो उसकी जांच और डाक्टरों से करवाता है। बीमारी का ठीक से डायग्नोसिस हो जाये तो दवा सटीक बैठती है और रोगी निरोग हो जाता है, नहीं तो पैसे व्यर्थ खर्च होते हैं। रोग ठीक नहीं हो पाता है।
तो सबसे पहले काम कहाँ से शुरू करे ? इस प्रश्न के उत्तर के लिए एक छोटी कथा एक स्त्री अपने बेटे को एक महात्मा के पास ले गई। बोली बाबा यह लड़का बहुत गुड़ खाता है। मना करने पर मानता नहीं। अब आप ही समझाये कि यह इतना गुड़ न खाये। डर लगता है कहीं कोई बीमारी न लग जाये। महात्मा बोले एक माह के बाद इस बच्चे को लेकर मेरे पास आओ। एक माह पूरा होने पर वह स्त्री अपने बेटे को लेकर महात्मा के पास गई। महात्मा ने उस बालक से कहा बेटे संयम में सुख है। गुड़ खाने में संयम बरत। बच्चे पर बाबा की बात का गहरा प्रभाव पड़ा। बाबा के सामने ही उस बालक ने प्रतिज्ञा की अब गुड़ नहीं खाऊँगा। संयम से काम लूंगा। उस स्त्री ने महात्मा से पूछा बाबा, आज जो बातें आप ने मेरे बेटे को समझाई है, वे बातें आप उस समय भी इसे कह सकते थे। महात्मा बाले- बेटी उस समय मैं स्वयं गुड़ खाता था। अब मैने गुड़ खाना छोड़ दिया है। तभी उसको समझाने का साहस जुटा पाया हूँ।
"चैरिटी बिगिंस एट होम" - दान पुण्य का काम अपने घर से ही प्रारम्भ करना चाहिए। हम दूसरो को चैरिटी की बात समझाने और खुद किसी को एक गिलास पानी तक नहीं दे तो हमारी अपील, हमारा व्यक्तित्व, हमारा नेतृत्व व्यर्थ चला जायेगा। चूंकि लौहकार तथा कास्तकार में निकटता तो विश्वकर्मा समाज की एकता की बात, इन दोनों जातियों के संयुक्त मंच बनाने से प्रारम्भ किया जाये। "जांगिड" और "पांचाल" उपाधियाँ है। ये खास क्षेत्रों तक सीमित है इसीलिए कार्यक्रम में लौहकार तथा कास्तकार को जोड़ें। विभिन्न राज्यों में उन जातियों के विभिन्न नाम है। नाम अलग-अलग हो सकते है, उपाधियाँ अलग-अलग हो सकते है, मगर जातियाँ तो वे ही है। इसीलिए, भाषा, प्रान्त, धर्म की सीमाओं के पार, उपाधियों और नामों से हट कर इन दोनों जातियों का संयुक्त मंच बने, उसके लिए दोनों जातियों के नेता एक साथ कहीं बैठक करें। पहले एक साथ बैठने की व्यवस्था करें और फिर एक साथ कदम से कदम मिलाकर चलने का अभियान चलाये।
अब बतलाये कौन है, जो इस काम को करने के लिए आतुर है। जो आतुर होगा, आगे वही आवेगा। भाषण देने वाले इस बात को अपने ध्यान में रखें कि उनके भाषण में यह आकुलता, यह आतुरता है कि नहीं, की विश्वकर्मा के पंचपुत्र आकर मिले।
हम पाँच है। एक बनेंगे तो अनेकों को पराजित कर देगें। अनेक बनेगे तो एक को भी हरा नहीं सकेगें। पहले इन दोनों जातियों में मेल-मिलाप हो। आपस में रोटी बेटी का रिश्ता होने लगा है। अब इसको कोई नहीं रोक सकता। हवा का रूख कोई नहीं मोड़ सकता। हवा का रूख यह खबर दे रहा है विश्वकर्मा के पाँचों संतान जो अलग अलग है, अपने परिवार को टूटने से बचाओ, आपस में अपनी एकता बनाये। जो लोग उस काम में आगे आते है, उनको सहयोग देकर उनका हौसला बढायें। लेख वही सार्थक है जिसको लोग पढ़े और उस पर विचार करे कार्यक्रम खड़ा करे वर्ना हमारा लिखना व्यर्थ आपका पढ़ना व्यर्थ ।

-- डॉ. लक्ष्मी निधि, जमशेदपुर