रिवाज - समूह लग्न
दिशा देने वाला ही दशा बदल सकता है। व्यक्ति- समूह की दशा बदलते-बदलते समाज और देश भी बदल सकता है। मानव एक सामाजिक प्राणी है। वह अकेला नहीं रह सकता । शादी में भी दिशा की जरूरत है। अत: शादी एक पावन रस्म है। सृष्टि क्रम को उत्तरोत्तर उन्नति और विकसित बनाने की कड़ी में एक ऋषि परम्परा है।
कहते है अच्छे कार्य, जो बुरे हेतु से किये जाते हैं, वे बुरे हैं। कुआँ, बावड़ी या धर्मशाला बनवाना अच्छा कार्य है, परंतु यदि आगामी चुनाव में खड़ा होने के लिए बनाए जाते है तो वे बुरे हैं।
लव मैरिज और कोर्ट मैरिज के आगे आज समूह लग्न (ग्रुप मैरिज) का जुनून चल पड़ा है। हर वर्ग में यह बढ़ता जा रहा है। शायद भौतिकता की दौड़ में समृद्ध वर्ग अपनी धाक और नाम के लिए मिलकर कुछ वित्त से कमज़ोर परिवारों, जोड़ों के लिए वित्त खर्च कर पुण्य लाभ का संतोष करते हैं। क्या ऐसे जोड़े आगे सामाजिक जीवन में समरस हो जाते है या हीन भाव समझ कर जीवन भर घुटते हैं। क्या शान - शौकत और तथा कथित खर्च को छोड़कर शादी नहीं हो सकती? क्या समूह लग्न से वर-वधू के गुण, संस्कार, स्वास्थ्य, शिक्षा, उम्र आदि पर प्रभाव पड़ता है, वह तो नैसर्गिक है चाहे वित्तवान हो या नहीं। यदि समूह लग्न से स्त्री- पूरूष के जीवन में बदलाव नहीं आता तो फिर समूह लग्न किसके लिए? किस कारण ? किस हेतु से?
चार-पांच दशक पीछे की ओर दृष्टि डालें तो सहज आकलन होता है कि बहुसंतान के समय भी एक कुटुम्ब के लोग मिलकर बहन-बेटियों की शादी एक साथ करते ही थे क्या वह समूह में नहीं होता था? इसके लिए न तो बाह्य मदद लेने थे न ही देते थे। बल्कि सामाजिक रिवाजों से ही वस्त्र, वित्त (रिवाज), भोजन, कार्य आदि की ऐसा व्यवस्था थी कि किसी का कार्य बिना रुकावट के होता था। यही नहीं उस कुटुम्ब / परिवार में एकमता, आत्मीयता, समभाव, सद्भाव, सहयोग भाव, सदाशयता और प्रेम- भाव, आदर भाव बढ़ता ही जाता था, दृढ़ बनता था। पर सम्मान के साथ आत्म सम्मान, स्वाभिमान भी बना रहता था।
आज रोजगार, महत्वाकांक्षा, भौतिक होड़ से संयुक्त परिवार और कुटुम्ब व्यवस्था विखण्डित बन रही है। समाज के पूर्व रीति रिवाजों में शिथिलता से ही यह स्थिति बन रही है। हालांकि हम चाहें तो ऐसे रीति-रिवाज पुनर्जीवित करके पूर्व के समान समूह लग्न कर सकते हैं। लेकिन आज के समूह लग्न के क्रेज से हीनता-विवशता- दीनता, बेचारापन और टूटन बढ़ रही है।
हम आज समूह लग्न पर ही विचार कर रहे हैं। जन्म के समय, लालन-पालन, शिक्षा, स्वास्थ्य और संस्कार के लिए या रोजगार-धंधा के लिए सामूहिक प्रयास क्यों नहीं करते ? क्या लग्न के अलावा परिस्थितियों में भी घुटन, विवशता, कर्ज नहीं होता?
हम सब समूह लग्न के पक्षधर है या नहीं। पक्ष में या नहीं तो क्यों? अथवा और कोई मध्य मार्ग है?
विचारणीय बिन्दु - 1. समूह लग्न का आधार क्या हो?
2 मानदन्ड क्या हो?
3. शहर-नगरों और गाँवों में समूह लग्न की व्यवस्था?
4. पास-दूरी, आने-जाने, पुरानी परंपराओं के निर्वहन कैसे करें?
5. पुरानी परंपराओं को नये में कैसे ढालें?
6. निशक्त, अनाथ, अबला, विकलांग को छोड़कर अन्य मामलों में वर-वधु के लिए क्या-क्या समानताएं हो?
7. क्या समूह लग्न समृद्ध /असमृद्ध / सामान्य सभी के लिए है या वर्ग/ समूह/ जोड़े विशेष के लिए ?
8. समूह लग्न से समाज-परिवार बिखर रहे है या जुड़ रहे है?
9. मानव जन्म से ही (वर/वधु) समान आकार, इच्छाओं, आचार-विचार, भावनाओं के होते हैं। इस प्रकार के लग्न से उनकी भारी संतान, जिन्दगी पर क्या प्रतिक्रिया हो रही है? एक विपन्न माँ और एक समृद्ध माँ दोनों को बच्चे को दूध पिलाने का आनन्द एक सा ही आता है। वैसे ही गृहस्थी भी एक सी ही होती है। आदि-आदि।
उपर्युक्त बिन्दुओं के अलावा कितने ही और बिन्दु आपके दिमाग में होंगे, आ रहे होंगे, आ सकते हैं। मैं विनम्रता पूर्वक यह विचार समाज के प्रबुद्ध वर्ग, विचारशील, समाज के अग्रणीय और रचनाधर्मी के लिए गहन चिंतन-मनन और सकारात्मक-संगठनात्मक दृष्टि से खुला छोड़ता हूँ। आशा है आप उचित दिशा देकर दशा को सही रूप देंगे।
-- हेमाराम वी. सुथार, रेवदर