रक्षण - क्यों?
पोषण और शोषण दो विपरीत क्रिया हैं। पोषण (रक्षण) में प्यार, आत्मीयता, इंसानीयत है जबकि शोषण (भक्षण, भोग) में स्वार्थ, लोभ और हैवानियत है। हर वस्तु या व्यक्ति पोषित होकर ही प्रफुल्लित और विकसित होती है। शोषण से वस्तु या व्यक्ति का पतन और विनाश निश्चित है। पोषण से पुष्टि - तुष्टि और शोषण से दुर्बलता - क्षीणता बढ़ती है।
प्रकृति से जीव मात्र को विविधम रूप में पोषण मिलता रहता है। फलस्वरूप उसकी वृद्धि, समृद्धि, पौष्टिकता बढ़ती रहती है। धीरे-धीरे और सतत पोषण (रक्षण) से जीव उन्नत हुआ। जो पोषण से पिछड़ गया, शोषण का शिकार हुआ वह घटते-गिरते नष्ट हो गया।
ईश्वरीय शक्ति जीव का शुरू से ही पोषण करती है। यथा गर्भ में संभाल, जन्म के बाद पालन-पोषण, खान-पान, सुरक्षा और सतत् साथ रहकर बिना किसी अपेक्षा या थैंक्यू के जीव का रक्षण होता रहा है। इसका (प्रमाण) करमां जाटणी, धन्ना भगत, रैदास, बालक ध्रुव, भक्त लिखमाजी माली, मलूकदास, दादू, पीयाजी, नरसी मेहता, कबीर, तुलसी, सूरदास आदि अनेक की जीवनी से पता चलता है। इसके अलावा भी कई क्रांतिकारी, साहित्यकार, देश भक्त, शूर, ऋषि आदि का प्रभु ने सतत् पोषण किया। शोषण के बावजूद रक्षण किया। तभी तो उनका श्वासोच्छवास, भोजन पचना, नींद आना, ऊर्जा बनना, दिमाग चलना, याद रहना, शरीर विकास आदि क्रियाएं यथावत चलती रहीं। जीवन पर्यन्त निःस्वार्थ सब होता रहा ।
कहा है- 'जीवो जीवस्य जीवनम्' एक जीव दूसरे जीव के जीवन के लिए है। माँ का बच्चे को स्तनपान कराना यही सिद्ध करता है। शिशु माँ का स्तनपान करते हुए भी माँ का शोषण नहीं करता बल्कि पोषण करता है। जैसे बच्चे को दूध धावन में पोषण (रक्षण) मिलता है, माँ को भी अदृश्य आनन्द मिलता है। यह परस्पर सहयोग है। लेकिन गाय के बछड़े का हक छीन कर दूध का दोहन तो मात्र शोषण है। इंजेक्शन से दूध दुहना (निकालना) तो पाश्विकता को भी शर्मसार करता है। सत्य कहा है-
सहज मिला सो दूध बराबर, मांग लिया सो पानी ।
खींच लिया सो खून बराबर कहता गोरख बानी ।।
आज भी परिवार, कुटुम्ब, मायके, दूर-दराज के इष्ट मित्र, पास- -पड़ोसी, आबाल-वृद्ध के पोषण का काम करते हैं। दूसरी ओर मालिक - नौकर, सशक्त कमजोर, धनवान-गुभास्ता, शासक-शासित, पाठक- पाठित का शोषक-शोषित का क्रम चल रहा है। एकलव्य का अंगूठा काट कर लेना इसकी मिसाल है। कंपनी मिशन भी अछूते नहीं ।
बहरहाल प्रभु का प्यार और पोषण समान है। रक्षक का रूप धारण कर गुरु, पंडित-पुजारी, मौलवी फकीर, संन्यासी - वैरागी, भोपाजी आदि शोषण का अस्त्र लेकर ऐश-आराम और मौज-शौक करते दिखते हैं । यत्र-तत्र सर्वत्र शोषण का ही बोलबाला है। क्या विचारणीय नहीं है?
शोषण भ्रष्टाचार है, बलात्कार है। पोषण-रक्षण ही सदाचार, शिष्टाचार है। कहीं भी किसी को किसी का शोषण करने का कोई वैधानिक संवैधानिक अधिकार नहीं है। शोषण जीवन-हरण है, सुख-शांति छीनना है। पोषण जीवन रक्षण और संवर्धन है। पोषण सात्विक कर्म है शोषण तामसिक । बिना पुरुषार्थ अपने मौज-शोक, वैभव ऐश्वर्य के लिए दूसरे का शोषण करना, उसका उपयोग करना मात्र शोषण, शोषण और शोषण है। शोषण 'पापाय परपीडनम् ' है ।
आज फाइनेंस से धन कमाना, पद, पैसे, पॉवर, प्रतिष्ठा के बल पर दूसरे का उपयोग करना, देह शोषण, जंगल काटना, मिलावट करना, धरती का दोहन, मार्बल और ग्रेनाइट खनन सब अमानवीय, अविधिक कृत्य हैं। उत्कोच, घूस, आतंक फैलाना सब शोषण के ही संबंधी हैं। फिर चाहे दहेज और डोनेशन ही क्यों न हो। इन सबसे बचकर रचनात्मक और पुरुषार्थ के कार्य पोषण ( रक्षण) के पर्याय हैं।
प्रभु हमें सकारात्मक सोच और समझ दें। हम सुन्दर सृष्टि की श्री वृद्धि - शोभावृद्धि में सहयोगी बने, शोषण से बिगाड़े नहीं । आशा है हम कम से कम अपने, समाज स्तर से शुभारंभ करके, (या पोषण करते हैं तो दृढ़ता लाकर) शोषण का प्रतिकार करें, पोषण को संबल दें।
-- हेमाराम वी. सुथार, रेवदर