जागो! जागो!! जागो !!!
विश्व रचयिता के विधान और आचार संहिता अनुसार नैसर्गिक क्रिया-कलापों के समन्वय को सृष्टि धर्म माना होगा। उससे विपरीत सब अधर्म, अनीति, अत्याचार, दुराचार, भ्रष्टाचार और बलात्कार ही माना है। वन सम्पदा की शोषण दृष्टि से कटाई-छंटाई, बहुमूल्य पदार्थों, पत्थर तेल आदि के लिए खनन और दोहन, प्रकृति विरोधी क्रियाएं हैं धरती पर उत्पन्न - उत्पादित, अन्न, फल- - फूल, पत्ते, छाल, पशुओं से दूध, ऊन, पंख प्राप्त करना, पालतु पशुओं का वाहन कृषि में प्रयोग सहयोग, सहज - सकारात्मक उद्योग-व्यवसाय विहित विधान के अन्तर्गत ही माना है। यही नहीं पशु-पक्षी, जीव और मनुष्य की उत्पत्ति प्रजनन भी यथा समय प्रामाणिकता से निश्चित है। इन जीव, वस्तु, विषय और व्यक्ति (स्त्री-पुरुष ) सबका समन्वय संयोग और संयम सुन्दर दृष्टि के सुसंचालन के लिए ही सर्जन है। यदि इन सबका कार्य-व्यवहार, आचार-विचार, योग - त्याग विहित मूल्यों के अनुसार चले तो नन्दनवन सा सुन्दर सुभग संसार चलता रहता है। पुराणों में ऐसा उल्लेख मिलता है कि प्रथम सुसंस्कृत मानव 'मनु' ने कुछ इसी प्रकार की सृष्टि विकसित की थी। कालान्तर में जीव, जगदीश, जगत से समन्वयार्थ कुछ नियम बनाये, जिसे 'मनुस्मृति' नाम से अंगीकार किया गया।
दो क्रौंच पक्षियों के नैसर्गिक क्रीड़ा में मानव ने बाधा बनकर एक को निशाना बनाकर मार दिया। वियोगी दूसरा पक्षी करुण क्रन्दन करने लगा। आर्ष कवि वाल्मीकि ने इसी घटना से मानव के लिए 'रामायण' रचकर जीवनार्थ मार्ग दर्शन किया। हमारे देश की ऋषि परम्परा भी सहज - सुन्दर - समाधानी सृष्टि के सफल संचालनार्थ ही रही हैं। संतुलन और सुव्यवस्था के लिए ही अवतार - अवतरण हुए। रामचरित मानस में भी पशु-पक्षी, वन-पर्वत, प्रकृति, पुरुष, नारी उत्पीड़न, मानव मूल्यों, धर्म और नीति, शासक-शासित, सम्प्रदाय और हरीश - हरीशपों के समन्वय को प्रस्तुत किया है। दूसरी ओर रावण, बाली आदि के विपरीत आचरण को अधर्म और अनीति सिद्धकर अस्वीकार किया है।
जो क्रिया, आचरण या व्यवहार मन व शरीर से अस्वीकार करने पर, नियम-कानून आचर के विरुद्ध होता है, घटित होता है, जबरन होता है, क्या वह बलात्कार नहीं है? किसी का श्रम शोषण, तन शोषण, बुद्धि शोषण सदाचरण है क्या? बलात्कार नहीं है क्या अतिक्रमण, बिना मेहनत किसी के हक का तन, मन, धन, विद्या, वस्तु, व्यक्ति को हड़पना ? भय- आतंक से, भुजबल, पैसे- पहुँच की ताकत से, पद-पॉवर के जोश से, वहशीपन- कुत्सित व्यवहार से, संस्कृति, धर्म, नीति, सदाचार के विपरीत, शास्त्र विरुद्ध जो भी किया जाता है, करवाया जाता है, करने को मजबूर किया जाता है, हठात् बलात् होता है, ये सब बलात्कार में नहीं आता है क्या ?
आज अति भोगवाद और अकर्मण्यता ने, महत्वाकांक्षा और ऐय्याशी ने, रहन-सहन, साज-सज्जा, वेश-भूषा और सैर-सपाटा, चलचित्र और बार संस्कृति ने, मोबाइल, लेपटॉप, कम्प्यूटर ने सहज, सुखद, संयमित सृष्टि को बाधित कर विकर्म - अकर्म की ओर धकेल दिया है। मानव मर्यादा, कृतज्ञता, संयम, व्रत बंधन को छोड़ पशु से भी भोंडा, मनमाना घृणित आचरण कर रहा है। शिक्षा और संस्कार विलुप्त हो रहे हैं। पढ़ाई का अर्थ केवल धन कमाना, डिग्री लेकर नौकरी करना ही नहीं है। जीव से शिव, नर से नारायण बनने की संकल्पना का सिद्धांत और ध्येय जैसे बहुत - बहुत पीछे छूट गया है। मीडिया, सह-शिक्षा, उच्च शिक्षा और उदरपोषण के लिये भटकन आग में घी का काम कर रहे हैं। इंसान कामी, भोगी, प्रमादी- आलसी और निःस्वार्थी बन असुर बनता जा रहा है। जिसको सुसंस्कारी और व्यावहारिक मनुष्य बनाने, शिक्षित-दीक्षित करने, जीवनोपयोगी मूल्य पहुँचाने में आजके शिक्षा शास्त्री, धर्माधिकारी, मठाधीश त्यागी - वैरागी और सन्यासी (ऋषि तो रहे नहीं) किंकर्तव्य विमूढ़ से लगते हैं।
आज भले शिक्षा का स्तर, साधन-सुविधा, प्रयोगशाला और व्यवसाय से देश प्रगति कर रहा हो, नई पीढ़ी भी खूब रुचि लेकर कैरिअर बनाने की सोच रही हो। रक्षक ही भक्षक बन जाये तब क्या करें? तब याद आता है- 'देख तेरे संसार की हालत क्या हो गई भगवान, कितना.. '
बदलते वातावरण और प्रसरती विकृतियों ने यह सोचने को बाध्य कर दिया है कि आखिर अतिभोगवाद का कारण क्या है ? प्रत्यक्ष दृष्टया क्या ये कारण माने जा सकते हैं? हर प्रकार से होड़ा-होड़ और फिजूल खर्ची बढ़ना, निरी भोगासक्ति ही ध्येय बन गया है। दैनिक जीवन में असंयम, कुसंगति, परस्पर व्यवहार के यांत्रिक साधन बढ़ना, स्वच्छन्दता और पॉकेट खर्च की छूट, फ्रैण्डशिप, उच्च शिक्षा का वातावरण, फिल्म - बार, पार्टी में देर-सबेर, दूर-दराज अकेले आना-जाना, पाश्चात्य अंधानुरण, अखाद्य अपेय, उत्तेजक - मादक वस्तुओं का सेवन, इंटरनेट पर चेटिंग, विज्ञापन, फोटो, बॉयोडाटा, निरे अनजान से घनिष्टता बढ़ाना, गंदे साहित्य का पठन-पाठन, जीवनोपयोगी मूल्यपरक संस्कार - शिक्षा की अवहेलना, रूप, रंग, फैशन, प्रलोभन, झूठे झांसे के चक्कर में आना, माता-पिता- पालक की उपेक्षा या तटस्थता, बाल-विवाह, बैमेल विवाह, वयस्क जीवन में सही मार्गदर्शन की कमी, दहेज-विक्षिप्त जीवनचर्या, तलाक, नौकरी का झांसा, नौकर, आया, ड्राईवर पर अति विश्वास आदि-आदि और भी कई कारण ।
अधिकांश अत्याचार, दूराचार, बलात्कार के शिकार कमजोर गरीब वर्ग, अवयस्क- वयस्क, हाई-फाई, बेरोजगार, अधेड़ और छोटे बालक-बालिकाएं। लोभ-लाभ, प्रलोभन से विवाहित भी चक्कर में आ जाते हैं। अतिविश्वास, अकेलेपन की युवतियाँ देर- अवेर, दूरस्थ, रिमोट स्थान पर ट्रैप में फंस जाती हैं। तथाकथित प्रेम के चक्कर में खता खा जाते हैं। कमसीन, चटक मटक पहनावे के फैशन वाली फोटोग्राफी आदि के अंधे भी जाल में आ जाते हैं। (इस दृष्टि से स्वीट्ज़रलैंड में किशोरियों और महिलाओं के ओछे पहनावे पर अभी- अभी ही प्रतिबंध लगा दिया है।)
वैसे यह ट्रेजडी या वारदात नई नहीं है फिर भी वर्तमान में इस घटना की अति हो रही है। इससे बचने का उपाय तो सत्संग, सुसंस्कार और पालक, शिक्षक और समाज पर निर्भर करता है। व्यस्ततम जीवन और होड़ा होड़ की दुनिया में पालक या शिक्षक ही नहीं सरकार ( जन प्रतिनिधि) कोर्ट, कार्यपालिका, पुलिस और स्वयं पीड़िता भी निपटने को तत्पर रहें। कानून और आरक्षीदल तो नियमों में रहकर कार्यवाही करते ही हैं परन्तु जनता स्वयं भी उनको सहयोग करने के लिए सजग और तत्पर रहे। प्रथम तो इन अपराधियों की पीड़िता और सामान्य लोग मिलकर ही ऐसी धुनाई करें कि दोबारा ऐसा विचार आते ही उसका रोम-रोम कांप उठे। फिर पुलिस को सौंप दें।
इसके अलावा कुछ सुझाव निम्न प्रकार से भी चाहे तो अपना सकते हैं। स्वस्थ और हष्ट-पुष्ट, उचित शरीर विकास की संतान का 21 से 25 वर्ष में विवाह कर लिया जावे। आजकल ये वारदात गैंग में होती हैं। अतः हादसे के शिकार होने वाले भी ग्रुप में, अपने बड़ों, पालकों के साथ या सबल समूह में ही निकलें। मंदबुद्धि, शिशु और बालक-बालिकाओं को अकेले न छोड़ें। कराटे, लाठी चलाना सीखना अनिवार्य हो । सुरक्षाप्रद हाथ, पैर के गहने और सुरक्षित अधोवस्त्र धारण करें। वाहन या टैक्सी में ग्रुप में आवें जाये। महिला चालक और अधेड़ से ज्यादा उम्र के चालक वाले साधनों में यात्रा करें। वाहन पर या अकेले घर से बाहर किसी भी सूरत में न जाएं। वयस्क बलात्कार से हताश - निराश न हों। आत्मबल - आत्मसुरक्षा से सुसज्ज रहें। नारी अबला नहीं, संकट में वह दुर्गा रूप बन जाती है। चिल्लायें, चीखें साथ ही सुरक्षा सज्ज रहकर सामना करें। कारण वश विलंब हो जाए तो भी घर से संपर्क में रहें, स्थान, कारण, साधन की सूचना दें। यात्रा में चालक, वाहन संख्या, साथ के लोगों से नाम, नंबर नोट रखें। अपने सहेली को जीजी, अन्य पुरुषों को भैया और मामा से संबोधित करें। विद्यालय या बाहर भैया, बहन, बेटी, माँ से संबोधित करें। परिवार, कुटुम्ब और समाज पीड़िता को ढाढस बंधायें । सांत्वना दें और साहस बंधायें समाज की धारा में उसे सम्मानित करें। उपयुक्त वस्त्र, इलाज और पनाह, मदद करें। उसका विकास बाधित न हो, शिक्षण अवरुद्ध न हो। पीड़िता का नाम, फोटो न छपे, न टी.वी. पर आए। अपराधियों का फोटो, नाम और उसकी बर्बरता को ही छापा जाए।
विद्यालयों में बालिकाओं को सुसंस्कार और शौर्यगुर सिखाए जाएं। NSS शिविर में ऐसी घटनाओं से बचने और निपटने के लिए साहित्य, वीर बालिका, लक्ष्मी बाई, सीता, दुर्गावती के चरित्र सुनाएं। पाठ्येतर संस्कार शिविरों में वयस्क जीवन की समस्याएं और सावधानियां सिखाई जाएं। विशेष सुरक्षा शिक्षण-प्रशिक्षण दिया जावे। मानसिक रूप से निर्भीक और शीलवान बनाएं। वयस्क, अविवाहित के पहनावे को शालीन बनाएं। टी.वी. पर धारावाहिक द्वारा सुसंस्कार, चीरश्र जीवशी को दर्शाया जावे। गीता, महाभारत से उत्कृष्ट शौर्यपूर्ण चरित्रों को दर्शाया जावे। सरकार कानूनों में संशोधन कर ऐसे मामलों में त्वरित कार्यवाही फास्ट ट्रेक में निर्णय लेकर दोषी को प्रताड़ित, दंडित करके भर्त्सना की जावे । अन्तत: 'मनुष्य की इज्जत, महिला के शील, राष्ट्र की अस्मिता और माँ के वात्सल्य का मोल नहीं हो सकता।' यत्र नार्यस्तु पूज्यंते रमन्ते तत्र देवता।
- हेमाराम वी. सुथार, रेवदर