आयुर्वेद विज्ञान के जनक अश्विनी कुमार
आयुर्वेद चिकित्सा पद्धति के जनक विश्वकर्मा जी के दोहित (दोहिते) अश्विनी कुमार थे। जिन विद्वान वैद्यों और भिषगाचार्यों ने इस पद्धति के मूल में झाँक कर देखा है, ये अश्विनी कुमारों से भली-भाँति परिचित हैं। आचार्य धन्वन्तरि, अश्विनी कुमारों से बहुत पीछे प्रसिद्धि में आये हैं। विद्वानों और संस्कृत साहित्य के मनीषियों से यह बात छिपी नहीं है कि भारत का उत्तर भाग विशेषतः मानसरोवर और कैलाश के आसपास का यही देवलोक कहलाता है। शत्पथ ब्राह्मण में स्पष्ट उल्लेख है। उत्तरोवैदेवलोका उत्तर कुरू का यह भाग ही देवलोक हैं। इसी क्षेत्र में अर्थवेद के कर्त्ता भगवान विश्वकर्मा की राजधानी थी, जिसका नाम था वन।
विश्वकर्मा जी की पुत्री सुरेणु-संज्ञा (योग सिद्धा) कहीं-कहीं इन्हें ब्रह्मवादिनी भी लिखा है। ये विवस्वान सूर्य को विवाही थी। पुराणकारों ने संज्ञा के साथ छाया को भी जोड़ दिया है और लिखा है विवस्वान सूर्य छाया को ओर आकर्षित थे। इसलिए संज्ञा असंतुष्ट होकर पिता के यहाँ वन राजधानी में आ गई। आगे चलकर घोड़ी बन गई इत्यादि। यह पुराणकार की उड़ान है। ऐसे कथानकों से ही पुराण प्रामाणिक ग्रन्थ नहीं माने जाते, परन्तु अति प्राचीन वंशावलियाँ पुराणों में ही पाई जाती है।
सच यह है कि विश्वकर्मा पुत्री संज्ञा अपने पिता के यहाँ राजधानी वन में आ गई। विवस्वान सूर्य नीले रंग के विश्रवा अश्व पर आरूढ़ होकर पत्नी को लिवाने आये, विश्वकर्माजी ने जामाता का यथोचित सम्मान किया और उन्हें कुछ समय राजधानी में रहने के लिये कहा। सूर्य वन में रहने लगे और अपने अश्व पर आरूढ़ होकर विचरण करने लगे पत्नी सुरेणु (संज्ञा) ने भी अश्व पर आरूढ़ होकर घुमने-फिरने की इच्छा प्रकट की। पत्नी की इच्छानुसार सूर्य ने उन्हें अश्व पर आरूढ़ करा विचरण कराना आरम्भ कर दिया। जब संज्ञा नित्यप्रति अश्व पर आरूढ़ होकर आने-जाने लगी तो जनसाधारण उन्हें अश्विनी कहने लगे। अश्विनी गर्भवती थी, कालान्तर में उन्होंने दो जुड़वाँ पुत्रों को जन्म दिया, जो अश्विनी कुमार कहलाये। होनहार विरवान के होत चिकने पात कहावत के अनुसार अश्विनी कुमार कुछ ही समय में तेजस्वी विद्वान बन गये, ये आयुर्वेद के निष्णात् पंडित थे। नाना विश्वकर्मा ने इन्हें एक लघु विमान भी दे दिया ताकि रोगी को तुरन्त ही संभाल सके।
उस काल का देवराज इन्द्र विश्वकर्मा जी से बहुत भयभीत था, वह स्वभाव से कुटिल भी था। सदा ही विश्वकर्मा पुत्रों से ईर्ष्या प्रकट करता रहता था। परन्तु जब युद्ध में इन्द्र की भुजा टूट गई तो अश्विनी कुमारों के पास ही आना पड़ा, अश्विनी कुमार शल्य किया में भी विद्वान थे, उन्होंने इन्द्र की भुजा नयी बना दी कुछ योद्धाओं की आँखें भी प्रत्यारोपित करके ठीक कर दी। लंगड़ो को टाँगें दी। कुटिल इन्द्र पर अश्विनी कुमारों के उपकार का कोई प्रभाव नहीं पड़ा और एक दिन उसने महापंडित, अध्यात्म विद्या के यशस्वी विश्वकर्मा पुत्र विश्वरूप की संध्योपासना में निमग्न स्थिति में हत्या कर दी। ऋषियों पर इन्द्र के इस कुकृत्य का भारी प्रभाव पड़ा। उन्होंने इकट्ठा होकर ब्रह्म हत्या का इन्द्र दोषी माना और तीन वर्ष तक जल में खड़े रहकर ब्रह्म हत्या के पाप का प्रायश्चित करने का दण्ड दिया साथ ही दूसरा इन्द्र नहुष को इन्द्र की गद्दी पर बैठा दिया। प्रसंगवश हमने इन्द्र की कुटिलता का यहाँ उल्लेख कर दिया, विषय था अश्विनी कुमारों की आयुर्वेदिक योग्यता का। आयुर्वेद में शल्य क्रिया (चीरफाड़) का सूत्रपात अश्विनी कुमारों ने ही किया था जो चरमगति को प्राप्त थी, परन्तु धीरे-धीरे इस शल्य क्रिया का ज्ञान पोंगा पंड़ितों के हाथ में आ जाने से ऊँच-नीच, छुआछुत के चक्कर में प्रायः लोप होता चला गया। अब बढ़ते हुए विज्ञान को जानकर चरक और सुश्रुत आदि ग्रन्थों की मान्यता के आधार पर आशा बंधी है। आयुर्वेद का भविष्य भी उज्ज्वल होगा। जिस विज्ञान आयुर्वेद के जनक अश्विनी कुमार थे, उसका आधुनिकीकरण होना ही चाहिये।
-- पं. हरिकेशदत्त शास्त्री (संपादक:- पंचपुत्र)