Jangid Brahmin Samaj.Com



हमें विश्वकर्मा वंशज कहना ही सार्थक है!

हमारे समाज के पढ़े और अनपढ़ सभी लोग शताब्दियों सहस्त्राब्दियों से कहते आये हैं, हम विश्वकर्मा वंश के हैं, इस सत्य को बताने के लिए प्रमाणों की आवश्यकता नहीं है। क्यों कहते आये हैं विश्वकर्मा वंशज? क्योंकि विश्वकर्मा ही कला और निर्माण का, शिल्प और विज्ञान का देवता है। यूरोपियन विद्वान भी विश्वकर्मा को (FATHER OF ARTS) फादर ऑफ आर्ट्स कहते और मानते हैं। इस सत्य से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि हम विश्वकर्मा वंशज मूलतः शिल्पी हैं। अर्थात् शिल्प विज्ञान हमारा जन्मजात कार्य रहा है। विज्ञान विश्व वि-उपसर्ग पूर्वक ज्ञान इस प्रकार बना है अर्थात विशेष ज्ञान। एक व्यक्ति मिसाइल बनाने का ज्ञान (थ्यौरी) जानता है, विश्वकर्मा वंशज होने के नाते हम वैज्ञानिक है, शिल्पी वैज्ञानिक होता है, अमर कोष में लिखा है - विज्ञानम् शिल्प शास्त्रयो अर्थात शिल्प शास्त्र का ज्ञाता ही वैज्ञानिक है।
हमारे यहां के कथन का अर्थ है हम जन्मजात शिल्पी हैं, जो लोग आदि काल से अपने को विश्वकर्मा वंशज कहते आये हैं, वे सभी हम के अन्तर्गत परिभाषित किये जा सकते है। किसी विद्वान पंडित ने ऐसे सभी लोगों को श्लोकवद्ध करके विश्वकर्मा वंशजों की संख्या तीस (30) प्रकार की जातियों - उपजातियों में प्रदर्शित की है जो निम्न प्रकार हैं-
धीमान जांगिड टांकोपाध्याय लाहौरी माथुरः
सूत्रधार ककुहासश्च रामगढिया मैथिलः।
त्रिवेदी पिप्पला लोष्ठा मडूलयाश्च मालवीयश्च।
सरवरीय गौडाश्च देवः कमलोरा तथा
विश्व ब्राह्मण कंशाली विश्वकर्मा नवन्दन ।
तरंचश्च पांचालो आचार्यश्च - जगतगुरूः
एतानि शिल्पी विप्राणां नामानि त्रिंशतस्मृता।।
अर्थ - वेद स्मृति शास्त्रों में विश्वकर्मा वंशज तीस प्रकार के विप्न बताये है यथा 1. धीमान 2. जांगिड 3. टांक 4. उपाध्याय 5. लाहौरी 6. मथुरिया 7. सूत्रधार 8. ककुहास 9 रामगढ़िया 10. मैथिल 11. त्रिवेदी 12 पिप्पला 13. लोष्ठा 14. महूलिया 15. रावत 16. पंचाल 17. कान्यकुब्ज 18 मागध 19. मालवीय 20. सरवरिया 21. टाँकगौड 22 देवकमलाकर 23. विश्वब्राह्मण 24. कंशाली 25. विश्वकर्मा 26, नवन्दन 27. तरञ्च 28. पांचाल 29. आचार्य 30. जगद्गुरू। इस तीस प्रकार के कथन को हम इदामित्थम नहीं कह सकते। वेदादि सद्शास्त्रों में किसी भी प्रकार से जातियों उपजातियों के नाम नहीं हैं। अस्तु - जो भी कुछ ये लौकिक नाम तो है ही।
जिस प्रकार कैंची के दो पलक एक कील से जुड़े रहते हैं। ये नाम भी विश्वकर्मा रूपी कील से जुड़े माने जाते हैं। जब विश्वकर्मा हमारा केन्द्र बिन्दु है तो हमें विश्वकर्मा को भी जानना आवश्क है। हम दृढ़ता से कह सकते हैं, विश्वकर्मा यह नाम वेदों से लेकर पुराणों तक ओतप्रोत है। चारों वेद आरण्यक, उपवेद, ब्राह्मण ग्रन्थ, उपनिषद, रामायण, महाभारत, दर्शनशास्त्र, शुल्ब शूत्र, गृह्यसूत्र, आयुर्वेद, अट्ठारहों पुराण आदि संस्कृत साहित्य के विशाल सागर में विश्वकर्मा नाम का अनमोल मोती सर्वत्र मौजूद है। कहना चाहिये सम्पूर्ण वैदिक वाङ्गमय में विश्वकर्मा उल्लेखित है। यहां हम इस सत्य को भी उद्घाटित करना चाहेंगे, आदि विश्वकर्मा के पश्चात् विश्वकर्मा नाम उपाधि के रूप में प्रचलित रहा है। जिस प्रकार ब्रह्मा, व्यास, जनक, धनवन्तरी आदि अनेक नाम उपाधि के रूप में प्रचलित हैं वैसे ही विश्वकर्मा नाम भी उपाधि के रूप में प्रचलित रहा है। महाभारत कालीन मय मुनि रचित ग्रंथ मयमतम् अध्याय 5 श्लोक 15 से 23 तक में लिखा है, जो शिल्पी निर्माण कार्यों में विद्ध हस्त हो, सम्पूर्ण शास्त्रों का पूर्ण पंडित हो, जिसके शरीर का कोई भी अवयव न कम हो ना अधिक हो, दयालु और धर्मात्मा भी हो, अहंकार करने वाला प्रमादी और ईष्यालु न हो, गणित विद्या का पूर्ण पंडित हो, वेदों आदि श्रेष्ठ शास्त्रों का ज्ञाता और निष्णात् विद्वान हो, सत्यवादी और जितेन्द्रिय अर्थात ब्रह्मचारी हो, गुरू का भक्त भी हो, सदैव प्रसन्नचित्त रहने वाला हो, इस प्रकार के निर्माता को विश्वकर्मा कहते हैं।
हमने विश्वकर्मा को जानने के लिए अट्ठारह पुराणों में चौदह पुराणों को देखा है, महाभारत, रामायण आदि को पढ़ा है। महाभारत कालीन पाँच हजार वर्ष पर्वमय विश्वकर्मा ब्राह्मण ग्रन्थों को भौवन विश्वकर्मा, लाखों वर्ष के रामायण कालीन विश्वकर्मा तक अनेकों विश्वकर्माओं का उल्लेख मिलता है। ऋग्वेद मंडल 10 अनुवाक के सूक्त 81-82 में विश्वकर्मा सूक्त के चौदह मंत्रों का मंत्र द्रष्टा ऋषि भवन-पुत्र विश्वकर्मा के नाम से भौवन विश्वकर्मा ही है।
वंशावली की दृष्टि से हम विश्वकर्मा की खोज करते हैं तो महर्षि अंगिरा के पुत्र देवगुरू को बहन भुवना (योगासिद्धा) को विश्वकर्मा की माता के रूप में उल्लेखित पाते हैं। इसी की पुष्टि महाराज भोज ने अपने समरांगण सूत्रधार ग्रन्था में की है। वहां लिखा है -
तदेशः त्रिदशाचार्य सर्व सिद्धि प्रवर्तक, सुतः प्रभासस्य विभोः स्वीस्त्रीयश्च बृहस्पतिः अर्थात् महर्षि अंगिरा के पुत्र देवगुरू बृहस्पति की बहन भुवना देवाचार्य सम्पूर्ण रिद्धि सिद्धियों के जनक विश्वकर्मा की माता है और महर्षि प्रभास, विश्वकर्मा के पिता है। वंशावली के अनुसार विश्वकर्मा महर्षि अंगिरा के नाती अर्थात् दोहिते सिद्ध होते हैं। अथर्ववेद महर्षि अगिरा द्वारा सृष्टि के आदि में प्रगट हुआ है, चारों वेदों के चार ही उपवेद है अथर्ववेद का उपवेद अर्थवेद हैं। चरणव्यूह खण्ड 4 में स्पष्ट उल्लेख है- अर्थवेदों विश्कमादि शिल्प शास्त्रम अथर्वेदस्योपवेदः अर्थात् अर्थवेद जो विश्वकर्मा के द्वारा प्रतिपादित है अथर्ववेद का उपवेद है। शिल्प शास्त्रों का समष्टि रूप ही अर्थवेद विश्वकर्मा के द्वारा प्रतिपादित है, अथर्ववेद का उपवेद है। शिल्प शास्त्रों का समष्टि रूप ही अर्थवेद कहलाता है।
अब महर्षि अंगिरा के वंश का देखते हैं। वायुपुराण में स्पष्ट उल्लेख है अष्टौचांगिरसः पुत्रा कीर्तिबाह्योमहायशाः अंतिम चरण है सुधन्वा चाष्टम स्मृतः अर्थात महान यशस्वी अंगिरा के आठ पुत्र थे, आठवें पुत्र सुधन्वा थे। पुराणों के अनुसार महर्षि अंगिरा की वंशावली में कुछेक भ्रान्तियां एवं विसंगतियां अवश्य है, परन्तु सभी पुराण एकमत से महर्षि अंगिरा के आठ पुत्रों में देवगुरू बृहस्पति और सुधन्वा का सर्वत्र उल्लेख करते है। सुधन्वा के लिए विश्वमेदिनी कोष में लिखा है। सुधन्वा विश्वकर्मणि अशात सुधन्वा विश्वकर्मीय (शिल्पी) है। इस प्रकार महर्षि अंगिरा के पुत्र के साथ विश्वकर्मा जुड़ा हुआ है। इतना ही नहीं सुधन्वा के तीन पुत्र ऋभु, वाज और विभ्वा थे, उनके लिए वायु पुराण अध्याय 4 श्लोक 102 में कहा गया है ऋभवश्च सुधन्वनः रथकाराः स्मृता देवा रथकाराः स्मृता देवा ऋषियों ये परिश्रुताः अर्थात् महर्षि अंगिरा के पौत्र सुधन्वा के तीनों पुत्र शिल्प विज्ञान के ज्ञाता थे, जो ऋर्षि नाम से विख्यात थे। अब पाठकों की समझ में आ गया होगा, महर्षि अंगिरा के पुत्र और पौत्री विश्वकर्मा से सम्पृक्त है। महर्षि अंगिरा विश्वकर्मा वंशजों के मूल पुरुष थे जो अमैथुनी सृष्टि से उत्पन्न ब्रह्मा जी के मानसपुत्र सप्तर्षयों में जगद्विख्यात है। ये कैलाश मानसरोवर के आस-पास शतपथ ब्राह्मण के अनुसार उत्तर देवलोक में उत्पन्न हुये थे। ये सभी शास्त्रीय आधार है हमें विश्वकर्मा वंशज कहने के, फिर सभी विश्वकर्मा बन्धुओं के साथ जांगिड ब्राह्मण समाज को विश्वकर्मा वंशज कहना सार्थक क्यों नहीं होगा?

-- पं. हरिकेशदत्त शास्त्री (संपादक:- पंचपुत्र)