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जीवन का देवासुर संग्राम

महान् कवि जयशंकर प्रसाद ने
अपनी कालजयी कृति 'कामायनी' में कहा है-
देवों की विजय दानवों की हारों
का होता युद्ध यहाँ।
संघर्ष सदा उर - अन्तस् में रहता यों नित्य विरुद्ध रहा ।।
हमारे आर्ष ग्रन्थों में पदे पदे देवासुर संग्राम का वर्णन किया गया है। वस्तुतः यह देवासुर संग्राम अनादिकाल से चल रहा है और अनन्तकाल तक चलता रहेगा। गीता में जिस धर्म क्षेत्र कुरुक्षेत्र का वर्णन है और जिस महाभारत में धर्म और अधर्म का पक्ष प्रतिपादन करने वाली कौरव पाण्डव सेना का वर्णन हुआ है वह भी केवल उस शस्त्र युद्ध तक सीमित नहीं है, वरन् हमारे अन्तःकरण में निरन्तर होते रहने वाले देवासुर संग्राम का चित्रण है। भगवान् राम की रीछ-वानर सेना और रावण, कुम्भकरण, मेघनाद जैसे राक्षस योद्धाओं का युद्ध भी एक प्रकार की हमारी भीतरी स्थिति का ही बाह्य चित्रण है। प्रत्येक अवतार पाप को नाश करने और पुण्य की स्थापना के लिए, देवताओं की रक्षा और असुरों का संहार के लिए अवतरित होता है स्वयं भगवान् ने कहा है-
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्।
धर्म संस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ।।
गीता अ. 4-8
अर्थात् साधुओं (भक्तों) की रक्षा करने के लिए, पाप कर्म करने वालों का विनाश करने के लिए और धर्म की भली-भांति स्थापना करने के लिए मैं युग-युग में प्रकट हुआ करता हूँ।
ऐसे अवतार समय-समय पर हममें से अनेकों के अन्तःकरण में अवतरित होते हुए देखे जाते हैं।
अन्तःकरण की प्रवृत्तियाँ: हमारे अन्तःकरण में दो प्रवृत्तियाँ रहती हैं, जिन्हें हम दैवी एवं आसुरी प्रवृत्ति कहते हैं। हमारा अन्तःकरण ही वह धर्म क्षेत्र कुरुक्षेत्र है, जिसमें नित्य निरन्तर महाभारत होता रहता है। अर्जुन को जिस युद्ध में लड़ाया गया वह वस्तुतः जीवन का आध्यात्मिक संग्राम है। जहाँ कौरवों के रूप में आसुरी प्रवृत्तियाँ बड़ी प्रबल हैं। कौरवों के रूप में उनकी भारी सेना है पाण्डव पांच ही हैं, उनके सहायक व सैनिक भी बहुत कम हैं। फिर भी भगवान् ने युद्ध की आवश्यकता समझी और अर्जुन से कहा कि युद्ध के अतिरिक्त और कोई मार्ग नहीं। उन्होंने कहा कि आसुरी तामसिक प्रवृत्तियों (शक्तियों) का दमन किए बिना सतोगुणी दैवी प्रवृत्तियों का अस्तित्व ही संकट में पड़ जाएगा। अतः युद्ध करना जरूरी है, फलस्वरूप अर्जुन को युद्ध के लिए कटिबद्ध होना पड़ा। अध्यात्म की भाषा में इसे 'साधन समर' की संज्ञा दी गई है।
हमारे अन्तस् में भी महाभारत होता रहता है। असुर मायावी होते हैं। तमोगुण का प्रभाव हमें माया में फंसाए रहता है। इन्द्रिय सुखों का लालच देकर वह अपना जाल फेंकता है और अपने माया पाश में जीवन को बांध लेता है। इस असुर के अनेक अस्त्र-शस्त्र हैं, जिनमें काम, क्रोध, लोभ, मोह, मत्सर जैसे सम्मोहन रूपी अस्त्रों से जीव बंध जाता है और उससे जो मूर्छा आती है, उससे जीव को निकलने की इच्छा ही नहीं होती। वरन् उसी स्थिति में पड़े रहना चाहता है।
पाप और पुण्य रूपी संस्कार: प्रत्येक मनुष्य के भीतर पाप और पुण्य रूपी दोनों प्रकार के प्रबल संस्कार उपस्थित हैं। दोनों की शक्ति प्रचण्ड है, दोनों ही उद्भट योद्धाओं के समान हैं। दोनों की परस्पर प्रतिकूल प्रवृत्ति होने के कारण परस्पर युद्ध करते हैं और एक- दूसरे को परास्त करने का प्रयास भी करते हैं। यही हमारा देवासुर संग्राम है। देवत्व मनुष्य को अपनी तरह ऊँचा उठाने के लिए खींचता है और असुरता की पाश्विक प्रवृत्तियाँ अपनी ओर आकृष्ट किए रहती है। इसी खींचतान में हवा के सहारे उड़ने वाले तिनकों की तरह साधारणतः मनुष्य कभी इधर, कभी उधर उड़ते हैं। एक व्यक्ति एक समय बुरे काम करता है तो दूसरे समय में अच्छे काम करता हुआ दिखाई देता है। ऐसे उदाहरणों से मनुष्य की मानसिक दुर्बलता और शुभ-अशुभ प्रवृत्तियों की प्रबलता का प्रमाण उपलब्ध होता है।
अन्तःकरण में रहने वाली शुभ और अशुभ प्रवृत्तियों में से जिसे भी अपने अनुकूल वातावरण मिल जाता है वहीं पनपने और बढ़ने लगती लगती है। किंतु जिनको पोषण नहीं मिलता वे सूखने लगती है व नष्ट भी हो जाती हैं। एक व्यक्ति जो आज बहुत बुरा दिखता है वह उत्तम परिस्थिति और विचारधारा के सान्निध्य में आने से कल बहुत ही उत्तम प्रवृति का बन सकता है और जिसे आज अच्छा समझा जाता है वही कल बुरा वातावरण मिलने पर बुरा बन सकता है। इसलिए मनीषियों एवं विचारकों ने कहा है कि इस संसार में बुरा कोई मनुष्य नहीं, केवल स्थितियाँ और भावनाएं ही बुरी हैं, जिन्हें बदला जा सकता है। मनुष्य का अन्तःकरण लोहे या पत्थर की तरह नहीं है, यह गीली मिट्टी और मोम की तरह है, जिसे पिघलाया जा सकता है, बदला जा सकता है।
अध्यात्म की भूमिका : व्यक्तिगत क्षेत्र हों चाहे सामाजिक क्षेत्र दोनों में एक ही सिद्धान्त काम करता है। यदि हमारी आसुरी प्रवृत्तियाँ प्रबल हो रही होंगी और देवत्व बिखरा और सुषुप्त स्थिति में पड़ा होगा तो फिर आसुरी वृत्ति और बुद्धि ही बलवती रहने से जीवन निम्न कोटि का पतन और पाप से भरा हुआ दिख पड़ेगा। इसके विपरीत यदि देवत्व सजग और सक्रिय रहेगा तो आसुरी शक्तियाँ परास्त हुए बिना नहीं रहेंगी। मनुष्यरूपी शरीर में न कुछ अच्छाई है न बुराई । उसकी भीतरी स्थिति ही बाह्य जीवन में फूटती रहती है। इस आन्तरिक स्थिति को सुधारने, संभालने और परिष्कृत करने का कार्य जिस प्रक्रिया द्वारा होना सम्भव है, उसे ही अध्यात्म के नाम से पुकारा जाता है। अध्यात्म विद्या का उद्देश्य मानवीय प्राणी की अन्त: चेतना को परिमार्जित कर श्रेष्ठता एवं उत्कृष्टता की ओर रूपान्तरित करना है। अध्यात्म का उद्देश्य मनुष्य को पाप और कुविचारों की असुरता से छुड़ाकर सत्य और धर्म के मार्ग पर पहुँचाना है।
वर्तमान स्थिति : वर्तमान परिप्रेक्ष्य में चिन्तन करने पर हमारे भीतर सर्वत्र असुरता का बोलबाला है। वैयक्तिक जीवन में हमारी अन्तः चेतना असुरता की पाश्विक प्रवृत्तियों से भरी हुई हैं। फलस्वरूप सामाजिक जीवन में भी अनाचार और पापाचार का वातावरण प्रबल है। इनके प्रभाव से स्वास्थ्य, अर्थव्यवस्था, समाज, राजनीति, पारस्परिक सम्बन्ध, नैतिकता और कर्त्तव्य पालन, उत्पादन और उद्योग प्रत्येक क्षेत्र में अशांति और संकट का वातावरण है। यह सर्वमान्य है कि असुरता की प्रबलता जहाँ कहीं भी होगी वहाँ आपत्तियाँ ही बढ़ेंगी। सुख-शांति तो देवत्व के साथ ही अविच्छिन्न रूप से जुड़ी हुई है। यदि हमें व्यक्तिगत जीवन सुखी और सामाजिक जीवन शांतिमय देखना हो तो उसका एक ही उपाय है आसुरी शक्तियों को परास्त कर देवत्व की अभिवृद्धि करना।
वर्तमान काल में देवासुर संग्राम व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन के दोनों मोर्चों पर प्रचण्ड गति से चल रहा है। इसी को हम 'विश्व संकट' कह सकते हैं। व्यक्तिगत जीवन की विचारणा एवं क्रियाशीलता के क्षेत्र के अतिरिक्त परिवार, समाज, राष्ट्र और समूचे विश्व में यह देवासुर संग्राम व्याप्त है। आज गरम युद्ध और शीत युद्ध के मोर्चे हर क्षेत्र में दिखाई दे रहे हैं। इस कारण सत्प्रवृत्तियों का समर्थन एवं सहयोग करना प्रत्यक्षतः देव पक्ष को विजयी बनाने का अभियान है।
आत्मा की पुकार 'तमसो मा ज्योतिर्गमय' (हम अंधकार से प्रकार की ओर चलें) तम अन्धकार और सत प्रकाश है, उसको धारण करने का प्रयत्न करना ही साधना है। अन्तरात्मा में निरन्तर चलने वाले देवासुर संग्राम में तामसिकता का पक्ष भौतिक सुख साधन एकत्रित करते रहने और सात्विकता का पक्ष आत्म कल्याण की दिशा में अग्रसर होने का है। इनमें यह शाश्वत् तथ्य सुनिश्चित रूप से भरा पड़ा है कि देवी और आसुरी प्रकृति के आकर्षण प्राणी को खींचते हैं। इनमें से देवत्व का पक्षधर बनने और ईश्वर की शरण में जाना ही श्रेयस्कर है।

-- डॉ. गुरुदत्त शर्मा, ब्यावर