साधना और आहार शुद्धि
'साधना' शब्द का प्रयोग प्रायः आध्यात्मिक परिप्रेक्ष्य में लिया जाता है, जिसमें ईश्वर प्राप्ति हेतु पूजा-पाठ, जप-तप, उपासना, ध्यान, सत्संग-स्वाधयय एवं योगाभ्यास आदि क्रियाएं सन्निहित होती हैं। इसे आत्म साधना भी कह सकते हैं। इसके माध्यम से प्रसुप्त शक्तियों को जगाने, उच्च स्तरीय दृष्टिकोण विकसित करने एवं मानवीय क्षमताओं को सुनियोजित किया जा सकता है। जहाँ भौतिक विज्ञान के माध्यम से पदार्थों को उपयोगी व परिष्कृत किया जाता है वहाँ आत्म विज्ञान की साधना द्वारा अन्तः चेतना की प्रखरता जागृत होती है। वस्तुतः साधना का प्रयोजन अपने अविवेक और अनाचार का निराकरण करते हुए दैवी गुणों की स्थापना है।
जीवन को 'साधना समर' माना गया है। महाभारत का ऐतिहासिक स्वरूप जैसा भी रहा हो, उसके प्रसंग हमारे जीवन क्रम में अनिवार्य रूप से जुड़े हुए हैं। दैवी और आसुरी शक्तियाँ हमारे जीवन में नित्यप्रति अन्तर्द्वन्द उपस्थित करती रहती है। साधन के माध्यम से इन अन्तर्द्वन्दों पर विजय प्राप्त की जा सकती है। साधना के प्रमुखतः दो प्रयोजन हैं:- 1. हमारे भीतर संचित कुसंस्कारों का उन्मूलन और 2. सत्प्रवृत्तियों की स्थापना ।
भगवान् के अवतार के भी यही दो प्रयोजन हैं-1. साधु पुरुषों की रक्षा, 2. दुष्प्रवृत्तियों का उन्मूलन ।
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्।
धर्म संस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ।। गीता 4-8
अर्थात् साधु पुरुषों का उद्धार करने के लिए, पापकर्म करने वालों का विनाश करने के लिए औश्र धर्म की अच्छी तरह से स्थापना करने के लिए (मैं) युग युग में प्रकट हुआ करता हूँ।
कुसंस्कारों से मुक्ति आत्मिक साधना में सर्वोपरि माना गया है। कुसंस्कारों की प्रबलता महाभारत के इस आख्यान से सिद्ध होती है, जिसमें दुर्योधन द्वारा यह कहा गया है कि-
"जानामि धर्म न च प्रवृत्ति, जानामि अधर्म न च निवृत्ति"
अर्थात् "मैं धर्म का स्वरूप जानता हूँ पर उसमें मेरी प्रवृत्ति नहीं होती, इसी प्रकार मैं अधर्म के दुष्परिणाम से भी विदित हूँ पर उनसे मेरा छुटकारा नहीं बन पड़ता। "
कुविचारों और दुःस्वभावों से पीछा छुड़ाने की साधना है- सद्विचारों एवं सत्पुरुषों के सम्पर्क में निरन्तर रहा जाए, उनका स्वाध्याय-सत्संग और चिन्तन-मनन किया जाए।
मानवीय सत्ता : अध्यात्म विज्ञान भारतीय संस्कृति की अमूल्य सम्पदा व विश्व को बहुमूल्य देन है। आध्यात्मिक दृष्टि से मानवीय सत्ता का विश्लेषण निम्न प्रकार किया जा सकता है-
स्थूल शरीर: अस्थि, मांस-मज्जा से विनिर्मित पंचतत्त्वों- (पृथ्वी, जल, अग्नि, आकाश, वायु) का पिण्ड । ज्ञानेन्द्रियों एवं कर्मेन्द्रियों द्वारा विभिन्न क्रियाएं इसी के माध्यम से सम्पन्न होती हैं।
सूक्ष्म शरीर: चिन्तन, मनन, आकांक्षा, अभिरूचि आदि मानसिक गतिविधियों का केन्द्र व माध्यम है। इसे संक्षेप में मस्तिष्क या ज्ञान संस्थान भी कहते हैं।
कारण शरीर: यह कारण शरीर जीवन की दिशाओं का निर्धारण करने वाला है, जिसे अन्तरात्मा और अन्तःकरण भी कहते हैं। दया, प्रेम, करुणा, कर्तव्यनिष्ठा, सेवाधर्म संवेदनात्मक उच्च भाव इसी में उत्पन्न होते हैं।
संक्षेप में इन्हें क्रिया शक्ति, ज्ञान शक्ति और इच्छा शक्ति का उद्गम केन्द्र कह सकते हैं।
साधना में आहार शुद्धि साधना और आहार का अकाट्य सम्बन्ध है। अतः आत्म कल्याण की कामना रखने वाले व्यक्ति को उसमें सदैव सावधान रहने की आवश्यकता है। आहार की आन्तरिक और बाह्य दोनों प्रकार की शुद्धि परमावश्यक है।
आहार रूपी अन्न से रस, रस से रक्त, रक्त से मांस, मांस से अस्थि और मज्जा भेद वीर्य आदि बनते बनते अन्त में मन बनता है। मन में चेतना का समावेश होने पर भी मस्तिष्क संस्थान वस्तुतः अन्न शरीर का ही एक अंग है। अतः अन्न का प्रभाव मन पर सुनिश्चित है। यह उक्ति प्रसिद्ध है कि 'जैसा अन्न वैसा मन' मन को 11वीं इन्द्रिय माना गया है। आहार से ही शरीर के दृश्य-अदृश्य, अंग-अवयव विनिर्मित और परिपुष्ट होते हैं। आहार से स्थूल शरीर के साथ सूक्ष्म और कारण शरीर भी प्रभावित होते हैं।
भगवान् ने गीता में अर्जुन को भोजन के सम्बन्ध में तात्विक ढंग से विवेचना की है। उन्होंने भोजन को तीन प्रकार का बताया सात्विक, राजस और तामस ।
आयुः सत्त्वबलारोग्यसुखप्रीति विवर्धनाः ।
रस्याः स्निग्धाः स्थिरा हृद्या, आहार: सात्विक प्रियाः ।।
कट्वम्ललवणात्युष्णतीक्ष्णरुक्ष विदाहिनः ।
आहारा राजसस्येष्टा दुःखशोकामयप्रदाः ।।
यातयामं गतरसं पूति पर्युषितं च यत् ।
उच्छिष्टमपि चामेध्यं भोजनं तामसप्रियम् ।।
गीता अ. 17-8,9,10 अर्थात् आयु, बुद्धि, बल, आरोग्य, सुख एवं प्रीति को बढ़ाने वाले रसयुक्त, चिकने और स्थिर रहने वाले, स्वभाव से ही मन को प्रिय आहार को सात्त्विक कहा गया है।
कड़वे, खट्टे, लवणयुक्त, अतिगर्म, तीखे, रूखे, दाहकारक, दुःख, चिन्ता तथा रोगों को उत्पन्न करने वाले आहार पदार्थ राजस कहे गए हैं।
अधपका, रस रहित, दुर्गन्ध युक्त, बासी और झूठा, अपवित्र भोजन को तामस कहा गया है?
गीता के उपर्युक्त विवेचन के आधार पर यदि वर्तमान समय में अपने आहार की स्थिति पर विचार करने पर प्रतीत होता है कि आजकल का आहार (खाद्य पदार्थ) विशेषतः राजस और तामस हो गए हैं।
इसी प्रकार गीता के 14वें अध्याय में तीनों गुणों (सात्त्विक, राजस, तामस) का वर्णन करते हुए बताया गया कि सत्त्वगुण से ज्ञान उत्पन्न और रजोगुण से निःसन्देह लोभ तथा तमोगुण से प्रमाद और मोह उत्पन्न होते हैं और अज्ञान भी होता है।
बौद्धिक संरचना और आहार
व्यक्ति की बौद्धिक क्षमताओं का सीधा सम्बन्ध मानसिक संरचना से होता है। आहार जितना सात्त्विक शुद्ध होगा उतना ही बुद्धिवर्द्धक होगा। शरीर क्रिया विज्ञानियों के अनुसार मस्तिष्क की जिन कोशिकाओं में रक्त प्रवाह जितना अधिक होगा, उतनी ही मात्रा में सुविकसित रहेंगे। साधारणत: हर मनुष्य के मस्तिष्क में 10 अरब से लेकर 20 अरब कोशिकाएं विद्यमान रहती हैं। इनमें से मात्र 5% कोशिकाएं ही विकसित स्तर की होती हैं। इने सम्बन्ध में 20 हजार अन्य केन्द्रों से भी जुड़े रहते हैं, जिनके द्वारा मनुष्य वस्तु का अनुभव करने लगता है। हमारा मस्तिष्क शरीर का एक महत्त्वपूर्ण एवं सक्रिय भाग है, बाहर से आई ऑक्सीजन एवं आहार ऊर्जा का एक तिहाई भाग मस्तिष्क द्वारा ही अवशोषित किया जाता है। इससे स्पष्ट होता है कि हमारा आहार मात्र शरीर का ही पोषण नहीं करता वरन् अपने सात्त्विक, राजसी एवं तामसिक गुणों से मस्तिष्क को भी प्रभावित करता है।
विश्वविख्यात वैज्ञानिक आइन्सटीन के मस्तिष्क के परीक्षण उपरान्त यह देखा गया कि उनके शरीर का रक्त प्रवाह इतना तीव्र और व्यवस्थित था, जिससे मस्तिष्क की कोशिकाओं में ऑक्सीजन और पोषक तत्त्वों की मात्रा आवश्यकता के अनुसार पहुँचती रही। इसी से ही उनकी बौद्धिक क्षमता विकसित हुई। इसके लिए उन्होंने उनके प्राकृतिक जीवन के साथ सरल, सस्ता, सुपाच्य सात्त्विक आहार को प्रमुख कारण माना।
आहार विज्ञान के अनुसंधानकर्ताओं के अनुसार दूध, हरी सब्जी और अंकुरित अन्न सात्त्विक, सुपाच्य तथा पोषक तत्त्वों से परिपूर्ण आहार शरीरिक पोषण के साथ मनोरोगों का भी सफल उपचार करते हैं। खाद्य पदार्थों में अंकुरित आहार अत्यधिक उपयोगी हैं अन्न के अंकुरित होते समय बीजों में पाई जाने वाली प्रोटीन विटामिन एन्जाइम एवं खनिज, लवण आदि की वृद्धि असाधारण रूप से होती है। साथ ही जीवनी शक्ति भी अधिकाधिक विकासोन्मुख एवं अधिक सक्रिय बनती है। अंकुरित विधि से सस्ता व सहज ही पौष्टिक आहार प्रत्येक व्यक्ति प्राप्त कर सकता है।
आहार साधना स्वयं में एक परिपूर्ण चिकित्सा है। मात्र मन की दुर्बलता के वशीभूत जो व्यक्ति भांति भांति के आहार स्वाद की तृप्ति हेतु ग्रहण करता है, उससे अस्वस्थ होने के साथ जीवनी शक्ति भी कमजोर होती है।
वर्तमान समय में स्वास्थ्य विज्ञान में संलग्न अनेक शोध संस्थान अपने अपने ढंग से कार्य कर रहे हैं। इंडियन काउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च इंडियन इन्सटीट्यूट ऑफ मेडिकल साइंस, नेशनल इन्सटीट्यूट ऑफ न्यूट्रीशन, पोस्ट ग्रेजुएट इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल एज्यूकेशन एण्ड रिसर्च, विभिन्न आयुर्वेद संस्थान आदि देश की आर्थिक परिस्थितियों के अनुसार उपयोगी खाद्यानों की सिफारिश कर रही हैं। साथ ही इस पर भी ध्यान दिया जा रहा है कि उपयोगी स्तर का आहार ग्रहण करने पर भी असंख्यों को उसका लाभ क्यों नहीं मिलता। अनेक व्यक्ति आर्थिक दृष्टि से सम्पन्न और सुशिक्षित होते हुए भी शारीरिक दृष्टि से दुर्बल और रूग्ण बने रहते हैं, अतः आहार का संतुलित होना ही पर्याप्त नहीं बल्कि उसके पकाने व खाए जाने का तरीका भी विशिष्ट महत्त्व रखता है।
अंत में यह उल्लेख करना समीचीन होगा कि आहार की शुद्धता रासायनिक पदार्थों के साथ उसकी कारण शक्ति पर भी निर्भर है। पदार्थ की कथित सात्विकता के साथ उसके प्राप्त करने के तरीके में यदि अनीति अत्याचार का समावेश है, तो उससे बना यह शरीर- मन, आत्मिक प्रगति की साधना में आगे नहीं बढ़ सकता।
-- डॉ. गुरुदत्त शर्मा, ब्यावर