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दीपोत्सव

मनीषियों के कथानानुसार जिन देशों की संस्कृतियों में जितने अधिक उत्सव, व्रत, त्यौहार मनाए जाते हैं, वे देश, धर्म तथा जातियाँ उतनी ही उन्नत मानी गई हैं। इस मान्यता के अनुसार हमारी सनातन हिन्दू संस्कृति पर विचार करें तो प्रतीत होता है कि विश्व में इस आधार पर सर्वाधिक जीवन्त देश हमारा भारतवर्ष है।
सभी पर्वों में दीपावली का सबसे महत्त्वपूर्ण स्थान है। दीपावली शब्द दीप और अवली इन दो शब्दों के मेल से बना है। जिसका शाब्दिक अर्थ है दीपों की पंक्ति। अनेक कवियों ने इसे दीपमालिका शब्द से सम्बोधन दिया। हमारी आर्ष मान्यता के अनुसार दीपक ज्ञान और प्रकाश का प्रतीक माना गया है असंख्य रचनाकारों ने दीपमालिका के अवसर पर दीपकों की उस पंक्ति का उल्लेख किया है, जिसके प्रकाश पुंज से सघन अंधकार समाप्त हो जाता है। इन दीपकों को लोक जीवन के सजग प्रहरी भी कह सकते हैं। ये दीप पंक्तियाँ असंख्य तनावों-निराशाओं प्रतिकूलताओं को अपने तरल प्रकाश में विलीन करने की क्षमता रखती है। अतः दीपोत्सव आशा, उत्साह एवं उमंग को संचरित संवहित करने वाला ज्योति पर्व है।
दीपावली का हमारे जन जीवन में सामाजिक एवं धार्मिक दोनों दृष्टियों से महत्त्व है। यह पर्व कार्तिक अमावस्या को मनाया जाता है। इस पावन पर्व पर धन की अधिष्ठात्री लक्ष्मी एवं विघ्नविनाशक, सद्बुद्धि प्रदाता गणेश के पूजन का विधान है। उपनिषदों का उद्घोष 'असतो माँ सद्गमय' अर्थात् हम अंधकार से प्रकाश की ओर चलें को सार्थक करते हुए दीपावली को प्रकाश पर्व कहा गया है। इस पर्व को प्रकाश पुंज रूपी पुण्य परम्पराओं को प्रवाहित करते रहने का जीवंत पर्याय माना गया है।
पौराणिक एवं ऐतिहासिक निरुपण हमारे देश में लक्ष्मी पूजन की अनवरत परम्परा को देखते हुए इस वैदिक कालीन पर्व कहा जा सकता है। आज के दिन समुद्र मंथन से लक्ष्मी का प्राकट्य हुआ। अतः इस दिवस को अलक्ष्मी, अस्वच्छता व दरिद्रता के निवारण पूर्वक लक्ष्मी को आह्वान पूजन के रूप में मनाते आ रहे हैं। ऐतिहासिक दृष्टि से मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम असुर सम्राट रावण का वध कर चौदह वर्ष पश्चात् जब अयोध्या लौटे तब अयोध्यावासियों ने प्रसन्नता पूर्वक घर-घर दीप जलाए तो एक उत्सव का रूप बना, उसी दिन की स्मृति में दीपावली पर्व प्रारम्भ हुआ।
रावण के आतंक पर श्री राम की विजय मात्र एक पुराण कथा नहीं बल्कि हमारी सांस्कृतिक चेतना का जीवन्त, अमर और अमिट इतिहास है। यह श्री राम की रावण पर विलासी और निरंकुश जीवनशैली पर विजय थी। इसे लोकनायक श्री राम की आतंक के खलनायक रावण पर एक सांस्कृतिक विजय थी। इस विजय को श्री राम के अयोध्या आगमन पर हमारे देशवासियों ने दीपावली के आलोक पर्व के रूप में मनाया था। तभी से यह दीपोत्सव राष्ट्र के विजय पर्व के रूप में मनाया जाता है।
इसी प्रकार प्राचीन हड़प्पा की खोज में देवी लक्ष्मी की मूर्ति प्राप्त हुई थी, जिससे यह तथ्य पुष्ट होता है कि उस काल में भी दीपावली मनाई जाती थी। इस प्रकार की मूर्ति ईसा के 4500 वर्ष पूर्व मोहनजोदड़ो सभ्यता के पुरातत्त्वविदों को प्राप्त हुई थी। इसमें लक्ष्मी की मूर्ति के दोनों ओर दीपक बने हुए थे। यह इस बात का प्रतीक है कि लक्ष्मी को प्रसन्न करने के लिए दीप दान किया जाता था। आज से 2500 वर्ष पूर्व भगवान् बुद्ध के स्वागत में दीप सजाए गए थे। कल्पसूत्र के अनुसार भगवान् महावीर ने इस दिन निर्वाण प्राप्त किया था। उन्होंने कहा था जगत् से ज्ञान की ज्योति बुझ गई है, अतः दीप प्रज्ज्वलित करें।
कौटिल्य के अर्थशास्त्र में वर्णन मिलता है कि उन दिनों दीपावली के अवसर पर मंदिरों एवं घरों को दीपों से सजाया जाता था। सम्राट चंद्रगुप्त विक्रमादित्य दीपावली के दिन ही सिंहासनारूढ़ हुए थे। सम्राट अशोक ने अपनी दिग्विजय दीपावली के शुभ अवसर पर पूर्ण की।
आध्यात्मिक पक्ष : आध्यात्मिक दृष्टि से दीपावली का विवेचन करें तो इसे बंधन मुक्ति का पर्व कहना उचित होगा। व्यक्ति के अंदर जो अज्ञान रूपी अंधकार का साम्राज्य है उसे मिटाकर हम प्रकाश की ओर अग्रसर हों। दीप जलाने का तात्पर्य है अपने अंतर्मन को ज्ञान रूपी प्रकाश से भर लेना । अंधकार रूपी अज्ञान से सतत् प्रकाश की ओर बढ़ते रहना ही इस महापर्व की प्रेरणा है। हमारी सनातन संस्कृति आलोक प्रधान रही है। दीप का थोड़ा सा प्रकाश (ज्ञान) तिमिर रूपी अज्ञान का संहार करता है। दिखने में तो प्रज्वलित दीपक बहुत छोटा सा दिखता है, लेकिन उसके समकक्ष कोई भी ज्यादा देर तक ठहर नहीं सकता। प्रज्वलित दीपक यह प्रेरणा देता है कि ज्ञान व सत्प्रवृत्तियों के प्रसार की प्रतियोगिता में दुष्प्रवृत्तियाँ और अज्ञानता का अस्तित्व टिक नहीं सकता। प्रायः अंधकार (अज्ञान) में ही जघन्यतम पाप कर्म किए जाते हैं। अंधकार के आश्रय में ही अज्ञान फलता-फूलता है और अपने अज्ञान रूपी साम्राज्य को बढ़ाता है। लेकिन विवेक रूपी प्रकाश इस अज्ञानयुक्त अंधकार को एक क्षण में दूर कर देता है।
वर्तमान परिप्रेक्ष्य आज चिंतन करने पर देखते हैं कि एक परिवार, समाज एवं राष्ट्र को समृद्ध करने वाली लक्ष्मी पूजन की परम्परा के स्थान पर शोषण, अत्याचार, जालसाजी, धोखा एवं अहंकार में समाज का एक बड़ा तथाकथित संभ्रांत वर्ग संलिप्त है। आज 'सर्वजन हिताय सर्वजनसुखाय' की उक्ति के स्थान पर वैयक्तिक हित प्रधान होता जा रहा है। सामाजिक मानदण्ड बहुत बदल चुके हैं। चारों ओर वैभव विलासिता व अश्लीलता का उच्छृंखल प्रदर्शन हो रहा है। ऐसा लगता है इन्हें आधुनिक दिवाली की प्रतिष्ठा प्राप्त है।
अतः दीपावली के पावन पर्व पर यह आत्मनिरीक्षण करते शुभ संकल्प लें कि देश में व्याप्त अज्ञानता रूपी अंधकार से उत्पन्न हुई कुप्रवृत्तियों, रूढ़िवादिताओं और कुपरम्पराओं को अपने विवेक रूपी दीपक के प्रकाश से दूर करें। समाज में स्वस्थ परम्पराओं को स्थापित करें। दीपोत्सव की पावन सार्थकता इसी में निहित है कि अपने अंतर्मन में मुझे आत्मदीप को प्रज्वलित किया जाए। उस अंतर्मन पर जमे जन्मजन्मान्तरों के कषाय- कल्मषों को दूर करें ताकि चिर ज्योतित आत्मा का प्रकाश बाहर प्रकट हो। यही 'आत्मदीपो भव' का उद्घोष है। यही आदर्श हमारी गहरी आस्था रूपी दीपावली का संदेश है। इस आस्था रूपी दीप को प्रज्ज्वलित करना हम सबका पुनीत कर्तव्य है।

-- डॉ. गुरुदत्त शर्मा, ब्यावर