प्रार्थना का स्वरूप
प्रार्थना का अर्थ है- याचना करना। हम अपने लिए या दूसरों के लिए कोई दया या कृपा आदि चाहते हैं और उसे मांगते हैं। सर्वमान्य एवं व्यावहारिक अर्थों में प्रार्थना एक व्यक्ति के हृदय की आकुल पुकार है। जब एक व्यक्ति जीवन के दुःखों-कष्टों, घात-प्रतिघातों एवं दुरुह जटिलताओं से घबरा जाता है, जब उसके पुरुषार्थ एवं आशा की सीमाएं टूट जाती हैं, तो वह शक्ति, प्रेम, करूणा के उच्चतम आदर्श (ईष्ट देव, भगवान्, गुरुसत्ता, देवशक्ति) की अपने मन में स्थापना करता है, उससे अपनी अंतर्व्यथा को निवेदित करता है। मन के गुह्यतम क्षेत्र में परमात्मा की अनन्त, अद्भुत और अतुलित शक्ति-सामर्थ्य निवास करती है। प्रार्थना के माध्यम से हम इसी आंतरिक शक्ति केन्द्र की ओर उन्मुख होते हैं। यहीं से एक ऐसी शक्ति, स्फूर्ति, प्रेरणा एवं आत्मविश्वास जागृत होता है, जो शरीर के अणुअणु में अद्भुत जल का संचार करता है। यह हमारी आत्मिक शक्ति को जागृत कर मन को पुरुषार्थ से भर देता है।
प्रार्थना शरीर-मन-वाणी तीनों का संगम है। इसमें तीनों ही अपने आराध्य देव की सेवा में एक रूप होते हैं। प्रार्थनामय जीवन अर्थात् पूर्ण भगवत्मय जीवन। प्रार्थना में एक मात्र विषय परमात्मा है। यह कुछ शब्दों का समूह नहीं अपितु अन्तर्मन की पुकार है।
गुप्त मन का जागरण : मनुष्य की सारी गुप्त शक्तियों का केन्द्र उसका गुप्त मन है, जो सदैव जागृत रहता है। जीवन की हर घटना इस मन में अंकित होती रहती है और यह वर्तमान जीवन को प्रभावित करता है। यही गुप्त मन मनुष्य को सन्मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित करता है। प्रार्थना हमारे इसी गुम मन को जागृत करती है। प्रार्थना से विपत्तियाँ दूर होती हैं। इसका कारण है कि हम इसके द्वारा रक्षा कवच धारण कर लेते हैं। प्रार्थना से हमारे अंदर आध्यात्मिक शक्तियों का जागरण होता है, जो हमारी चिंताओं, रोग, शोक, व्याधि आदि को नष्ट करता है।
सद्बुद्धि हेतु प्रार्थना : भगवान् की अनन्य भाव से प्रार्थना करने पर समस्त दोषों, कष्टों एवं प्रतिकूलताओं को समाप्त कर प्राणि को सन्मार्ग पर ला सकते हैं।
प्रार्थना में अमोघ, अलौकिक शक्ति विद्यमान है। इससे असम्भव कार्यों को भी सम्भव किया जा सकता है। सच्ची प्रार्थना, सामूहिक, लौकिक-पारलौकिक सब प्रकार का कल्याण सम्पादन कर सकती है। यह सर्वमान्य है कि सद्बुद्धि से ही सन्मार्ग में प्रवृत्ति होती है, उससे सब प्रकार का कल्याण सम्भव है, परन्तु सद्बुद्धि की प्राप्ति कैसे हो? हमारी सनातन संस्कृति में सर्वप्रधान गायत्री-मंत्र द्वारा सद्बुद्धि और सत्प्रेरणा के लिए भगवान की प्रार्थना का ही संकेत मिलता है। समस्त पुरुषार्थों एवं सभी कर्तव्यों का एक मूल सद्बुद्धि है। अपने देह की दुर्बलता, इन्द्रियों की दुर्बलता सुनकर इतना रोष नहीं होता, परन्तु सद्बुद्धि का दौर्बल्य सुनने से अत्यन्त कष्ट होता है। इसलिए सद्बुद्धिसत्प्रेरणा के लिए भगवान् से ही प्रार्थना करने का विधान है, जिससे समस्त पुरुषार्थ सरलता से सिद्ध हो सकें।
मनोवैज्ञानिक आधार : वर्तमान समय में स्वयं मनोवैज्ञानिकों ने भी प्रार्थना में आध्यात्मिक शक्तियों के प्रवाह को स्वीकार किया है। उनका मत है कि सब प्रकार की शक्ति हमें परमात्मा में मिलती है। वही हमारे आत्मविश्वास का प्रमुख आधार है। परमात्मा से सम्बन्ध स्थापित करने की यह प्रमुख विधि है। प्रार्थना हमारी कमजोरियों को दूर करती है। हमारे अन्तर्मन का नव निर्माण करती है। हम गुप्त मन में ईश्वरीय प्रेरणाए रखें तथा सबके हित और सुख की कामना करें तो हमारे अंतर्मन का सही दिशाओं में निर्माण हो सकता है। प्रार्थना-पूजाजप-तप आदि का मनोवैज्ञानिक आधार स्वयं अपनी शुभ भावनाओं को देवत्व को विकसित करना ही है। प्रार्थना के समय किया गया अभ्यास, शुभ शब्द, सकारात्मक विचार एवं भावनाएं शीघ्र ही हमारे स्वभाव के अंग बन जाते हैं। प्रार्थना द्वारा हम विवेक को जागृत कर ईश्वर का सान्निध्य प्राप्त कर सकते हैं, जो हमारी समस्त दुष्प्रवृत्तियोंदुर्योगों को समाप्त करते हैं। प्रार्थना हमारे कुविचारों और कुसंस्कारों का आवरण हटाकर महानता की स्थिति में ले आती है। अनन्य भाव से विधि पूर्वक प्रार्थना हमारी मलिनताओं को दूर कर मनुष्य में प्रवित्रता, महानता और उत्कृष्टता की स्थापना करती है। फलस्वरूप यह आध्यात्मिक उन्नति शनै- शनैः हमें स्वास्थ्य, सुख, शांति और संतुलन की ओर अग्रसर करती है।
कुछ दृष्टान्त :
(i) एक बार मेरे एक सम्बन्धी को उनकी पत्नी की लंबी बीमारी के सम्बन्ध में कई दिनों तक अस्पताल में रहना पड़ा। उन्होंने अपने अनुभव बताते हुए कहा कि नित्यप्रति प्रात: सभी कर्मचारी, डॉक्टर, कम्पाउण्डर, नर्स, नौकर और कुछ रोगी भी प्रार्थना में सम्मिलित होते थे। कुछ दिन तो उन्होंने सोचा कि यह सब यंत्रवत नियमित रूप से होता है। किंतु काफी दिनों पश्चात् उन्हें यह अनुभूति हुई कि रोगियों के उपचार, दवा देने और हर प्रकार की जाँच तथा वैज्ञानिक चिकित्सा करने पर भी स्वास्थ्य और जीवन परमेश्वर के हाथ में होता है। अतः उनके जीवन और स्वास्थ्य लाभ के लिए प्रतिदिन प्रार्थना की जाती है और यह फलदायक सिद्ध होती है।
इलाज करने वाले डॉक्टरों ने बताया कि 'हम तो केवल वही दवाइयाँ और परीक्षण करते हैं, जहाँ तक हमारी पहुँच है। हमारी सम्पूर्ण शक्ति-विवेक से सब चिकित्सा कर देने के बाद ईश्वरीय शक्ति से रक्षा और स्वास्थ्य की मांग करते हैं। क्योंकि इन सबका केन्द्र ईश्वर है। वही जन्म देता है, वही स्वास्थ्य लाभ भी करा सकता है। और तो और रोगी पत्रक पर प्रारम्भ में यह लिख दिया जाता है कि "ईश्वर करे यह रोगी इस नुस्खे से स्वस्थ हो जाए।"
(ii) चिकित्सा शास्त्र पर नोबल पुरस्कार विजेता, फ़्रांस के लियो विश्वविद्यालय के प्राध्यापक डॉ. एलेक्सिस कैरेल ने जटिल से जटिल रोगों का उपचार कर दिखाया है। उन्होंने चिकित्सा विज्ञान को अपनी प्रतिभा द्वारा कई महत्त्वपूर्ण अवदानों से भी सम्पन्न बनाया। जिन रोगों का उपचार तो दूर, निदान करना भी बड़े-बड़े डॉक्टरों के वश में नहीं था, डॉ. कैरेल ने उनके अचूक इलाज और कारगर औषधियाँ खोज निकाली। उनसे जब इस सफलता का रहस्य पूछा गया तो वे बोले, आम लोगों की तरह मैं भी एक साधारण मनुष्य हूँ और उनसे अधिक मेरी कोई सामर्थ्य भी नहीं है। मुझे जो सफलताएं प्राप्त करने का श्रेय मिला, वे मेरे पुरुषार्थ का कम, परमेश्वर के दिव्य सहयोग का प्रतिफल अधिक है।
अपनी खोजों, विचारों और अनुभवों से संसार को लाभ पहुँचाने के लिए सन् 1935 में उन्होंने अपना ग्रन्थ 'MAN THE UNKNOWN' प्रकाशित किया। प्रार्थना के प्रभाव के बारे में वे लिखते हैं कि "कोद, कैंसर, टी.बी. इत्यादि रोगों के लाइलाज बीमार कुछ समय में ही पूर्ण स्वस्थ होते हुए देखे गए हैं। रोगी के अच्छे हो जाने की प्रक्रिया इस प्रकार होती है कि पहले तो विषम वेदना होती है, फिर स्वस्थ हो जाने की सहसा अनुभूति होती है। पुन: कुछ सैकण्डों में, कुछ मिनटों में या अधिक से अधिक कुछ घंटों में घाव भरकर मिट जाते हैं। रोग के लक्षण गायब हो जाते हैं, भूख लग जाती है। यह आवश्यक नहीं कि रोगी स्वयं प्रार्थना करे। पर किसी-नकिसी को उसके लिए सच्चे दिल से विश्वास के साथ भगवान् से प्रार्थना करनी चाहिए और वह आत्मोन्नति का सरल सोपान है।"
(iii) ईश्वर से तादात्म्य स्थापित करने में प्रार्थना से बढ़कर कोई और साधना मार्ग नहीं है। हमारे राष्ट्र में सूर, तुलसी, मीरा, तुकाराम, समर्थ गुरु रामदास, चैतन्य महाप्रभु, नरसी भगत आदि संत-महात्माओं की प्रार्थनाएं प्रख्यात है। श्रद्धा-भक्ति से ओत-प्रोत होकर हृदय की गहराई से विश्वास पूर्वक थोड़े समय के लिए भी की गई प्रार्थना अनन्त गुना प्रतिफल प्रदान करती है।
(iv) इंग्लैण्ड में राष्ट्रीय सेवा समिति द्वारा अनेक अस्पताल चलाए जाते हैं, उन सबमें बीमारों के इलाज के साथ-साथ उनकी आध्यात्मिक आवश्यकताओं की भी पूर्ति की जाती है। स्वास्थ्य मंत्रालय 750 या अधिक बीमारों वाले अस्पतालों में रात-दिन रहने वाले धर्मोपदेशक नियुक्त करता है और वे नित्य प्रति प्रात: कालवसायंकाल रोग-निवारण के लिए भगवान् से प्रार्थना करते हैं। इससे कम संख्या वाले चिकित्सालयों में स्थानीय गिरजोंकेपादरी यह कार्यकरते हैं।
ब्रिटिश मेडिकल एसोसिएशन ने धर्म और चिकित्सा में सतत सहयोग की महिमा को अनुभव किया है, तदनुसार डॉक्टरों की परिषद् में पादरी और पादरियों की सभा में डॉक्टर बीमारों के रोग निवारण के विषय में मिलकर विचार करते हैं। एसोसिएशन के प्रमुख का कथन है कि 'हमें अपना कार्य सम्यकपूर्वक करना है तो आध्यात्मिक शक्ति की सहायता अधिक से अधिक लेनी होगी तथा इसमें प्रार्थना की अवधारणा का प्रमुख स्थान है।'
हमारे देश में भी इसाई मिशनरियों द्वारा संचालित अस्पतालों में अधिकांश में प्रात: काल व सायंकाल प्रार्थना अनिवार्य रूप से की जाती है। अध्यात्म प्रधान हमारे देश में भी कुछ अस्पतालों में यह कार्य प्रारम्भ हुआ है, आशा है इसे और गतिमान किए जाए।
सारांश :
प्रार्थना शीलता के तीन अंग हैं-'प्रार्थी', 'प्रार्थना' और प्रार्थनीय'। जो प्रार्थी हैं उसके सम्बन्ध में दो बातें शास्त्रों में वर्णित है - संकल्पथोऽयं पुरुषः' और 'श्रद्धाभयोऽयं पुरुषः' अर्थात पुरुष किसी न किसी के प्रति विचार करता रहता है और किसी-न-किसी के प्रति श्रद्धा की भावना रखता है। जिसके प्रति वह श्रद्धा रखता है वह उसका प्रार्थनीय (ईश्वर, देव, गुरु सत्ता आदि) है तथा उससे क्या प्रार्थना की जाए, यह संकल्प या विचार से सम्बन्ध रखता है, वही उसकी प्रार्थना बन जाती है।
'प्रार्थना' की व्युत्पत्ति 'प्रार्थ' धातु से है, जिसका अर्थ चाहना या याचना करना है। अस्तु प्रार्थी का हृदय पवित्र होना चाहिए, क्योंकि प्रार्थना का मूल कण्ठ नहीं, किंतु हृदय है। उसका हृदय निर्मल हो और उसकी प्रार्थना उच्च विचारों और महान् आदर्शों के अनुसार हों तो वह अवश्य सफल होती हैं।
प्रार्थी के विचारों के अनुसार प्रार्थना अनेक उद्देश्यों की पूर्ति हेतु की जा सकती है। सम्पूर्ण विश्व के कल्याण के लिए निम्न प्रार्थनाएं सर्वोपरि हैं:
सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मां कश्चिद् दुःख भाग्भवेत।।
अर्थात् सभी सुखी हों, सभी निरोगी रहें, किसी को भी कोई दु:ख न हों।
इसी प्रकार की प्रार्थना राजा शिवि करते हैं :
न त्वहं कामये राज्यं, न स्वर्गं नापुनर्भवम्।
कामये दु:खतप्तानां प्राणि नाम् आर्तिनाशनम्।।
अर्थात् स्वर्ग या राज्य मिले न मिले या पुनर्जन्म ना हो पाए, बस मैं यह चाहूं कि पीड़ित लोगों के कष्टों का निवारण हो जाए।
-- डॉ. गुरुदत्त शर्मा, ब्यावर