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चरित्र निर्माण - एक जागृत प्रश्न

'चरित्र' शब्द इतना व्यापक है कि इसमें धर्म, सदाचार एवं सभी सद्गुणों का समावेश हो जाता है। विश्व सभ्यताओं का अध्ययन करने पर ज्ञात होता है कि जितने भी महान् व्यक्ति हुए हैं, उनकी महत्ता किसी शक्ति या बल के कारण नहीं है, बल्कि चरित्र बल के कारण हैं। आज हम राष्ट्रीय चरित्र की बात तो करते हैं, किन्तु इसके प्रति अपने दायित्व से विमुख हो जाते हैं। जिनके हाथ में आज समाज राष्ट्र का नेतृत्व है, वे अपना 'आदर्श चरित्र' वर्तमान पीढ़ी के सामने प्रस्तुत नहीं कर पा रहे हैं। इसका कारण है उनमें स्वयं में 'आदर्श चरित्र' का अभाव। मानव जीवन की उत्तमता शारीरिक अथवा आर्थिक उन्नति से नहीं होती है। चारित्रिक रूप से सम्पन्न व्यक्ति ही वास्तव में उन्नति कर सकता है तथा उसी का जीवन सर्वांगपूर्ण एवं आदर्श कहा जाएगा। इसी कारण हमारे सनातन आर्ष ग्रन्थों में चरित्र निर्माण, आचार शुद्धि, चारित्र्य संरक्षण पर पदे-पदे जोर दिया गया है।
यद्यदाचरित श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः।
स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते।। गीता : 3-21
अर्थात् श्रेष्ठ पुरुष जो-जो आचरण करता है, अन्य पुरुष भी वैसा-वैसा ही आचरण करते हैं। वह जो कुछ प्रमाण कर देता है, समस्त मनुष्य समुदाय उसी के अनुसार, बरतने लग जाता है।
आज 'सर्वत्र चारित्रिक संकट' (Crisis of Character) की चर्चा है। यह इस बात का द्योतक है कि बुद्धिजीवी वर्ग को वर्तमान चारित्रिक परिस्थिति से संतोष नहीं है। आज वर्तमान परिस्थितियों में यह एक ज्वलंत चुनौती है, इसी कारण प्रत्येक क्षेत्र में उस स्तर की प्रगति नहीं हो पा रही है, जैसी हमें आकांक्षा है, बल्कि कई क्षेत्रों में उत्तरोत्तर अवनति की ओर जा रहे हैं।
चरित्र एवं आचरण : चरित्र शब्द की व्युत्पत्ति चर+इत्र से होती है। जिसे कर्म का प्रेरक कहा जाता है। इसे स्वभाव, व्यवहार, आचरण अथवा जीवन का वह कार्य भी कहते हैं, जिससे मनुष्य की संकल्प शक्ति (Will Power), इच्छा शक्ति, कर्तव्य परायणता आदि का निर्माण होता है। इसे चरित्र, चारित्र, चारित्र्य आदि से भी संबोधित करते हैं। अंग्रेजी भाषा में प्रायः कन्डक्ट, बिहेवियर, कैरेक्टर आदि शब्दों द्वारा इसी का अर्थ बोध होता है।
चरित्र का निर्माण : प्राचीन भारत में चरित्र का इतना अधिक महत्त्व था कि समस्त वेदों का मर्मज्ञ भी सच्चरित्रता के अभाव में सम्माननीय नहीं था। रावण इसका ज्वलंत उदाहरण है। वह तत्कालीन समय का प्रकाण्ड विद्वान होते हुए भी चारित्रिक लम्पटता के कारण आज हजारों वर्षों के पश्चात् भी उसकी अपकीर्ति विद्यमान है। चरित्र का निर्माण होता है सत्कर्मों से, इनका मूल आधार है नैतिक मूल्य। चरित्र निर्माण में अनुशासन, विनम्रता, ईमानदारी और परोपकार जैसे मूल्यों का विशेष योगदान होता है। इसी प्रकार आत्मनियंत्रण, विश्वसनीयता, कार्य में दृढ़ता, कर्म निष्ठा, अन्त:करण की शुद्धता और उत्तरदायित्व की भावना उत्तम चरित्र के गुण हैं। भगवद्गीता के 16वें अध्याय में 'दैवी सम्पदा' के गुणों का वर्णन भगवान् ने किया है। अभय, मनशुद्धि, ज्ञान और योग में स्थिति, दान, दया, यज्ञ, स्वाध्याय, तप, ऋजुता, अहिंसा, सत्य, अक्रोध, त्याग, शांति, निष्कपटता, प्राणिमात्र में दया, लज्जा, मृदुता, चंचलता का अभाव, तेज, क्षमा, धैर्य, अद्रोह आदि इन गुणों को धारण करने वाला सदाचारी कहलाता है। अत: चरित्र निर्माण हेतु आत्मनिरीक्षण करते हुए सतत् रूप से इन गुणों के विकास का प्रयास आवश्यक करना होता है।
'वेदमाता गायत्री' महामन्त्र में भी विवेक के लिए प्रार्थना की गई है। इस चौबीस अक्षर के लघु मन्त्र में सविता देवता से बुद्धि को सन्मार्ग की ओर प्रेरित करने की प्रार्थना है। निश्चय ही प्रतिदिन यह प्रार्थना चरित्र निर्माण में महत्त्वपूर्ण योगदान करती है।
निष्कर्ष - हमारे राष्ट्र के मन्त्रदृष्टा मनीषियों ने अपनी अतीन्द्रिय क्षमता के आधार पर मानव मनोविज्ञान का अध्ययन करके यह जान लिया था कि 'आचारहीनं न पुनन्ति वेदाः' आचारहीन व्यक्ति को वेद भी शुद्ध नहीं कर सकते। अतः सदाचार की महत्ता हमारे आर्षग्रन्थों में बताई गई है, अत: ईश्वरीय नियमों के पालन, सदाचार नियमों के अनुष्ठान एवं सामाजिक शुभ व्यवहार ऐसे दिव्य कार्य हैं, जिनसे हम अपने जीवन को सुखी और समृद्ध बना सकते हैं। चरित्रवान होने से आत्मसंतुष्टि मिलती है, इसके अभाव में ग्लानि होती है। इसीलिए कहा गया है कि
वृत्तं यत्नेन संरक्षेदू वित्तमेति च याति च।
अक्षीणो वित्ततः क्षीणो वृतत्स्तु हतो हतः।।
महाभारत उद्योग पर्व 36-30 अर्थात्-धन क्षीण हो जाने पर भी सदाचारी मनुष्य क्षीण नहीं माना जाता, किन्तु जो सदाचार से भ्रष्ट हो गया, उसे तो नष्ट ही समझना चाहिए।

-- डॉ. गुरुदत्त शर्मा, ब्यावर