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सूर्य को विश्व मानस का नमस्कार

स्वायंभुव मनु के पुत्र प्रियव्रत और उत्तानपाद दो पुत्र और प्रसुति, आकूति तथा देवहूति ये तीन कन्याएँ थीं। प्रियव्रत शाखा में पैंतीस पीढ़ियां चली, नाभि को भारत मिला, ऋषभ ( 6 ) जैन धर्म के आदि प्रवर्तक हुए। भरत के नाम पर देश का नाम भारतवर्ष प्रसिद्ध हुआ । स्वारोचिस उत्तम - तामस और रैवत मनु तथा ये चार मन्वन्तर इसी प्रियव्रत शाखा में हुए। इस वंश की समाप्ति पैंतीसवीं पीढ़ी में हुई। इस काल में राजा की स्थापना नहीं हुई। ये सभी वंश प्रमुख प्रजापति कहाते थे। इस वंश की 35वीं पीढ़ी तक भी वेदोदय नहीं हुआ था। स्वायंभुव के द्वितीय पुत्र उत्तानपाद के वंश में चाक्षुष मनु हुए। इनके काल में सत्ता इसी शाखा के हाथ में आई । चाक्षुष मनु छठे मनु और मनुवंश के छत्तीसवें प्रजापति थे। उत्तानपाद के वंश में दस प्रजापति और राजा हुए। इसी वंश में जानन्तपति आदि छ: विख्यात विजेता हुए, जिन्होंने ईशन और मिस्र को जय किया। इन्हीं में प्रथम राजा 'बेन' हुआ जिसने राजवंश की मर्यादा स्थिर की। इसी काल में प्रलय हुआ, बैकुंठ निर्माण हुआ, वेदोदय हुआ - ‍महाभारत शांतिपर्व इसका उल्लेख करता है। इस वंश के राज्यकाल में बड़ी-बड़ी सांस्कृतिक और राजनैतिक घटनाएँ हुई। कृषि का आरम्भ, नगर, जनपद बसे, युद्ध व्यवस्थित हुए। इस प्रकार मनुर्भरतों की पैंतालिस पीढ़ियों का शासन काल ही 'सतयुग' काल है। जो तेरह सौ वर्षों का है। मनु की तीसरी कन्या देवहूति कर्मद की पत्नी तथा कपिल की माता थी। शतपथ ब्राह्मण, वाल्मीकि रामायण के बालखण्ड के अनुसार इसके बाद वैवस्वत मनु का वंश आरम्भ हुआ। मरीचि पुत्र कश्यप से दक्ष की चौथी पुत्री अदिति से बारह पुत्र हुए जो 'आदित्य' कहलाए। जिनमें छोटे 'सूर्य' थे। वैवस्तव मनु इन्हीं सूर्य के पुत्र थे । इनका वंश सूर्यकुल कहलाया, जिसकी प्रतिष्ठा भारत में अयोध्या नगरी में हुई। इस वंश की 39वीं पीढ़ी में 'राम' हुए।
मनु वैवस्वत ने आर्य जाति की स्थापना की तथा सूर्यवंश चलाया। मत्स्य पुराण के अनुसार भारत में सूर्यवंश का राज्य समूह सूर्यमण्डल का निष्कम्भ कहलाता था। सूर्य की चार राजधानियां थीं। भविष्य पुराण सूर्य कथा के अनुसार इन्द्रवन - मुण्डार - कालप्रिय, आदित्यपुर और काश्यप नगर इनके नाम थे। एलाम और पर्शिया के लोग मित्र और वरुण की पूजा करते थे। मित्र का अर्थ सूर्य है। सूर्य की उपासना उस काल के सभी लोगों में प्रचलित थी। सूर्य की स्त्री संज्ञा के पिता त्वष्टा पुत्र विश्वकर्मा उत्तर कुरु के अधीश्वर थे। विष्णु पुराण के अनुसार वे शिल्प के आचार्य और गान्धार नरेश नग्नजीत के गुरु थे। इनकी राजधानी 'वन' थी। सूर्य कुछ काल वन में रहे थे। मिस्र के ऊपर दमित्र विष्णुपुर था। (Druid) निर्मित सूर्य देव की मूर्तियाँ और मित्र के मन्दिर, जिनको यूरोप में Mithraea कहते हैं- ग्रीस - रोम-जर्मनी- यार्क व चेष्टर तक थे (Tod's Rajasthan 426) इसका उल्लेख करता है। जेठ का दशहरा मित्र (सूर्य) का नौद्वीपों के इन्द्र होने का उत्सव है।
अरब में 'यार' Edom, Erythros व 'आद' नाम सूर्य के ही हैं। Redsea का नाम पहले Edom था। पर्शियन गल्फ का नाम Erythrean Sea था। भाष्यम 2 पैरा 51617 टिप्पणी के अनुसार 'अदन' का 'आद' का मन्दिर सोने चाँदी की ईंटों का था। मुलतान- मूलस्थान में सूर्य (मित्र) ने स्वयं तप ( राज्य ) किया था। सेमेटिक और सुमेरियन जातियों में जो नरेश शुशिनाक, उरवंशी, कुदुर, नृगतों, सगरटी, द्रोपनी, विश्व कासाहट थे, उनका प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष सम्बन्ध-सूर्यवंश से था। नृग व नृसिंह (Negrito) सूर्यवंशी थे। अमेरिका के 'रेड इण्डियन्स' भी सूर्यवंशी हैं। ये सूर्य की पूजा करते हैं और पवित्र अग्नि को कभी नहीं बुझने देते। कृषि का उत्सव मनाते और पितरों का आह्वान करते हैं। इनका कथन है कि उनका जन्म आदिकाल में एक नीली झील के किनारे हुआ था और 'ताओस' में अपना नगर बसाया था। उनका नेता 'पीसीयीमो' (यम) सर्व प्रथम अनाज ताओस में लाया था। वह बहुत लम्बा आदमी था। रोज सवेरे - श्याम संध्या में सूर्य को अर्घ्य देते हुए द्वादश नाम हिन्दू दुहराता है और शरीर के अंग विशेष छूता है; जैसे 'केशवाय नमः' कहकर ललाट छूता है। यों बैठे हुए आदमी के बारह अंग सूर्य ऊर्जा से संचालित हैं, बारह मास के प्रतीक हैं, और ये बारह ही आदित्य हैं। अथर्ववेद में सूर्य के सात नाम थे, जो उसकी सात किरणों का ही अर्थ देते थे। महाभारत में भी बारह नाम हैं; दिवसपुत्र ( दिन का बेटा) वृहद भानु (बड़ा सूर्य) चक्षु आँख आदि ।
हमारे पुराणों में सूर्य किसका बेटा था, इसके बारे में कई उल्लेख ऋग्वेद अकेले में ही उसे इन्द्र, मित्रावरुण, सोम, इन्द्रा-सोम, इन्द्रा - विष्णु, इन्द्रा-वरुण, अग्नि और धाता, अंगिरस का पुत्र कहा गया है। बाद में विष्णुधर्म पुराण में कहा गया है कि वह कश्यप और अदिति का पुत्र है। वह जब जन्मा तो उसके हाथ पैर नहीं थे, इसीलिए उसे 'मार्तण्ड' कहा गया। भविष्य पुराण में उसे मरीचि का पुत्र कहा है। पुरी में जगन्नाथ के भी हाथ-पैर नहीं है।
सूर्य की पूजा दुनियां के कई धर्मों में होती हैं। प्राचीन संस्कृतियों में सूर्य पूजा का विधान था। असीरिया और बेबीलोन में पुराने सूर्य मंदिर मिले हैं। अब सिर्फ नींव ही बची है, उस पर सूर्य का चित्र अंकित है, जहाँ राजा और उसके दरबारी उस सूर्य को पूज रहे हैं। फीनिशिया के पणि लोग सूर्य को 'बाल' कहते हैं। ईरान के लोग सूर्य को मिश्रास कहते थे। यह शब्द संस्कृत के 'मित्र' से मिलता है। सूर्य का एक नाम मित्र भी है। आर्मिनिया के लोग सूर्य देवता को घोड़े की बलि देते थे। सीरिया में सूर्य मंदिर का एक खम्बा शेष है। मिस्र में सूर्य के लिए 'रा' (रवि का ही एक रूप ) और 'कोसिरिस' यही दो नाम हैं। यूनान में सूर्य के आरेस, होलिओस, अपोलो नाम थे। सूर्य मनुष्य को रोगों से बचाता है, यह धारणा सभी प्राचीन देशों में रही है। एक बड़ी फैलने वाली बीमारी से उस सूर्य देव ने बचाया, इसलिए रोम में 'अपोलो' का मंदिर बनाया गया। यह बाईस सौ साल पुरानी घटना है। शक्ति के अद्भुत चमत्कार करने वाले हरक्यूलस को ग्रीक लोग अपोलो का ही अंश मानते थे । हमारे यहाँ वीर हनुमान भी जन्म लेते सूर्य के बिंब को फल समझकर तोड़ने और निगलने के लिए आकाश में छलांग लगाने लगे। आज भी समुद्र तट पर यूरोप अमेरिका में लाखों लोग सूर्य स्नान करते हैं।
जापान में शिंतो धर्म में सूर्य को स्त्री मानते हैं। सविता देवी के कई मंदिर बने थे। जापान का तो राष्ट्र ध्वज ही उगता हुआ सूर्य है। बौद्ध धर्म के प्रचार से पहले, राजवंश उसी की पूजा करता था। पेरू और मेक्सिको देशों में बड़े पुराने सूर्य मंदिर हैं। पेरू के इंका जाति के लोग अपने आप को सूर्यवंशी मानते थे। पेरू में सबसे अधिक सूर्य मंदिर हैं।
सूर्य दक्षिण की ओर जाता है, और फिर उत्तर की ओर उसके लिए सोने के सिंहासन बनाये जाते थे। कई आदिवासी पहला शिकार सूर्य को चढ़ाते हैं । अरब देशों में वेदुइन लोग इस्लाय में पहले सूर्य की पूजा करके अपने काम पर निकलते हैं। वहाँ की भाषा में आफतान सूर्य है, फारसी में शम्स |
भारत में भी सूर्योपासना बहुत पुरानी मानी जाति है। ऋग्वेद में जो सूर्य, इन्द्र, वरूण, मफत आदि देवता थे, अब उनकी कोई मूर्तियाँ मंदिर नहीं हैं। समूचे भारत में केवल कोणार्क (उड़ीसा), मोढेरा (गुजरात), कटारमल (हिमाचल प्रदेश) और कश्मीर में सूर्य मंदिर के कुछ टूटे हिस्से बचे हैं। मूर्तियाँ दो चार ही मिली हैं। रायगढ़ (मध्य प्रदेश) में मंदा नदी के किनारे चट्टान पर एक सूर्य प्रतिमा मिली है। जिसमें हाथ उठाकर सूर्य नमस्कार करने वाला एक आदमी भी दिखाया गया है। ऐसी ही एक प्रतिमा दक्षिण में कालिक्ट से 56 मील दूर एडकल में है, उस पर 'स्वस्तिक' चिह्न है। मोएँ-जो-दड़ो (मुर्दों का टीला ) सिन्धु सभ्यता के उत्खनन में सूर्य के प्रतीक स्वस्तिक, चक्र, किरणों वाला गोला, औरव और सुपर्ण (गरुड़) पक्षी आदि मिलते हैं। वेद में भी सूर्य का उल्लेख इन्हीं प्रतीकों में मिलता है। यह उल्लेखनीय है कि मध्य प्रदेश के पश्चिमी क्षेत्र दशपुर (मन्दसौर) के मालवा में भी सूर्य मंदिर का निर्माण गुजरात के बुनकरों ने अपने परिश्रम की कमाई से करवाया था।
प्रजापति कश्यप और अदिति के आठ पुत्र थे- मित्र, वरुण, धाता, अर्यमा, अंश, भग, विवस्वान - आदित्य और मार्तण्ड अब सौर परिवार में और भी देवता जुड़ते गये उषस्, पूषन, अरूण, अश्विनी कुमार आदि । 'विष्णु' विश् धातु से बना है- फैलने वाला या आकाश का नीला रंग उसका अर्थ होता है। इधर विष्णु और सूर्य एक माने गये। तो उधर शैवों ने रुद्र और सूर्य को भी एक बना डाला। विष्णु के चक्र और कमल सूर्य के प्रतीक थे। सूर्य ने अपने दोनों हाथों में सूरजमुखी या सूर्य-कमल धारण किये। पूर्व और उत्तर की सूर्य - प्रतिमाएँ जूते पहनने वाले सात घोड़ों के रथ में विराजे सारथी की हैं। तो दक्षिण में वह जूते नहीं पहनता, उसके दोनों हाथों में कमल हैं। काण्ड - ग्रह्मसूत्र' नामक धर्म-ग्रंथ में नये जन्में बच्चे को सूर्य का दर्शन कराया जाता है। 'मानव ग्रह्मसूत्र' में बच्चा चार महिने का होने पर सूर्य का प्रतीक एक 'स्थालिका' (थाली) अर्पित की जाती है, सूरज देवता को जब उपनयन (जनेऊ) होता है तो सूर्य को साक्षी रखकर 'यज्ञोपवित' पहनते हैं । श्रवण कुमार के माता-पिता संध्या करते थे, लंका जाते हुए वीर हनुमान ने भी सूर्य वन्दना की ऐसी बाल्मीकि रामायण में लिखा है। महाभारत वनपर्व में सूर्य को दैवेश्वर कहा गया है और 108 नाम दिये हैं।
शक - कुषाण (सीथियन) राजा सूर्य पूजक थे। शुंग काल से सूर्य की मूर्तियाँ मिलने लगी चार घोड़े के या एक घोड़े के रथ में ये सूर्य की मूर्तियाँ हैं। रथ के चक्के के नीचे अंधेरे का राक्षस कुचला जा रहा है, अरूण सारथी है, सूर्य की दो पत्नियाँ ऊषा - प्रत्यूषा (संध्या) दोनों ओर हैं, ऐसी भी मूर्तियाँ मिलती हैं। अब सिक्कों पर भी सूर्य आने लगे। 'हुविष्क' और 'कनिष्क' के सिक्कों पर सूर्य हैं। मनुष्य देहधारी मिथामिहिर मुद्राएँ मिलती हैं। पहले यह संकेत था कि सूर्य का पैर ढंका होना चाहिए। कनिष्क के सिक्के पर पैरों में जूते (ऊंचेबूट) पहने हुए सूर्य हैं। उस सिक्के पर कमर से पैर तक लटकी सूर्य की तलवार है, और सिर के आस-पास आभा मण्डल भी है।
गुप्त काल में 'सौर पुराण' लिखे गये। 'भविष्य पुराण' में सांव (कृष्ण के पुत्र) ने मैत्रेय वन में सूर्य की उपासना की, जिससे उसका कोढ़ रोग अच्छा हो गया, ऐसा उल्लेख है। 'मग' जाति के ब्राह्मण सूर्य पूजक थे और वे शाकद्वीप में रहते थे। मार्कंडेय, अग्नि, गरुड़ स्कंद आदि अमेक पुराणों में सूर्य-पूजा की कई कहानियाँ हैं। 'सांब पुराण' में विश्वकर्मा के मूर्ति-विधान का उल्लेख है। कोणार्क के मंदिर के बारे में बहुत किताबे लिखी गई हैं।
इस सूर्य के रूप-रंग - गुण का वर्णन 'ऋग्वेद' और अन्य वेदों में भी बहुत है, वह आकाश का अलंकार है। उसी ने इस सारे आकाश या 'लोक' को उठा रखा है। सूर्य देवता का सुन्दर मुख है। वह मित्र, वरुण, अग्नि की आँख है। विश्वदर्शन सूर्य यानी सूर्य दुनियां की सब बातों की चौकसी रखता है, आदमियों का अच्छा-बुरा सब देखता रहता है। वह दुनियां के सब लोगों को जगाता है। वह विश्व का पुरोहित है। उसकी आँखें हाथ, जीभ, भुजाऐं सोने की हैं। उसके बाल भी सुनहरे हैं। उसका रथ भी सोने का है।
इस सूर्य की चार पत्नियाँ थी- ऊषा, प्रत्युषा, संज्ञा और छाया मत्स्य पुराण में इनके नाम राज्ञी, सवर्णा, छाया, सुवर्चसा दिये हैं। विक्षुभा या निक्षुभा भी एक नाम मिलता है। राज्ञी तो रानी है इसलिए इस नाम में कोई अर्थ नहीं। मराठी शोधकर्ता ढेरे ईरानी में मिश्रा (सूर्य) की दो रानियाँ रश्न और मर्शेफ (नफती) के आधार पर रश्न का 'राज्ञी' और नशेफ का 'निक्षुभा' बना होगा, ऐसा मानते हैं। राजस्थान में इसे ही रैणा देवी और खानदेश में रणादेवी कहते हैं।
संज्ञा से सूर्य को नासत्य और दस ( अश्विनी कुमार ) ये दो पुत्र हुए। संज्ञा के और पुत्र मनु, यम, यमुना भी हुए। छाया के पुत्र हैं मनु, शनि, तपती और विष्टी प्रभा का पुत्र प्रभात और राज्ञी का रेवत हुआ। वैसे कर्ण को भी सूर्य पुत्र कहा जाता है।
सूर्य परिवार में अरूण सारथी है। उसका बड़ा भाई माना जाता है। राजा और श्रोष उसके दंडधारी हैं। पिंगल सूर्य का लिखने वाला है, कल्माष और कई पक्षी उसके द्वारपाल हैं।
हरिवंश और मत्स्य पुराण में कथा है कि विश्वकर्मा (वैसे भुवन पुत्र विश्वकर्मा, वसुपुत्र विश्वकर्मा, सुधन्वा विश्वकर्मा और भृगुवंशी मय विश्वकर्मा ऐसे चार विश्वकर्मा का उल्लेख आता है) की पुत्री संज्ञा का विवाह सूर्य से करा दिया गया। पर सूर्य का तेज इतना अधिक था कि उसने सूर्य को छोड़ दिया और वह अश्विनी बन कर भाग गई। सूर्य भी अश्व बन गया। इसी से अश्विनी कुमार दो पुत्र हुए। दूसरी कथा यह है कि त्वष्टा (विश्वकर्मा) में सूर्य को रंदे से घिस कर साफ-सुन्दर बनाया। पर उसके पैर वह साफ नहीं कर पाया और सूर्य लंगड़ा रह गया। सूर्य, अरूण, शनि, यम ये सब 'अपाद' हैं। ऐसा कुछ पुराणों में लिखा है कि इनकी मूर्तियाँ बिना पैरों के बनाना चाहिये। दैत्यों ने चक्रतीर्थ पर यज्ञ किया, उसका प्रसाद (पुरोदाश) सूर्य ने ग्रहण किया, तो सूर्य के हाथ गल गये। बाद में अष्टाचक्र के कहने से उसी तीर्थ में नहाने से उसे सोने के हाथ मिले। ये सब पुराण कथाएँ काफी प्रतीकार्थ रखती हैं।

-- डॉ. दुर्गा शर्मा, 'अमरकुटी' 35 जाटों का बास, रतलाम