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भारतीय संस्कृति का प्रतीक गायत्री मंत्र

भारतवर्ष में गायत्री की महिमा का गान द्विजातियों द्वारा अनादिकाल से होता आ रहा है। यह मंत्र त्रयी में प्रतिष्ठित है। ऋग्वेद के 3/62/10 वें मंत्र में ऋक् रूप से; यजुर्वेद के 3 / 35 वें, 30 / 2 एवं 36 / 3 मंत्र में यजुः रुप से तथा सामवेद के उत्तराचिक के 13वें अध्याय के तृतीय खण्ड के 3 मंत्र में समरूप से उपलब्ध है। इस मंत्र प्रवर के ऋषि विश्वामित्र हैं और देवता सविता है । अन्य वैदिक मंत्रों के समान यह भी एक मंत्र है। किन्तु गायत्री छंद में ग्रथित होने के कारण यह गायत्री नाम से लोक में विश्रुत हुआ है एवं सविता से सम्बंध होने के कारण यह सावित्री भी कहलाता है। इस मंत्र में तीन पद हैं। अक्षर चौबीस होने चाहिये, किन्तु एक कम होने से इसकी संज्ञा निचृद गायत्री है। तथापि "वरेण्यम् ” शब्द को "वरेणियम " इसमें चौबीस अक्षर मानने की विद्वानों की सम्मति रही है।
गायत्री मंत्र का सुगम अर्थ यह है कि "हम सब जगत् सृष्टा उस देवता के वरण करने योग्य तेज का ध्यान करते हैं, जो हमारी बुद्धियों को प्रेरित करे।" प्रकृति के साम्राज्य में बुद्धि की सत्ता सर्वशिरोमणि है। प्रवृत्तिमार्गियों को इसी की कुशाग्रता से त्रिवर्ग की प्राप्ति सुलभ हो जाती है एवं निर्वत्तिमार्गियों की इसी की निर्मलता से मुक्ति-पद्वी भी अनायास मिल जाती है। वे दोनों मार्गवाले अपने-अपने भावनानुसार परमात्मा से प्रेरित बुद्धि होकर यथेष्ट सुख लाभ करते हैं।
इस मंत्र की अधिष्ठात्री देवी की पंचमुखी और दशभुजा है। वे आराधकों की सफल कामनाओं की पूरिका है। शतपथ ब्राह्मण तैत्तिरियारण्यक में श्री गायत्री की चर्चा की गई है। उपनिषद में भी इसकी उपासना है। छंदोग्यं (3/12/1 ) का वचन है कि यह जो कुछ है, सब गायत्री है। गायत्री के चमत्कार से प्रभावित होकर ऋषि-मुनियों ने इसकी भूरि-भूरि प्रशंसा की है। आदि कवि वाल्मीकि ने अपनी रामायण के चौबीस सहस्त्र श्लोकों की रचना गायत्री के चौबीस वर्णों को लेकर की। वेद व्यास कृष्णा द्वैपायन ने अपने पुराण मुकुटमणि श्री मद्भागवत महापुराण में गायत्री का वर्णन किया तथा दर्शनशिरोमणि वेदांत दर्शन ने गायत्री द्वारा परब्रह्म ही प्रतिपादन को सिद्ध किया। मनु महाराज की सम्मति है कि तीन वर्षों तक सावधान रहकर गायत्री का जप करते रहने से जापक को परब्रह्म की प्राप्ति होती है। इस मंत्र को जपते समय प्रणव और तीन व्याहृतियों को भी मंत्र से पूर्व बोलने का सनातन सम्प्रदाय है । प्रणव परमात्मा का आदिम नाम है, जिसका अर्थ है "रक्षा करने वाला" । तीनों व्याहृतियों का अर्थात् भूः भुवः स्वः का क्रमश: अर्थ है सत्-चित्-आनंद् । प्रपन्नरक्षाविचक्षण सच्चिदानंद जगदुदयलील परमात्मा का ध्यान करते हुए गायत्री का जप करने वाले साधक विधूतकल्पष होकर सनातन ब्रह्म को प्राप्त होते हैं।
परमात्मा का ध्यान अभेद-भावना से भी किया जाता है, और भेद-भावना से भी। अभेदवादी विद्वान् जीव ब्रह्म के भेद को अविद्याजनित मानते हुए अभेद को ही तात्विक मानते हैं और गायत्री के जप के समय इसी वृत्ति को लेकर ब्रह्म ध्यान में परायण होते हैं एवं भेदवादी भावुक भक्त जीवेश्वर में तात्विक भेद मानते हुए उपसायदेव की ध्यानमयी उपासना में प्रवृत्त होते हैं।
ध्यैयः सदा सवितृमण्डलमध्यवर्ती, नारायणः सरसिजासनसन्निविष्ट: ।
केयूरवान् मकरकुण्डलवान् किरीटी, हारी हिरण्मयवपुर्धृतशङखचक्रः ।।
इस श्लोक के अनुसार आदित्य के अंतर्यामी, कमला-सनासीन कटक - कुण्डल- किरीट-केयूर - विभूषित, हार पहने हुए, शङ्खचक्र-धारी, पीताम, परमात्मा श्रीमन्नारायण का ध्यान करते हुए गायत्री जप करते हैं।
संस्कृति वही उचल है, जिसमें मानव मात्र को ऐहिक सुख व अभ्युदय का लाभ हो तथा आमुष्मिक आनंद या निःश्रेयस की प्राप्ति हो । भारत की संस्कृति की मूलभित्ति थी धर्म, जो संसार के अर्थमय एवं काममय सुख में संयत प्रोज्जवलता लाता हुआ अंत में जीव को परमानंद की प्राप्ति करा देता था । गायत्री उसी संस्कृति का प्रतीक है।
निरीश्वरवाद में बनी हुई अच्छी से अच्छी संस्कृति मनुष्य को भौतिकता के गर्त से बाहर नहीं निकाल सकती। प्राचीन वैदिक संस्कृति ईश्वरवाद ओतप्रोत था । वैदिक कालीन ऋषि-मुनि उस जगत्प्रसवित्री शक्ति के सम्मुख नतमस्तक होकर अपने कल्याण की कामना करते थे। उन्होंने जैसे अपनी बुद्धि को ईश्वराधीन कर दिया हो ।
आज राजनीति के आकाश में ईश्वरपराङमुखता की आंधी से प्रेरित अविश्वास की घटाऐं घिर रही हैं, जिनसे अशांति की वर्षा की आशंका है। संस्कृति की रक्षा चाहने वालों को अब सामूहिक रूप में गायत्री जप का आयोजन कराना चाहिये, जिसके परिणामस्वरूप मंगलमय श्रीभगवान् देश की बुद्धि को सन्मार्ग में प्रेरित करें।

-- डॉ. दुर्गा शर्मा, 'अमरकुटी' 35 जाटों का बास, रतलाम