साझा सरोकार से थमेगा बालिका वधु का संसार
दुनियाभर में प्रतिदिन बाल विवाह के कारण 60 से अधिक लड़कियों और दक्षिण एशिया में प्रतिदिन 6 लड़कियों की मौत होती है। अंतर्राष्ट्रीय बालिका दिवस पर जारी एक नए विश्लेषण में दावा किया गया है कि बाल विवाह, गर्भधारण व बच्चे को जन्म देने के कारण प्रतिवर्ष लगभग 22 हजार लड़कियाँ मर रही हैं। 'सेव द चिल्ड्रन' नामक रिपोर्ट में कहा गया है कि दक्षिण एशिया में प्रतिवर्ष बाल विवाह से जुड़ी 2 हजार मौतें होती हैं। इसके बाद पूर्वी एशिया और प्रशांत क्षेत्र में प्रतिवर्ष 650 और लैटिन अमेरिका तथा कैरेबियाई देशों में प्रतिवर्ष 560 मौत होती हैं। रिपोर्ट के अनुसार पिछले 25 वर्षों में दुनियाभर में लगभग 80 मिलियन बाल विवाह रोक दिए गए थे, लेकिन कोविड-19 महामारी से पहले ही इसमें प्रगति रूक गई और महामारी में असमानताओं को गहरा कर दिया है, जिससे बाल विवाह में वृद्धि हुई। स्कूलों के बंद होने, स्वास्थ्य सेवाओं पर दबाव और परिवारों के गरीबी की ओर बढ़ने के कारण महिलाओं और लड़कियों पर लाकडाउन के दौरान हिंसा का खतरा बढ़ा है। 2030 तक एक करोड़ और लड़कियों की शादी होने की संभावना है, यानी और लड़कियों के मरने का खतरा है।
यह रिपोर्ट हमारे सामाजिक जीवन के उस स्याह पहलू की ओर संकेत करती है, जिसे अक्सर हम रीति-रिवाज व परम्परा के नाम पर अनदेखा करते हैं। तीव्र आर्थिक विकास, बढ़ती जागरूकता और शिक्षा का अधिकार कानून लागू होने के बाद भी अगर यह हाल है तो जाहिर है कि बालिकाओं के अधिकारों और कल्याण की दिशा में अभी काफी कुछ किया जाना शेष है। बाल विवाह न केवल बालिकाओं की सेहत के लिहाज से, बल्कि उनके व्यक्तिगत विकास के लिहाज से भी खतरनाक है। शिक्षा जो कि उनके भविष्य का उज्वल द्वार माना जाता है, हमेशा के लिए बंद हो जाता है। शिक्षा से वंचित रहने के कारण वह अपने बच्चों को शिक्षित नहीं कर पाती और फिर कच्ची उम्र में गर्भधारण के चलते उनकी जान को भी खतरा बना रहता है। बाल विवाह लड़कियों के खिलाफ यौन और लैंगिक हिंसा का सबसे खराब और जानलेवा रूप है। प्रतिवर्ष लाखों लड़कियों को ऐसे पुरुषों से शादी करने के लिए विवश किया जाता है, जो उनसे उम्र में कहीं अधिक बड़े होते हैं, जिससे उनके सीखने, बचपन जीने और कई मामलों में जीवित रहने का अवसर छिन जाता है। बच्चे को जन्म देना किशोरियों के लिए पहले नंबर का हत्यारा है। क्योंकि उनकी कम उम्र बच्चे को जन्म देने के लिए तैयार नहीं होती। बच्चियों के बच्चे पैदा करने के स्वास्थ्य खतरों को नज़रअंदाज नहीं किया जा सकता।
प्रसिद्ध चिकित्सा शास्त्री धन्वन्तरि ने कहा था कि बाल विवाहित पति-पत्नी स्वस्थ एवं दीर्घायु संतान को जन्म नहीं दे पाते। कच्ची उम्र में माँ बनने वाली ये बालिकाएं न तो परिवार नियोजन के प्रति सजग होती हैं और न ही नवजात शिशुओं के उचित पालनपोषण में दक्ष। कल मिलाकर बाल विवाह का दष्परिणाम व्यक्ति, परिवार को ही नहीं बल्कि समाज और देश को भी भोगना पड़ता है। जहाँ एक ओर कानून द्वारा शादी की निर्धारित उम्र में शादी नहीं हो पाना चिंता का विषय है, तो दूसरी ओर 18 वर्ष की उम्र में लड़कियों का विवाह होने से उनकी शिक्षा व स्वास्थ्य पर पड़ता बुरा असर भी कम चिंताजनक नहीं है। समानता को देखते हुए सरकार द्वारा लड़कियों की शादी की उम्र 21 साल की जाएगी तो वे न तो शिक्षा से वंचित रहेगी और न ही असुरक्षित मातृत्व का शिकार होगी, बल्कि इससे देश की आबादी पर भी लगाम लगेगी। भारत के बड़े शहरों में लड़कियों की पढ़ाई और करियर के प्रति बदलती सोच की बदौलत उनकी शादी अमूमन 21 साल की उम्र के बाद ही होती है। यानी इसका सबसे ज्यादा असर छोटे शहरों, कस्बों और गाँवों में होगा। जहाँ लड़कों के मुकाबले लड़कियों को पढ़ने और नौकरी करवाने पर जोर कम है, परिवार में पोषण कम मिलता है।
बाल विवाह एक ऐसी कुरीति जिसमें दो अपरिपक्व लोगों को जो आपस में बिलकुल अनजान हैं, उन्हें जबरन जिंदगी भर साथ रहने के लिए एक बंधन में बांध दिया जाता है और वे दो अपरिपक्क बालक शायद पूरी जिंदगी भर इस कुरीति से उनके ऊपर हुए अत्याचार से उभर नहीं पाते हैं और बाद में स्थितियाँ बिल्कुल खराब हो जाती हैं और नतीजे तलाक और मृत्यु तक पहुँच जाते हैं। दरअसल कुछ लोग अपनी लड़कियों की शादी कम उम्र में सिर्फ इसलिए कर देते हैं कि उनके ससुराल चले जाने से दो जून की रोटी बचेगी। रिपोर्ट के अनुसार गरीबी, लड़कियों की शिक्षा का निम्न स्तर, लड़कियों को आर्थिक बोझ समझना, सामाजिक प्रथाएं एवं परंपराएं बाल विवाह के प्रमुख कारण हैं। वहीं कुछ लोग अंधविश्वास के चलते लड़कियों की शादी कम उम्र में कर रहे हैं। यह हमारी सामूहिक विफलता है कि इस सदी में भी मानवता के खिलाफ ऐसा प्रचलित और चिरस्थायी अपराध है। वे सभी जो समाधान का हिस्सा नहीं हैं, उन्हें खुद को समस्या का हिस्सा समझना चाहिए। बच्चों और विशेष रूप से बालिकाओं को उनके सीखने के मूल अधिकार और एक खुशहाल और बेफिक्र बचपन का आनंद लेने से वंचित करना मानवाधिकारों की अवमानना है और इसकी निंदा करने की आवश्यकता है। इसे एक सांस्कृतिक तत्व के रूप में खारिज नहीं किया जाना चाहिए और इसके बजाय इसे जीवन और स्वतंत्रता के मूल अधिकार से इन्कार के रूप में देखा जाना चाहिए।
हमें समझना होगा कि बाल विवाह एक सामाजिक समस्या है। अत: इसका निदान सामाजिक जागरूकता से ही संभव है। इसलिए समाज को आगे आना होगा। सरकार को बालिकाओं को प्राथमिकता देनी चाहिए और यह सुनिश्चित करना चाहिए कि वे बाल विवाह और समय से पूर्व बच्चे को जन्म देने से होने वाली मौतों से बची रहें। यह तभी हो सकता है जब लड़कियों को प्रभावित करने वाले फैसलों में उनकी भूमिका हो। सरकार द्वारा गठित टास्क फोर्स को लड़कियों की शादी की उम्र बढ़ाने पर फैसला उनकी शिक्षा और स्वास्थ्य और रोजगार को ध्यान में रखते हुए ही करना चाहिए।
-- -देवेन्द्रराज सुथार, जालौर