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मौत की डगर पर मासूम

कोरोना महामारी के दौरान स्कूल बंद होने के कारण बच्चों की पूरी पढ़ाई मोबाइल के जरिए होने लगी। लेकिन कई बच्चे पढ़ाई न कर मोबाइल में गेम खेलकर टाईम पास करते हुए देखे गए। नतीजतन साइड इफेक्ट के रूप में बच्चों द्वारा आत्महत्या के मामले लगातार सामने आने लगे। पिछले दिनों मध्यप्रदेश के छतरपुर शहर के सागर रोड़ निवासी विवेक पांडे का 13 वर्षीय पुत्र कृष्णा पांडे गेम खेल रहा था। जब माँ प्रीति ने गेम खेलने से रोका और स्वयं अपस्ताल में ड्यूटी पर चली गई तो इस दौरान बच्चे ने फाँसी लगाकर आत्महत्या कर ली।
कहते हैं माँ का दिल ममता से भरा होता है। पिता की डांट और मार से बचाने वाली माँ ही होती है। लेकिन यह घोर कलयुग है और यहाँ माँ अपनी ममता को मारकर अपने ही लाल के खून से अपने हाथ लाल कर सकती है। महाराष्ट्र के नासिक जिले में ऑनलाइन क्लास ठीक से अटेंड नहीं करने पर एक महिला ने अपने साढ़े तीन साल के बेटे की तकिए से मुंह दबाकर हत्या कर दी। बच्चे की हत्या के बाद महिला को अपने अपराध का अफसोस हुआ तो उसने भी फाँसी लगाकर खुदकुशी कर ली। गढ़वाल के श्रीनगर से सटे न्यू डांग क्षेत्र में नौवीं में पढ़ने वाले छात्र दिव्यांशु भंडारी ने स्कूटी न देने पर घर पर ही फाँसी लगाकर आत्महत्या कर ली। वह घर का इकलौता बेटा था। नोएडा के फेज टू कोतवाली क्षेत्र में स्थित एक सोसायटी में रहने वाला 15 साल का छात्र कोमल पब्जी गेम का शौकीन था। एक रात कोमल मोबाइल में पब्जी गेम खेल रहा था, इसी दौरान उसके पिता ने उसके हाथ से मोबाइल छीन लिया। इस बात से नाराज़ होकर कोमल ने घर के ही पास मौजूद निर्माणाधीन एक सोसायटी की ऊँचाई से छलांग लगा दी। ऊँचाई से गिरने से उसकी मौत हो गई।
इस तरह की घटनाएं सोचने पर विवश करती है कि आखिर बच्चों की मानसिकता इतनी बदल क्यों गई है कि छोटी-छोटी बातों पर बच्चे अपनी जान देने से भी पीछे नहीं हटते। इस उम्र के बच्चों-किशोरों द्वारा खुद की इहलीला खत्म करना हमारी उस व्यवस्था की ओर साफ इशारा है, जिसमें हम न तो भावी पीढ़ी को ऐसी शिक्षा प्रणाली दे पा रहे हैं जो उन्हें भयभीत न करे, न ही वह खुला सामाजिक वातावरण बना पाए हैं, जिसमें वे स्वस्थ तरीके से यौन या प्रेम जैसे कोमल भावों और अनुभूतियों को समझ पाएं। कुल मिलाकर एक खोखला समाज ही हम अपनी किशोर पीढ़ी को प्रदान कर रहे हैं, जिसमें उन्हें देने के लिए हमारे पास नैराश्य और अवसाद के अलावा कुछ भी नहीं है।
गौरतलब है कि भारत में हर दिन 31 बच्चे आत्महत्या कर रहे हैं। आंकड़ों के मुताबिक साल 2020 में 18 साल से कम उम्र के 11,396 बच्चों ने अपनी जीवन लीला समाप्त कर ली। यह संख्या 2019 के मुकाबले 18 फीसदी ज्यादा है। जानकारों का मानना है कि कोविड-19 महामारी ने उनके मानसिक स्वास्थ्य को काफी नुकसान पहुँचाया है। इसके कारण बच्चों की आत्महत्याएं बढ़ीं। एनसीआरबी की रिपोर्ट के मुताबिक, बच्चों की आत्महत्या का यह आंकड़ा दो साल पहले के मुकाबले 21 फीसदी ज्यादा है। 2019 में 9,613 और 2018 में 9,413 बच्चों ने आत्महत्या की। यानी इन दो वर्षों में यह दुःखद संख्या लगभग 200 बढ़ गई। लेकिन 2020 के दुर्भाग्यपूर्ण समय में इससे 1,783 ज्यादा बच्चों ने अपनी जान ली। इस लिहाज से जहाँ इन दो सालों में 2.12 फीसदी की बढ़ोतरी हुई, वहीं 2020 में यह करीब आठ गुना तेजी से बढ़ी है। इस साल मरने वाले बच्चों में 5,392 लड़के और 6,004 लड़कियाँ हैं। लड़कियों की संख्या अधिक होने के पीछे पारिवारिक तनाव और प्रेम संबंधों में असफलता को कारण बताया गया है।
दरअसल टूटते संयुक्त परिवार, कामकाजी माता-पिता द्वारा बच्चों की छोटी-छोटी समस्याओं पर ध्यान न देना, टी.वी. और इंटरनेट तक आसान पहुँच ने बच्चों को स्वभाव से जिद्दी और उग्र बना दिया है। वे हर चीज़ में अव्वल रहना चाहते हैं। वे किसी भी तरह का अपमान, डांट बर्दाश्त नहीं कर सकते। पहले 10-12 साल के बच्चों को मृत्यु का अर्थ या उसके स्वरूप के बारे में कोई जानकारी नहीं थी, लेकिन अब टी.वी. और इंटरनेट की आसान पहुँच ने बच्चों को समय व उम्र से पहले ही अधिक संवेदनशील और जल्दी बड़ा बना दिया है। गलत संगति व संस्कारों की कमी के कारण बच्चे प्रेम संबंधों और नशे में लिप्त होते जा रहे हैं। आज के दौर में बच्चों में सहनशक्ति की कमी है। उन्हें किसी के द्वारा रोकना-टोकना पसंद नहीं है। इसलिए जरूरी है कि माता-पिता बच्चों को हर परिस्थिति में सहनशील होना सिखाएं। हर बात पर जल्दी प्रतिक्रिया देने के बजाय समझदारी और शांति से काम लें।
प्यार, यौन संबंध, दोस्ती, लड़के और लड़कियों के बीच सामाजिक संबंधों को लेकर समाज के भीतर कई वर्जनाएं और भ्रम हैं। आज हमारा समाज पहले की तुलना में अधिक खुला है, लेकिन इन विषयों पर विकृतियाँ पूर्ववत बनी हुई हैं। जब तक शिक्षक और माता-पिता जीवन से जुड़े इन प्राकृतिक आयामों पर वैज्ञानिक और आधुनिक दृष्टिकोण विकसित नहीं करते, तब तक दो पीढ़ियों के बीच यह संघर्ष जारी रहेगा. जो इस तरह की आत्महत्याओं में परिणत होगा। छोटे बच्चों द्वारा अपने हाथों अपना जीवन समाप्त करना यह दर्शाता है कि हमारी सामाजिक व्यवस्था में कई कमियाँ हैं, जिन्हें दूर करने की आवश्यकता है। कच्ची उम्र में इस तरह की मौत न केवल मनोचिकित्सकों या समाजशास्त्रियों के अध्ययन का विषय है, बल्कि हमारी अर्थव्यवस्था और सरकार की नीतियाँ व कार्यक्रम बनाने वालों के लिए भी विचारणीय विषय है।
समझना होगा कि छोटे बच्चे अक्सर आवेग में आकर आत्महत्या करने का प्रयास करते हैं। वे उदासी, भ्रम, क्रोध, परेशानी, कठिनाई आदि नकारात्मक प्रभावों से जूझ रहे होते हैं। कई बार बच्चे अपने अपमान या उनकी मांगों को खारिज करने जैसी बातों को स्वीकार नहीं कर पाते हैं। बच्चों के व्यवहार में किसी भी तरह के बदलाव का पता लगाने के लिए घर के साथ स्कूल में भी उन पर नज़र रखना जरूरी है। कुछ किशोर आत्महत्या को समस्याओं के समाधान के रूप में लेते हैं जो किसी भी तरह से ठीक नहीं है। ऐसे में माता-पिता और शिक्षकों की जिम्मेदारी बनती है कि वे बच्चों की मन:स्थिति को ठीक से समझें और उसका उचित और तार्किक समाधान निकालें, ताकि देश का भविष्य कहे जाने वाले नौनिहालों का जीवन सुरक्षित रह सके।

-- -देवेन्द्रराज सुथार, जालौर