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अब न चूड़ियाँ टूटेंगी, न ही पोंछा जाएगा सिंदूर

हाल ही में महाराष्ट्र सरकार ने कोल्हापुर जिले की हेरवाड़ पंचायत को नजीर मानते हुए विधवा प्रथा को पूरे राज्य में समाप्त करने का आदेश दिया। दरअसल 4 मई को हेरवाड पंचायत में विधवा प्रथा को खत्म करने का प्रस्ताव रखा गया था, जो सर्वसम्मति से पारित भी हुआ। जिसके बाद पंचायत के ग्रामीणों ने यह तय किया कि अब गाँव में किसी के पति की मृत्यु हो जाती है तो उसके अंतिम संस्कार के बाद महिलाओं को चूड़ियाँ तोड़ने और माथे से सिंदूर पोंछने, मंगलसूत्र निकालने जैसे काम के लिए विवश नहीं किया जाएगा। महिलाओं को जागरूक कर पहले जैसा जीवन जीने को प्रेरित किया जाएगा। हेरवाड़ की तर्ज पर कोल्हापुर के मानगांव ने भी अपने यहाँ विधवा प्रथा को पिछले सप्ताह बंद करने का ऐलान किया था।
ये सच है कि आधुनिक होते समाज में आज भी विधवाएं अलगअलग प्रथाओं और सामाजिक प्रतिबंधों के कारण नारकीय जीवन जीने को विवश है। पति की मृत्यु के बाद विधवाओं को बेरंग जीवन जीना पड़ता है। उनके पहनने-ओढ़ने, साज-गंगार से लेकर उनके खान-पान और किसी प्रसंग-पर्व में शामिल नहीं होने जैसे कई सख्त प्रतिबंध आज भी समाज में जारी हैं। विधवाओं की इस स्थिति के पीछे समाज की सदियों पुरानी रूढ़िवादी सोच दोषी है जो उनके जीवन को जटिल बनाकर उन्हें समाज से कटा हुआ महसूस कराती है। विधवाओं पर लगाई जाने वाली ये पाबंदियाँ उनके स्वतंत्र जीवन एवं उनके अवसरों की समानता के अधिकार में बाधा खड़ी करती है। समाज में पुरुष प्रधानता होने के कारण महिलाओं और विधवाओं की इच्छा-अनिच्छा पर कभी ध्यान नहीं दिया गया और उन्हें सदैव पुरुषों के बनाए रास्ते पर चलने के लिए बाध्य होना पड़ा। कुछ सालों पहले सती प्रथा के नाम पर उनके साथ बर्बरता की सारी हदें लांघ दी गई। ऐसा मान लिया जाता था कि पति के मृत्यु के बाद विधवा स्त्री को जीने का कोई अधिकार नहीं है। लेकिन कानूनन इस प्रथा पर रोक लगी और समाज में आई जागृति ने इस प्रथा से अपना पीछा छुड़ा लिया। आज जब विधवा प्रथा के अंत की उद्घोषणा हो रही है तो सभी सभ्य समाजों के संभ्रांत लोगों को इसके सामूहिक अंत के बारे में अमल करना चाहिए। क्या पति की मृत्यु के बाद विधवा स्त्री को जीने, खाने-पीने और रहने का एक आम महिला की तरह अधिकार नहीं है। इस पर सोचा जाना चाहिए। जब किसी स्त्री की मृत्यु होने पर विधुर पति पर कोई नियम या पाबंदी लागू नहीं होती तब विधवा स्त्रियों पर इस तरह के प्रतिबंध लगाना नितांत ही समाज की दकियानूसी और भेदभावपूर्ण सोच का नमूना है।
आभूषण, टिक्की, माथे पर कुमकुम, कौन सा रंग पहनना है, यह एक महिला की व्यक्तिगत स्वतंत्रता का हिस्सा है। लेकिन परंपरा के नाम पर विधवा जीवन भर इससे वंचित रहती है। चाहे महिला किसी भी जाति की हो। यह एक ज्वलंत वास्तविकता है। देश में कुछ ऐसे इलाके भी हैं, जहाँ विधवाओं को अपशकुनी या चुडैल मान लिया जाता है। उत्तर व मध्य भारत और नेपाल के कुछ ग्रामीण इलाकों में ऐसी घटनाएं सुनने में आई हैं। ऐसे मामलों में स्थानीय पंचायतें भी कुछ नहीं कर पाती हैं। भारत में आज भी कुछ ऐसे इलाके हैं, जहाँ बाल विवाह और बेमेल विवाह की कुप्रथा बदस्तूर जारी है। मसलन राजस्थान के कुछ इलाकों में बहुत कम उम्र में लड़कियों की शादी कर दी जाती है। कई बार तो कम उम्र की लड़कियों का विवाह उनसे कई गुना ज्यादा उम्र के पुरुषों से कर दिया जाता है। ऐसे में जब ये लड़कियाँ जवान होती हैं, तब तक उनके पति बूढ़े हो जाते हैं। पति की मौत के बाद इन्हें बाकी जिंदगी विधवा बनकर गुजारनी पड़ती है। महिलाओं की मानसिक गुलामी का खत्म होगी? कई विचारकों और विशेषज्ञों का मत है कि जिस समाज में महिलाएं हर तरह से समृद्ध और स्वस्थ हैं, वहाँ समाज अपने सभी अंगों के साथ प्रगति कर रहा है, या यदि किसी समाज की प्रगति को मापा जाना है तो स्थिति क्या है उस समाज में महिलाओं की? लेकिन इस उपाय में महिलाएं कहाँ बैठती हैं? सभी प्रचलित धर्मों में नारी का स्थान गौण है। धर्म, जाति और परिवार की गर्भनाल नारी की पवित्रता से जुड़ी है। मनुष्य चाहे कुछ भी करे, उसकी पवित्रता भंग नहीं होती है। यह हमारा समाज है। सौभाग्य से यदि स्त्री के जीवन की यही दशा है तो विधवा के जीवन को काल कोठरी कहा जाना चाहिए। ग्रामीण क्षेत्रों में विधवा को शापित, अशुभ माना जाता है। उसका चेहरा देखकर समझा जा रहा है कि काम नहीं हो रहा है।
किसी भी समाज में महिलाओं की बेहतर स्थिति ही उसके विकास को प्रदर्शित करती है। महिलाओं के साथ जुल्म और अत्याचार करने वाला समाज विकसित और सभ्य नहीं कहा जाता। अत: विधवा प्रथा की आड़ में महिलाओं की स्वतंत्रता का हनन बंद होना चाहिए। उन्हें आम महिलाओं की तरह जीने का अधिकार मिलना चाहिए। ये बेमानी सोच है कि विधवा स्त्री अच्छे कपड़े पहनेगी और साज-शृंगार करेगी तो चरित्रहीन मान ली जाएगी। महिलाओं के चरित्र का निर्णय लेने वाला पुरुष प्रधान समाज स्वयं के चरित्र से गिर चुका है कि वो आजादी के इतने सालों के बाद भी खोखली मान्यताओं और कुरीतियों से आजाद नहीं हो पा रहा है। ये सही समय है कि महाराष्ट्र के एक गाँव से शुरू हुई इस प्रतिगामी पहल का स्वागत कर देश भर के सभी समाज विधवा प्रथा के उन्मूलन पर ध्यान आकर्षित करें। इतना ही नहीं विधवा प्रथा के उन्मूलन के लिए कानून बने और जो समाज विधवाओं को अभिशप्त जीवन जीने के लिए बाध्य करें उन्हें प्रावधान के तहत सख्त सजा मिले।

-- -देवेन्द्रराज सुथार, जालौर