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मन के साधे सब सधे

मन प्राणी शरीर का अदृश्य अंग है। जो दिखाई नहीं देता, किन्तु वह शरीर का सबसे शक्तिशाली हिस्सा है। मन के अंदर संपूर्ण दुनिया समाहित है। मन एक ऐसा पर्दा है जिस पर इच्छाएं प्रक्षेपित होती है। हमारे शरीर में इंद्रियाँ जो भी कार्य करती हैं वे मन के सहयोग से करती हैं। मन के बिना कोई भी इंद्रियाँ ज्ञान प्राप्त नहीं कर सकती। भारतीय शास्त्रों में मन के लिए 'मनस्' शब्द का प्रयोग किया गया है। जिसका अर्थ है- वे साधन या उपक्रम जो किसी घटना, विचार या ज्ञान के लिए मुख्य रूप से जवाबदेह होते हैं। मन का महत्व इसलिए अधिक है, क्योंकि यह ज्ञानेन्द्रिय और आत्मा को परस्पर जोड़ने वाली कड़ी है। जिसकी सहायता से ज्ञान की प्राप्ति होती है। अपने आप में निर्जीव तत्त्व जो है वह मन है। अर्थात् मन जड़ तत्त्व है, जिसमें रंग, स्पर्श, ज्ञान, आनंद और पीड़ा की कोई अनुभूति नहीं होती है। जब मन आत्मा के संसर्ग में आता है, तभी इसमें अनुभूति होती है। प्रत्येक आत्मा के साथ एक मन जुड़ा हुआ है। जो उसका आंतरिक सहायक माना जाता है। इसलिए आयुर्वेद में मन को 'सत्व' भी कहा गया है। जिस प्रकार ज्ञानेन्द्रियाँ ज्ञान प्राप्त करने का बाहरी साधन है, उसी प्रकार मन ज्ञान प्राप्ति का आंतरिक साधन है। कहावत है- 'मन के हारे हार है, मन के जीते जीत।' जब व्यक्ति अपने मन में यह सोच लेता है कि वो ये काम नहीं कर सकता तो वह अपने अंदर नकारात्मक गुण पैदा कर लेता है। और जब व्यक्ति ये सोच लेता है कि वो यह काम कर सकता है, तो वह अपने अंदर सकारात्मक गुण पैदा कर लेता है।
कई बार आपने अपने आसपास के लोगों को ये कहते सुना होगा और आपने खुद भी अक्सर कहा होगा कि आज मन नहीं है, आज मन खुश है और कभी-कभी आपने महसूस किया होगा कि आज मन उदास है। कई बार इस सवाल ने आपको बेचैन कर दिया होगा कि आखिर मन है क्या? मन का कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं होता। विचारों से संस्कार बनते हैं, संस्कारों से आदतें और आदतों से मन बन जाता है। यह मन मस्तिष्क में विचारों के रूप में ही कहीं छुपा होता है। मन की प्रकृति को भी समझने के कई प्रयास हुए हैं। मन को उस घोड़े की तरह भी दर्शाया जाता है, जो बेकाबू होने के बाद अपने सारथी को भी घसीटता हुआ ले जाता है। यहाँ सारथी हम है, जबकि मन कुछ और नहीं हमारे ही विचार, व्यवहार और संस्कार से बनी एक अदृश्य कृति है। पहले हम इसे बनाते हैं और फिर इसी के गुलाम हो जाते हैं। मन की गुलामी करते-करते हम खुद के अस्तित्व को भूल ही जाते हैं और फिर हर काम मन के इशारों पर करने लगते हैं। मन महत्वपूर्ण है अगर यह आपके लिए काम करता है, लेकिन यह घातक हो सकता है। अगर आप पर इसका शासन हो जाए तो। शरीर के विषय में तो अब विज्ञान ने बहुत से तथ्य जुटा लिए हैं। हम जानते हैं कि शरीर के अंग कैसे काम करते हैं? एक-एक नाड़ी तक की ठीक-ठीक जानकारी अब हमारे पास मौजूद है। आप दिमाग की तस्वीर तो बना सकते हैं. लेकिन उसमें चलने वाले विचारों को प्रदर्शित कर पाना असंभव है। विचारों के शरीर पर पड़ने वाले प्रभावों को हम पढ़ सकते हैं। तनावग्रस्त होने पर रक्तचाप का बढ़ जाना, प्रसन्नता का शरीर पर पड़ने वाला प्रभाव आदि बातों को हम यंत्रों के माध्यम से समझ सकते हैं। विचार क्या है इसे पढ़ पाना न तो संभव हुआ है, न ही आने वाले समय में हो पाएगा। इसका स्वरूप बना पाना मुश्किल है, लेकिन इसका अनुभव हम सब चौबीस घंटे करते हैं। इन्हीं विचारों से हमारी स्मृति बनती है और फिर इन्हीं से हमारा मन।
एक बार एक साधक ने कन्फ्यूशियस से पूछा - मैं मन पर संयम कैसे रखू?' कन्फ्यूशियस ने उस व्यक्ति से पूछा 'क्या तुम कानों से सुनते हो?' साधक ने कहा 'हाँ, मैं कानों से ही सुनता हूँ।' तब कन्फ्यूशियस ने कहा- मैं नहीं मान सकता, तुम मन से भी सुनते हो और उसे सुनकर अशांत हो जाते हो। इसलिए आज से केवल कानों से सुनो। मन से सुनना बंद कर दो। तुम आँखों से देखते हो, वह भी मैं मान नहीं सकता आज से तुम केवल आँख से देखना और जीभ से चखना आरंभ करो। मन पर अपने आप संयम हो जाएगा। गीता में श्री कृष्ण ने अर्जुन से कहा - 'मन एव मनुष्याणां कारणं बंधमोक्षयोः।' अर्थात् यदि मन तुम्हारा स्वामी है और तुम उसके अधीन हो तो वह तुम्हें मोह-माया के बंधनों में जकड़ता रहेगा। और जब तुम मन को वश में कर लोगे तो उसके स्वामी हो जाओगे और वही मन तुम्हें मोक्ष के द्वार तक ले जाएगा। विवेकानन्द कहते हैं - मन को नियंत्रित करो, क्योंकि मन एक लय की तरह है। जहाँ गिरने वाला हर पत्थर एक लहर पैदा करता है। हम इन तरंगों को नहीं देखते हैं। संत कबीर के अनुसार 'मन मूर्ख है, लोभी है, चंचल और चोर है।' यदि मन बेलगाम हो जाए, तो यह हमें विनाश के मार्ग पर ले जाता है। इसलिए मन पर नियंत्रण रखना परम आवश्यक है। मन पर विचारों का प्रभाव होता है। अत: जैसे हमारे विचार होंगे, वैसा ही हमारा मन भी होगा।
लब्बोलुआब यह है कि मन के साधे सब सधे। मन को साध लिया तो फिर कुछ भी साधना शेष नहीं रह जाता। मन सत्य की प्राप्ति में सबसे बड़ा अस्त्र भी बन सकता है और सबसे बड़ी बाधा भी। अगर मन आपके काबू में है तब तो यह अस्त्र का काम करेगा और अगर आप मन के काबू में हैं तो यह सबसे बड़ा शत्रु हो जाएगा। मन की चंचलता का अनुभव हम सभी को है। कभी यह सत्य को पाने के लिए लालायित रहता है तो दूसरे ही पल फिर दुनिया में गुम हो जाता है। अत: हम मन की चेष्टाओं को नियंत्रित करें तो हम अपने जीवन की सभी स्थितियों को वश में कर सकते हैं।

-- -देवेन्द्रराज सुथार, जालौर