सावन की फीकी पड़ती चमक
हमारा देश समृद्ध परम्पराओं का देश है। कई परम्पराओं ने देश को एक विलग सांस्कृतिक पहचान दी है। परम्पराओं और रूढ़ियों के बीच एक मूलभूत भेद यह है कि परम्पराओं के पीछे एक तर्क होता है और उनका सामाजिक मूल्य होता है, जबकि रूढ़ियाँ अतार्किक होती हैं और उनका कोई सामाजिक मूल्य नहीं होता है। भारत में सावन से जुड़ी भी कई परम्पराएं रही हैं। जिसमें कजरी गाकर झूला झूलना, हिना लगाना और हरी चूड़ियों से रूप सज्जा करना प्रमुख है। ऐसा माना जाता है कि जब भगवान् श्री कृष्ण मथुरा गए थे, तो गोपियाँ उनके वियोग में गीत गाती हुई झूला झूलती थी और परस्पर अपना दुःख बांटती थी। तभी से सावन में झूला झूलने की परम्परा चली आ रही है। इसके अलावा सावन में विवाहित महिलाओं के मायके जाने की भी प्रथा है। अपने मायके में वे अपनी पुरानी सखियों के साथ मिलकर खूब अठखेलियाँ करती थी और झूला झूलकर गाने गाती थी। उनकी यह प्रथा प्रकृति के भी सन्निकट थी। जिसे गीतों के जरिए समझा जा सकता है। हिन्दी के प्रत्येक माह की अपनी महक है। सावन और भादो का महीना हमें प्रकृति के करीब ले जाता है। झूला झूलने के दौरान गाए जाने वाले मधुर गीत मन को सुकून देने वाले होते हैं।
प्रतीक्षा, मिलन और वियोग की शाश्वत सहेली, सौंदर्य और लज्जा से सुशोभित नवयौवन की नभ छूती खुशी, अनादिकाल से कवियों की रचनाओं को शोभायमान करने वाली लोकगीतों की रानी कजरी आधुनिकता की चकाचौंध से बिसरा दी गई है। पेड़ों की डालियों पर पड़ने वाले झूले और महिलाओं द्वारा गाए जाने वाली कजरी अब आधुनिक परम्परा और जीवनशैली में तिरोहित सी हो गई हैं। एक दशक पहले तक सावन शुरू होते ही ग्रामों में कजरी की जो जुगलबंदी होती थी, वह अब कहीं दिखाई नहीं देती। घर की महिलाएं और युवतियाँ भी झूले पर कजरी गायन करती नज़र आती थी, लेकिन अब ऐसा कुछ नहीं है। सावन की शुरुआत से ही कजरी के बोल और झूले ग्राम-ग्राम की पहचान बन जाते थे। झूला पड़ा कदम की डारी झूले कृष्ण मुरारी ना... के बोल से शुरू होने वाली कजरी दोपहर से शाम तक झूले पर चलती रहती थी। कजरी गाने में पुरुष भी पीछे नहीं थे। सूर्यास्त के बाद कजरी गायन की टोली गाँव में जमा हो जाती थी। कजरी का दौर देर रात तक चलता रहता था। पूर्वी उत्तर प्रदेश के जिलों में कजरी बहुत लोकप्रिय हुआ करती थी, लेकिन अब इसे जानने वाले लोग गिने चुने रह गए हैं। समय बीतने के साथ पेड़ गायब हो गए हैं और बहुमंजिला इमारतों के निर्माण के साथ घर के आंगन का अस्तित्व लगभग समाप्त हो गया है। ऐसे में सावन के झूले और कजरी गीत भी इतिहास बनकर हमारी परम्परा से गायब हो रहे हैं। आधुनिकता की दौड़ में प्रकृति के संग झूला झूलने की बात अब दिखाई नहीं देती।
प्रकृति के साथ जीने की प्रथा थमी जा रही है और झूले का दौर भी अब खत्म हो रहा है। मौसम के बदलते मिज़ाज के कारण देश के कई राज्यों में अतिवृष्टि कहर बरपा रही है तो कई राज्य ऐसे भी हैं जो बूंद-बूंद के लिए तरस रहे हैं। मौसम में आई अनिश्चितता निश्चित ही एक बड़ी चिंता का कारण है। जाने क्यों बरखा में बरखा होती आज नहीं, लेकिन जब होती है बरखा थमती तनिक नहीं। इसी प्रकार तापमान का अचानक बढ़ना-घटना केवल फसलों के लिए ही नहीं, अपितु अन्य जीवों को भी प्रभावित करने लगा है। जाने क्यों कुपित रवि का पारा चढ़ा हुआ, तापमान पहले से अतिशय लगता बढ़ा हुआ। जैसे प्रश्नों पर चिंतन करने की आवश्यकता है। इस बढ़े हुए तापमान के दुष्परिणामों का सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है। स्पष्ट है कि इन्हीं अनिश्चितताओं के कारण आज घाघ की कहावतें कसौटी पर खरी नहीं उतर पा रही हैं। अन्य कोई कारण नहीं है। विश्व में खाद्यान्न की समस्या दिन प्रतिदिन बढ़ती जा रही है। एक तरफ लगातार घटते संसाधन तो दूसरी तरफ बढ़ती मौसम की अनिश्चितता कृषि के लिए गंभीर चुनौती साबित हो रही है। मानव जाति के साथ-साथ जीव-जंतुओं और जैव विविधता का अस्तित्व भी खतरे में पड़ गया है। लेकिन इन सबके लिए जिम्मेदार भी तो हम ही हैं। यह सच है कि मानव समाज के उत्थान के लिए प्राकृतिक संसाधनों का उपभोग आवश्यक है, लेकिन उनका दोहन इस तरह नहीं किया जाना चाहिए कि आने वाली पीढ़ियों के लिए कुछ भी न बचे। इसलिए अब समय आ गया है कि हम अपने विवेक से काम लें तथा प्राकृतिक संसाधनों का उपभोग संतुलित और उचित ढंग से करने के विषय में गंभीरता से विचार करें।
दुःखद बात यह है कि जब यह सब हो रहा था तो सरकारी तंत्र मानो सो रहा था। अब जब सिर पर पानी आ गया है, तो सरकार की नींद टूट गई है। लेकिन देर आये, दुरुस्त आये। देर से ही सही, कुछ पहल तो हो रही है। ताल-पोखरों के पुनरुद्धार की योजना शुरू की गई है, पौधारोपण पर जोर दिया जा रहा है, पर्यावरण संरक्षण के प्रति जागरूकता के नारे लगाए जा रहे हैं। नि:संदेह ये कुछ अच्छे कदम हैं, लेकिन जनभागीदारी के बिना इनकी सफलता संदिग्ध है। इसलिए हर स्तर पर जन जागरूकता अभियान चलाने की आवश्यकता अपरिहार्य लगती है। स्कूलों से लेकर विश्वविद्यालयों तक पर्यावरण विषयक ज्ञान के प्रचार-प्रसार की आवश्यकता है। प्रत्येक व्यक्ति को पानी से लेकर ऊर्जा तक सभी संसाधनों के विवेकपूर्ण उपभोग के साथ-साथ उनके भंडारण और संरक्षण के बारे में जागरूक करना होगा। पानी और ऊर्जा की बचत करना हमारी आदतों का हिस्सा बन जाना चाहिए।
छत से गिरती बूंद-बूंद अमृत को रोकें और यह कि चलो करें शुरूआत पौध बरगद की रोपें जैसे विचारों को प्रसारित करने के उद्देश्य को लक्ष्य बनाएं। जलवायु परिवर्तन का सबसे ज्यादा असर कृषि पर पड़ने वाला है। किसानों के साथ-साथ नीति-निर्माताओं और कृषि वैज्ञानिकों के लिए भी कई नई चुनौतियाँ खड़ी हो गई हैं। इसलिए सभी को मिलकर इसका समाधान खोजना होगा, वह भी जितनी जल्दी हो उतना अच्छा। चूंकि हमारे देश के अधिकांश लोग अनपढ़ हैं और गाँवों में रहते हैं। उन्हें पर्यावरण के प्रति सचेत और जागरूक करने की विशेष आवश्यकता है। खेती-बाड़ी व ग्रामोद्योग से जुड़े सभी लोगों को प्रशिक्षित करना एवं संचार माध्यमों द्वारा पर्यावरण के विषय में जागरूक करना आज हमारी सबसे बड़ी प्राथमिकता होनी चाहिए।
-- -देवेन्द्रराज सुथार, जालौर