जीवन एक मृगमरीचिका है, स्थायित्व केवल भ्रम
क्षणभर में एयर इंडिया प्लेन हादसे में 241 लोग धरती से विदा हो गए। हर बार हम कहते हैं- 'जीवन क्षणभंगुर है' और फिर भी अगले ही पल हम स्थायित्व के भ्रम में लौट जाते हैं। मनोवैज्ञानिक इसे 'Hedonic Adaptation' कहते हैं: हमारी चेतना संकट से उबरने के साथ-साथ फिर उसी ढर्रे पर चल पड़ती है, मानो कुछ हुआ ही न हो। यह अनुकूलन तंत्र हमें आगे बढ़ने की क्षमता देता है, किंतु उसी के साथ हमें निष्क्रिय भी बना देता है, क्योंकि हम भूल जाते हैं कि अगला झटका कब, कहां से आएगा।
Terror Management Theory बताती है कि मृत्यु- स्मरण सक्रिय होने पर हम दो तरह के व्यवहार दिखाते हैं। एक, हम जल्द से जल्द अर्थ ढूंढ़ने लगते हैं- धर्म, राष्ट्र, परिवार या किसी मिशन में अपने आप को घुला देते हैं, ताकि अस्थायित्व का भय हमें न निगले। दो, हम उपभोग और उपलब्धियों की दौड़ में तेज़ी ला देते हैं। दुविधा यह है कि दोनों ही रणनीतियां अंततः उसी सत्य पर लौटती हैं: न तो हमारी उपलब्धियां सुरक्षित हैं, न हमारी पहचान ।
जीवन की गति से हम अभ्यस्त हो चुके हैं, वस्तुतः एक द्रुतगामी, क्षणिक स्पंदन है। जिस क्षण को हम 'अब' कहते हैं, वह बीतते ही 'अतीत' हो जाता है और जिस भविष्य की ओर हम अग्रसर हैं, वह केवल संभावना है- एक मृगमरीचिका समय की इस अबूझ, अनवरत प्रवाहशीलता में जो तत्व सबसे सत्य है, वह है क्षणभंगुरता । क्षणभंगुरता कोई त्रासदी नहीं, बल्कि आध्यात्मिक जागरण का आलंबन है।
गौतम बुद्ध ने 'अनित्य' को अपने चिंतन का मूल आधार बनाया। उनका सम्पूर्ण दर्शन इस सत्य पर टिका है कि जो कुछ उत्पन्न होता है, वह नष्ट भी होता है। उन्होंने कहा- 'सब्बे संखारा अनिच्चा' अर्थात सभी संयोगजन्य वस्तुएं अनित्य हैं। जब हम किसी वस्तु या व्यक्ति से अत्यधिक मोह करते हैं, तो हम अनजाने में उस क्षणभंगुर वस्तु में स्थायित्व की आशा रखने लगते हैं। यही आशा अंततः दुख का कारण बनती है। भगवद्गीता में श्रीकृष्ण स्पष्ट करते हैं- 'अव्यक्तादीनि भूतानि व्यक्तमध्यानि भारत । अव्यक्तनिधानान्येव तत्र का परिदेवना ।।' अर्थात समस्त प्राणी अदृश्य से उत्पन्न होते हैं, थोड़े समय के लिए प्रकट होते हैं और पुनः लीन हो जाते हैं। जब यह अवसान सुनिश्चित है, तो शोक किस बात का ?
हम जीवन की स्थिरता को जितना पकड़ने का प्रयास करते हैं, वह उतना ही हमारी मुट्ठी से फिसलता है। फूल को मुट्ठी में बांधने की चेष्टा उसका सौंदर्य नष्ट कर देती है; उसे खुली हथेली पर रखना ही उसकी गरिमा के अनुकूल है। जीवन भी ठीक ऐसा ही है जब हम उसे एक क्षणिक उपहार की तरह स्वीकार करते हैं, तभी वह अपनी पूरी महिमा में प्रकट होता है। आध्यात्मिक दृष्टि से क्षणभंगुरता कोई शोक का विषय नहीं, बल्कि समाधि का द्वार है। यह हमें प्रतिपल चेतन कराती है कि यह भी बीत जाएगा। सुख हो या दुःख, यश हो या अपयश, सबकुछ अस्थायी है और जब यह बोध गहरे उतरता है, तब भीतर विराट मौन जन्म लेता है।
जैसे-जैसे यह बोध परिपक्क होता है, जीवन की गति धीमी नहीं, पर अधिक सजग हो जाती है। हम हर पल को उसकी सम्पूर्णता में जीने लगते हैं, क्योंकि हमें ज्ञात होता है कि यह पल फिर नहीं आएगा। जापानी सौंदर्यशास्त्र में 'Mono no aware' नामक अवधारणा है, जिसका शाब्दिक अर्थ है- 'चीज़ों की क्षणभंगुरता के प्रति एक कोमल, करुण भाव' यदि वसंत ऋतु सदा बनी रहती, तो उसका सौंदर्य फीका पड़ जाता। उसी प्रकार मृत्यु के सम्मुख जीवन की प्रत्येक सांस अनमोल बन जाती है।
मरण के अंधकार में ही जीवन की ज्योति दिखती है। यह जीवन की क्षणभंगुरता को उसकी परिपूर्णता में स्वीकार करने की पराकाष्ठा है। यह स्वीकार हमें भय नहीं, गहराई देता है। हमारे ऋषियों ने सदा मृत्यु को जीवन का परिष्कार माना है। उपनिषदों में 'मृत्योर्मा अमृतं गमय' की प्रार्थना केवल मृत्यु से बचने की नहीं, बल्कि उससे पार जाकर अमर तत्व की अनुभूति की आकांक्षा है। क्षणभंगुरता की अनुभूति हमें उसी अमर आत्मा की खोज में प्रवृत्त करती है, जो शरीर और समय के पार है। जीवन की अंतिम सार्थकता उसकी क्षणभंगुरता ही है। यदि यह स्थायी होता, तो शायद उसमें न स्पर्श की कोमलता रहती, न संबंधों की उत्कटता, न प्रेम की पीड़ा। हर विदाई का सौंदर्य, हर मिलन की तीव्रता और हर क्षण का मूल्य इसी अस्थायित्व की देन है।
इसलिए हर क्षण में सम्पूर्णता का आभास तभी संभव है, जब हम जानें कि वह अंतिम भी हो सकता है। यही दृष्टि हमें व्यर्थ की व्यस्तताओं से मुक्त कर सच्चे अर्थों में जीना सिखाती है। यही आत्मबोध है, यही समाधि की पूर्वपीठिका यही वह चिरंतन सीख है। कि 'जो अब है, वही सबकुछ है।'
-- -देवेन्द्रराज सुथार, जालौर