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समाज की सीमा तोड़ने वालों को सजा कौन देगा?

अंतरजातीय वैवाहिक संबंधों की बढ़ती घटनाएं समाज के मूलभूत ढांचे को तेजी से खोखला कर रही हैं। आये दिन यह सुनने को मिल रहा है कि समाज का कोई युवक किसी अन्य जाति की युवती को भगा लाया, या कोई युवती अपनी जाति के गौरव को धूल में मिलाकर बाहरी युवक के साथ भाग गई। यह घटनाएं केवल व्यक्तिगत स्तर पर नहीं रुकतीं, बल्कि पूरे समाज को शर्मसार और कलंकित कर जाती हैं।
यह स्थिति केवल भावनाओं का विषय नहीं है, यह समाज की सामाजिक अस्मिता, सम्मान और अस्तित्व का प्रश्न है जब एक युवक या युवती अपने क्षणिक आकर्षण, तथाकथित 'प्रेम' या स्वतंत्रता के नाम पर समाज की मर्यादा को रौंदता है, तो सिर्फ अपने परिवार को नहीं, पूरे समाज को अपमानित करता है। यह नासमझी नहीं, बल्कि साफ़ तौर पर समाजद्रोह है। इससे स्पष्ट होता है कि आधुनिकता की चकाचौंध में हमारे युवा अपनी जड़ों से कटते जा रहे हैं और उन्हें यह भान तक नहीं कि वे अपने ही कुल-धर्म, रीति-नीति और परंपरा के शव पर खड़े होकर अपने भविष्य का महल बना रहे हैं।
समाज की व्यवस्था, उसकी जातीय मर्यादा और सामाजिक अनुशासन कोई बोझ नहीं, बल्कि एक ढाल है, जिसने पीढ़ियों तक इस समाज को विघटन से बचाए रखा है। अंतरजातीय विवाह इस ढाल को छेदने का कार्य कर रहे हैं। यह न सिर्फ सामाजिक अपवित्रता का प्रतीक है, बल्कि एक सुनियोजित सांस्कृतिक आत्मघात भी है। किसी भी समाज की पहचान उसकी परंपराओं से होती है। जब वहीं परंपराएं तिलांजलि पा जाती हैं, तो वह समाज धीरे-धीरे केवल एक बिखरी भीड़ बनकर रह जाता है।
यह भ्रम अब तोड़ना होगा कि 'प्रेम' सब कुछ है, और जाति, समाज, संस्कार गौण हैं। प्रेम यदि समाज को तोड़ता है, कुल को कलंकित करता है, और पीढ़ियों की तपस्या को रौंदता है तो वह प्रेम नहीं, पतन है। एक सुधार युवक या युवती जब दूसरे जाति में विवाह करता है, तो वह अपने पुरखों की आत्मा को चोट पहुँचाता है, और समाज को आत्ममंथन की स्थिति में धकेल देता है। यह बगावत है न केवल परंपरा के विरुद्ध, बल्कि पूरे सामाजिक अनुशासन के विरुद्ध ।
इस बढ़ते विकार को जड़ से उखाड़ फेंकना होगा। समाज को अब ढीले आग्रह नहीं, कठोर निर्णय लेने होंगे। ऐसे संबंधों को किसी भी सूरत में स्वीकृति नहीं दी जानी चाहिए। जो युवक-युवतियाँ मर्यादा का उल्लंघन करते हैं, उन्हें समाज से पूर्णतः बहिष्कृत किया जाना चाहिए 'न उनके लिए सामाजिक आयोजनों में स्थान हो, न संबंधों में, और न ही सामाजिक संरक्षण में समाज को एक स्वर में यह घोषित करना होगा कि जो जाति छोड़ता है, वह समाज से भी बाहर है।
इसके साथ ही, परिवारों की जिम्मेदारी भी अत्यंत स्पष्ट है। यदि माता-पिता अपने बच्चों को केवल भौतिक शिक्षा दिलाकर छोड़ देंगे और उन्हें जातीय संस्कार, मर्यादा और परंपराओं से नहीं जोड़ेंगे, तो वे अगली ग़लती के लिए स्वयं जिम्मेदार होंगे। केवल आधुनिक विद्यालयों में भेजना पर्याप्त नहीं उन्हें अपनी संस्कृति के पाठ भी पढ़ाने होंगे।
समाज के वरिष्ठजनों, संगठनों और धार्मिक नेताओं को चाहिए कि वे इस मुद्दे पर नरमी या उदारता नहीं, बल्कि दृढ़ता और कठोर अनुशासन के साथ कदम उठाएं। युवक-युवतियों को खुले मंचों पर चेताया जाए, सामाजिक बहिष्कार की नीति को स्पष्ट किया जाए और ऐसे उदाहरण बनाए जाएं जो आने वाली पीढ़ियों को सबक दें।
समाज यदि अपनी मर्यादा, परंपरा और गरिमा को अक्षुण्ण रखना चाहता है, तो अब उसे निर्णयात्मक मोड़ पर आना होगा। अब समय अनुरोध का नहीं, आदेश का है। समाज को अपनी आत्मा बचानी है चाहे उसके लिए कितनी ही कठोरता क्यों न बरतनी पड़े। यदि अभी भी हमने आँखें मूंद लीं, तो वह दिन दूर नहीं जब समाज केवल इतिहास की एक पंक्ति बनकर रह जाएगा।

-- -देवेन्द्रराज सुथार, जालौर