कलंकित हो रहे हैं शिक्षा के मंदिर
निर्भया रेप केस के दोषियों को फाँसी की सजा दिए जाने के बाद भी हवस के दरिंदों को कोई डर नहीं है। वास्तविकता यह है कि हम एक सभ्य और लोकतांत्रिक समाज में रहते हैं, लेकिन हम आदिम समाज की फूहड़ता, जड़ता, मूल्यहीनता और चारित्रिक दुर्बलता को दूर नहीं कर पाए हैं। जिस समाज में हम 'बेटी-बचाओ, बेटी पढ़ाओं का आह्वान कर रहे हैं, वहाँ बेटियों की गरिमा सुरक्षित नहीं है। क्या सामाजिक चेतना शून्य हो गई है? क्या समाज करता की हदें पार कर रहा है? क्या समाज की भूमिका सिमटती जा रही है? जब प्रधानाध्यापक और शिक्षक ही हवस के भूखे भेड़िये बन जाएंगे और बच्चियों को भी नहीं बख्शेगें तो समाज कितना विकृत हो जाएगा, इसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती। ताजा मामला राजस्थान के अलवर जिले का है, जहाँ बहरोड़ में दसवीं की एक छात्रा के साथ प्रिंसिपल और 3 शिक्षकों ने दुष्कर्म किया। राजस्थान के सरकारी स्कूलों में पिछले एक साल में छात्राओं से रेप के 13 मामले सामने आए हैं। इन सभी मामलों में रेप के आरोपी शिक्षक हैं और कई मामलों में तो अध्यापिकाओं द्वारा दुष्कर्म की घटनाओं में साथ देने तक के आरोप हैं। इस तरह भीलवाड़ा और झंझुनूं में 3-3 और दौसा, हनुमानगढ़, सीकर, राजसंद, जयपुर, जालोर और जोधपुर में 1-1 मामला सामने आ चुका है। ऐसे में बड़ा सवाल यह है कि जब बेटियाँ शिक्षा के मंदिर में ही सुरक्षित नहीं हैं, तो अन्य जगहों पर क्या हालात होंगे।
दरअसल राजस्थान में महिलाओं, लड़कियों और छोटी बच्चियों पर अत्याचार के मामले लगातार बढ़ते जा रहे हैं। इस साल राज्य में रेप के 5,877 मामले दर्ज किए गए हैं, जबकि 95 फीसदी मामलों में जान-पहचान वालों पर रेप के आरोप लगे हैं। इसी तरह इन दिनों उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर जिले में 17 स्कूली बच्चियों के साथ दुष्कर्म का मामला भी सुर्खियों में है। बताया जा रहा है कि दो निजी स्कूलों के प्रबंधकों ने कथित तौर पर लड़कियों को नशीला पदार्थ देकर उनका यौन शोषण और बलात्कार करने की कोशिश की। हाल ही में वाराणसी के सनबीम स्कूल में तीसरी कक्षा की छात्रा के साथ जो हुआ वह दिल दहला देने वाला है। छात्रा स्कूल से घर लौटी तो सहमी हुई थी। कपड़े पर खून के धब्बे देखकर माँ ने पूछा तो बच्ची रो पड़ी और बताया कि स्कूल के शौचालय में सफाईकर्मी ने गंदी हरकत की। आंकड़ों के मुताबिक पिछले एक महीनें में उत्तर प्रदेश के 16 जिलों में बच्चियों से रेप और छेड़छाड़ के 41 गंभीर मामले सामने आए हैं। इनमें 33 नाबालिग हैं। महिला अपराध की यह तो वह घटनाएं हैं, जो चर्चित रही हैं। साढ़े तीन साल की मासूम भी सुरक्षित नहीं है, न ही तीस साल की महिला। मेरठ में 17 साल की लड़की के आबरू पर उसके मौसेरे भाई ने हाथ डालकर मौत के घाट उतार दिया। आगरा में 5 साल की बच्ची की रेप के बाद हत्या कर दी गई। प्रयागराज में 16 साल की लड़की की और झांसी में 5 साल की मासूम की रेप के बाद हत्या कर दी गई।
राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के आंकड़ों के मुताबिक 2018 में देश में हर चौथी रेप पीड़िता नाबालिग है, जबकि 50 फीसदी से ज्यादा पीड़िताएं 18 से 30 साल की उम्र की हैं। आज के परिवेश में धार्मिक, आश्रम, बाल संरक्षण गृह, नारी निकेतन, शिक्षा संस्थान, कार्यालय कोई भी क्षेत्र ऐसा नहीं है जहाँ ऐसी दुष्कर्म की खबरें न आ रही हों। 'बलात्कार' यह शब्द कितना असर हम पर करता है, अब यह शब्द हमारे मानस के तंतुओं को झकझोरता नहीं है और हम निरपेक्ष भाव से मूक होकर आगे बढ़ जाते हैं। एक महिला की आबरू लुट जाना हमारे मन में कोई खास हलचल नहीं मचाता। ईश्वर ने पुरुष और महिला की शारीरिक संरचना भिन्न इसलिए बनाई है कि यह संसार आगे बढ़े। परिवेश में घुलती अनैतिकता और बेशर्म आचरण ने पुरुषों के मानस में महिला को भोग्या ही निरूपित किया। महिलाओं के शरीर को लेकर सस्ते चुटकुले, चौराहों पर होने वाली छिछोरी गपशप, इंटरनेट और टीवी चैनलों पर दिखाए जाने वाले शो में परोसी जा रही अश्लील सामग्री, घटिया तस्वीरों से लेकर बेहुदा टिप्पणियों तक में पुरुषों की गिरी हुई मानसिकता का सामना हो रहा है। दूसरी और वर्तमान दौर में अति महत्वाकांक्षी महिलाएं भी सभी मर्यादाएं तोड़कर आगे बढ़ना चाहती हैं। वह जिंदगी में कामयाबी की बुलंदियों और शोहरत को छू लेना चाहती हैं। इसके लिए कुछ महिलाओं ने मेहनत की और देश का गौरव बढ़ाया। जब बेटियाँ देश का गौरव बढ़ाती हैं तो देश झूम उठता है, लेकिन बेटियों के घर से निकलते ही दरिंदों की निगाहें उनको घूरने लगती हैं, उनका पीछा किया जाता है और मौका पाते ही दरिदे उसे दबोच लेते हैं, तब देश का गौरव कहीं गुम हो जाता है।
सरकार द्वारा 'बेटी-बचाओ, बेटी-पढ़ाओ' अभियान को जिस तेज गति से बढ़ावा दिया जा रहा है, क्या वाकई उस गति से बेटियों को बचाया जा रहा है? आए दिन होने वाली घटनाओं से ऐसा नहीं लगता। सरकार को समझना चाहिए कि बेटी बचेगी तो ही पढ़ाई करेगी। अगर बेटी को बचाने का मकसद सिर्फ भ्रूण हत्या को रोकना है तो जो जिंदा है, असुरक्षित माहौल में रहने को मजबूर है, उसका क्या? डर की स्थिति यह है कि अगर माँ का बच्चा थोड़ी देर के लिए भी नज़रों से ओझल हो जाए तो उसका दिल किसी अनहोनी के डर से कांप उठता है। फिर रेप जैसी घटनाएं पूरे परिवार की मन:स्थिति को बिगाड़ देती है। बेटे से ज्यादा जवान हो रही बेटी की सुरक्षा की चिंता माँ-बाप को खाती है। लेकिन जब बचपन खतरे में हो तो कहाँ जाए? बेटी बचाओ के तहत भ्रूण की सुरक्षा से परे अस्तित्व की रक्षा के लिए संकल्प होना आवश्यक है। ऐप बनाकर या मोबाइल पर नंबर शुरू करके सुरक्षा का दावा नहीं किया जा सकता है। फिर रेप जैसे जघन्य अपराध व्यक्ति की मनोदशा पर निर्भर करते हैं। लड़का हो या लड़की इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। ऐसे में जरूरी है कि मनोवैज्ञानिक कारणों के निदान की तलाश की जाए।
याद करें तो दिल्ली में हुए निर्भया रेप केस के बाद भारत में महिलाओं की सुरक्षा एक बड़ा मुद्दा बन गया था। 2014 के आम चुनाव में भी बीजेपी ने इसे चुनावी मुद्दा बनाया था। उस समय अपनी चुनावी सभाओं में नरेन्द्र मोदी ने 'एक्ट नॉट एक्शन' और 'गुड गवर्नेस' के नारे भी दिए थे। भाजपा विजयी हुई लेकिन महिला सुरक्षा का मुद्दा जस का तस बना रहा। देश में बच्चों के खिलाफ होने वाले अपराध को रोकने के लिए कानून तो हैं, लेकिन उन कानूनों का सही तरीके से क्रियान्वयन नहीं होने के कारण ऐसी घटनाएं लगातार बढ़ रही हैं। समाज में शर्म की बेड़ियाँ थानों तक पहुँचने की हिम्मत नहीं दिखा पाती। जीडीपी ग्रोथ के मुकाबले यहाँ स्थिति में होता इजाफा देश की शर्मनाक स्थिति को दर्शाता है। 'एक्ट नहीं, एक्शन चाहिए' कहने वाले मोदी अब प्रधानमंत्री हैं, उनके सामने हजारों मसले हैं, लेकिन महिलाओं की सुरक्षा का मुद्दा किसी अन्य समस्या से कम नहीं है। देश में बिगड़ते मिजाज के लिए जो भी जिम्मेदार हैं, उस पर लगाम लगाना जरूरी है। बाल कल्याण समितियों को और अधिक सक्रिय बनाने की आवश्यकता है। ऐसी घटनाओं को रोकने के लिए हमें एक मिसाल कायम करने की जरूरत है। मासूम बच्चे अपने साथ हो रहे अत्याचारों के खिलाफ आवाज़ नहीं उठा सकते, उनकी आवाज़ को मजबूत करने की जरूरत है। साथ ही समझना होगा कि नैतिक मूल्यों का पतन और पश्चिमीकरण का बढ़ता प्रभाव हमारे जीवन में धीमा जहर घोल रहा है। जब समस्त माहौल ही गंदा होगा तो हम फिर देशभक्तों का कैसे निर्माण कर पाएंगे? ऐसे माहौल से केवल असामाजिक तत्त्व व दरिदे ही पैदा होंगे। हमारे देश में महिलाओं को इंसान समझने के लिए लोग कितना वक्त लगाएंगे ये तो नहीं पता, लेकिन हम बच्चों को अच्छी परवरिश तो दे ही सकते हैं, ताकि वे महिलाओं को वस्तु न समझें। उन्हें सही समय पर सेक्स एज्यूकेशन दें, ताकि वो इधर-उधर से गलत चीजें न सीखें। इसके अलावा ध्यान देने योग्य बात यह है कि यौन शोषण के खिलाफ कठोर कानून का प्रभावी क्रियान्वयन तभी सफल है, जब ऐसे मामलों के निस्तारण के लिए टाइम फ्रेम तय किया जाए। दरअसल हमारी धीमी न्याय प्रणाली के कारण यौन अपराध के दोषियों को फाँसी के फंदे तक पहुँचने में कई सालों का समय लग जाता है। समय पर दोषी को सजा नहीं मिल पाने के कारण कानून का डर अपराधियों में कम होने लगता है, इसलिए त्वरित न्याय को लेकर कदम उठाने की आवश्यकता है।
-- -देवेन्द्रराज सुथार, जालौर