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विलुप्त प्राय: विलक्षण कला

वेद में शिल्पकला को यज्ञ के रूप में पवित्र माना है। जिस प्रकार यज्ञ में हम बड़ी श्रद्धा, सच्ची लग्न, समर्पण एवं त्याग भावना से आहुतियाँ देते हैं तथा मन व भावना से सर्व शक्तिमान ईश्वर की अराधना करते हैं, उसी भावना से शिल्प कला में भी प्रखरता, तीक्ष्णता, पूर्णता, चरमोत्कृष्टता, पराकाष्ठा पाने के लिए एकाग्रचित होकर उस कला में आत्मसात् होना पड़ता है। यही सब कुछ हमारे पूर्वजों ने किया तथा कला विशेष में महारत हासिल की। यहाँ शिल्प कला के कुछ सर्व श्रेष्ठ उदाहरण प्रस्तुत कर रहा हूँ जो हजारों वर्षों तक हमारे समाज के पूर्वजों ने संजोकर रखे तथा समय-सयम पर उनका अनूठा प्रदर्शन किया, जिसके नमूने यत्र-तत्र संग्राहलयों में देखे जा सकते हैं। परन्तु अब यह कला समाप्त प्राय: है, नष्ट होने के कगार पर है, चूंकि विद्या तभी तक विद्या है जब तक उसका पीढ़ी दर पीढ़ी निर्वहन होता रहता है। यहाँ वर्णित कला को नव पीढ़ी ने अपने पूर्वजों से ग्रहण नहीं किया । अथर्ववेद के ज्ञाता महर्षि अंगिरा के वंश जांगिड समाज में समय-समय पर अनेक ऐसी हस्तियाँ जन्म लेती रही हैं, जिनके कला कौशल और उनकी रहस्यमयी कृतियों की प्रभुता समस्त विश्व मानता आया है। श्री विश्वकर्मा टूडे जून 2012 के पत्र में श्री गोपीराम जी द्वारा निर्मित लकड़ी, सोने-चांदी के रथ अनुपम व नायाब कृति हैं। सन् 1975 में मैंने बीकानेर के संग्रहालय में लकड़ी द्वारा निर्मित दो हेलीकॉप्टर भी देखे थे जो कभी उड़ान भरते थे। उनके निर्माण में प्रयुक्त हल्की तथा मजबूत लकड़ी किस पेड़ की होती थी उसका ज्ञान हमारे पूर्वजों को था । नमूने या प्रदर्शन हेतु कला कृतियों का निर्माण तो फिर भी सम्भव है परन्तु ऐसी कला कृतियां जिनका उपयोग भी किया जा सके, का निर्माण करना आश्चर्य जनक है। सन् 1982 में मैं प्राध्यापक पद पर कुछ समय के लिए बाड़मेर में रहा । वहाँ मेरा परिचय एक जांगिड बन्धु से हुआ। वे अध्यापक थे तथा मैं यदि भूल नहीं रहा हूँ तो शायद उनका नाम श्री खेमाराम था। वे खाट के पायों की खराद का कार्य भी करते थे। परन्तु एक विशेष गुण उनमें था कि वे जलाने की बेकार रोहिड़ा पेड़ की लकड़ी से लगभग 8 इंच ऊँचा ऊँट बनाते थे। उन्होंने ऊँट के छः हिस्सों (चारों पैर, धड़ तथा गर्दन) की डाइयां (नमूने) बना रखे थे। वे चलता हुआ ऊँट उन्हीं छः हिस्सों को स्क्रू से जोड़कर तैयार करते थे । कभी-कभी वे ऊँट पर कूंच्ची भी साथ बना देते थे । उनके द्वारा निर्मित ये ऊँट जीवित ऊँट के सामने देख तुलना करने पर वास्तविक कृति लगते थे। यह उनकी अपनी कला तथा स्वयं की खोज थी ।
यहाँ कूंच्ची (ऊँट पर सवारी का आसन) का नाम आया तो मुझे बर्बस वास्तविक कूंच्ची की याद आ गई। राजस्थान व हरियाणा राज्य की सीमा पर अरावली श्रृंखला के छोर पर महेन्द्रगढ़ से सतनाली रोड़ पर एक बारड़ा गांव है। आज से 50- 60 वर्ष पूर्व इस गांव के जांगिड परिवार में श्री प्रभुदयाल जी कूंच्ची, चरखे तथा हूक्के आदि बनाया करते थे। उन्हें इस कार्य में इतनी महारत हासिल थी कि उनके द्वारा निर्मित पीतल जड़ित कूंच्ची पर रूई का फोआ भी फेरा जाता तो वह कहीं अटकता नहीं था । सन् 1925 के आस-पास का एक संस्मरण जो प्रभुदयाल जी ने सुनाया था आज भी याद है। उन दिनों सड़कें न के बराबर थी। साधन भी नहीं थे। ज्यादातर लोग ऊंटों पर ही सवारी करते थे। उन्हीं दिनों माधोगढ़ के पास पहाड़ों में बनवारी नाम का डाकू रहता था । वह सामान्य राहगीरों को तो कुछ नहीं कहता था परन्तु बनिये या धनवान व्यक्ति को लूट लेता था । उसने किसी राहगीर ऊंट सवार की कूंच्ची को देखा तो बहुत प्रभावित हुआ तथा सवार से उस कूंच्ची के बनाने वाले का नाम तथा गांव पूछा । कुछ दिनों बाद बनवारी डाकू ने अपना एक व्यक्ति कूंच्ची बनवाने हेतु श्री प्रभुदयाल के पास भेजा । कूंच्ची जब तैयार हो गई तो डाकू ग्रामीण वेश में गांव में लेने आया तथा रूई के फोआ से कूंच्ची को परखा चिकनाहट पर फोआ कहां ठहरता ? वह इतना प्रभावित हुआ कि उसने उचित मूल्य भी दिया तथा अपना असली परिचय देते हुए उस गांव में कभी डाका न डालने का वचन भी दिया। श्रेष्ठ कला का प्रभाव डाकू के हिंसक स्वभाव पर भी पड़ा।
इसी परिवार में श्री प्रभुदयाल के छोटे भाई श्री राम कुमार थे। वे जंगल में ठेकेदारी करते थे परन्तु लकड़ी के पलंग के पाये खरादने तथा सलाई करने में उन्हें भी महारत हासिल थी। चारों पाये, एक हाथ से रस्सी खींच कर दूसरे हाथ तथा पैरों के सहारे खराद करते थे। चारों पायों में बाल भर भी अन्तर नहीं होता था तथा उनकी खराद का अपना एक नमूना था, जिसे देखकर लोग जान लेते थे कि ये श्री राम कुमार जी द्वारा बनाये गये थे। उनके द्वारा साला (बनाया) गया पलंग पानी में डुबोने पर भी चूलों में पानी नहीं जाता था । क्या आज भी ऐसी महारत किसी ने अपने पूर्वजों से प्राप्त की है? यह सब महर्षि अंगिरा की अपने वंशजों पर कृपा है, जिसके गुण आज भी किसी न किसी बन्धु में प्रकट होते रहते हैं। इसी परिवार द्वारा रोहिड़ा पेड़ की लकड़ी से खराद द्वारा हुक्का भी बनाया जाता था । खराद द्वारा ही पानी भरने का स्थान बनाकर लकड़ी का ढक्कन लगाया जाता था। देखने में यह हुक्का पीतल के बने हुक्के जैसा ही बनाते थे। उनके बनाये हूक्के को देखकर इंग्लैण्ड की अलबर्ट एण्ड ब्रदर्स कम्पनी ने उनसे हूक्के बनाकर भेजने या अपना कोई व्यक्ति इंग्लैण्ड में जाकर हूक्के बनाने हेतु प्रस्ताव भेजा था, परन्तु उन्होंने अज्ञानता वश इस बात पर ध्यान नहीं दिया।
उपरोक्त प्रसंग का यहाँ उद्धहरण करना जांगिड समाज को एक सन्देश तथा प्रेरणा देने के लिए है। रथ, बहल, पहिये, पालकी अनेक प्रकार की लकड़ी की गाड़ियाँ आदि अब नई पीढ़ी नहीं बना पायेगी। ये कला अब समाप्त हुई समझो। समाज बन्धुओं से इस लेख के माध्यम से आग्रह करना चाहता हूँ कि वे जो भी कार्य करें उसमें चरम सीमा पर पहुँचने का लक्ष्य अपने सामने रखें तथा सदैव ईमानदारी, सच्ची श्रद्धा तथा उन्मुक्त भाव से अपनी कला को अधिक से अधिक निखारने का प्रयास करें। शिल्प कला एक यज्ञ है, विद्या है जिसके लिए समर्पण भाव की जरूरत है।

-- देशराज आर्य (से.नि. प्रधानाचार्य), रेवाड़ी