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ब्रह्मचर्य आश्रम की महत्ता

अथर्ववेद काण्ड 11 / अनु. 3 / मन्त्र -19 में ब्रह्मचर्य की महिमा का वर्णन किया गया है - ब्रह्मचर्येण तपसा देवा मृत्युपाघ्नत । इन्द्रो ह ब्रह्मचर्येण देवेम्य: स्वराभरत् ।। अर्थात् ब्रह्मचर्य से ही विद्वान लोग जन्म, मरण को जीत करके मोक्ष सुख को प्राप्त कर लेते हैं। जैसे सूर्य परमेश्वर के नियम में स्थित होकर सब लोकों का प्रकाश करने वाला हुआ है, वैसे ही मनुष्य का आत्मा ब्रह्मचर्य से प्रकाशित होकर सबको प्रकाशित कर देता है। ब्रह्मचर्य की महिमा बड़ी निराली है। ब्रह्मचर्य मानव जीवन का सार तथा सुन्दर व निरोग स्वास्थ्य की कुंजी है । ब्रह्मचर्य एक ऐसी अनमोल पूंजी है जिसे जीवन भर खर्च करने पर भी किसी अन्य की सहायता की आवश्यकता नहीं पड़ती। स्वामी अग्नि देव भीष्म के ब्रह्मचर्य पर एक भजन की केवल दो पंक्तियां ही कितनी प्रेरणादायी हैं - अरे क्या जीना उस नर-नारी का जो ब्रह्मचर्य से खाली । वह बन गया पूज्य संसार का मिल गई स्वर्ग की ताली । इतिहास उस बात का साक्षी है कि ब्रह्मचर्य के बल और प्रताप से ही महापुरुषों ने युग को नई दिशा में मोड़ दिया । ब्रह्मचर्य के तपत्याग से ही श्रीराम ने शिव धनुष को तोड़ दिया था। ब्रह्मचर्य के तप से ही अंगद ने रावण की भरी सभा में अपना पैर जमा कर योद्धाओं को ललकारा था। ब्रह्मचर्य के बल पर ही महावीर हनुमान ने समुद्र को पार किया और रावण की लंका को तहस-नहस कर दिया था।
महाभारत में भीष्म पितामह ने ब्रह्मचर्य के बल से ही 176 वर्ष की आयु में भी 10 दिन तक अकेले युद्ध लड़ा था। धनुर्धर अर्जुन के भयंकर तीर भी उनके वक्ष स्थल से टकराकर ऐसे फिसल रहे थे जैसे लोहे की चट्टान से लोहा टकरा कर फिसल जाता है। अर्जुन ने पितामह से इसका कारण पूछा तो उत्तर मिला- हे पुत्र ! मैंने ब्रह्मचर्य से अपना शरीर वज्र के समान बना लिया है। इस दिव्य ब्रह्मचर्य से मैंने मृत्यु पर भी विजय पा ली है। मेरी इच्छा होगी तब ही इस देह को त्यागूंगा। मेरी इच्छा के बिना मृत्यु भी मेरे पास नहीं फटक सकती। यह है ब्रह्मचर्य का बल और महत्व । शरशय्या पर भी लेटे हुए उन्होंने युधिष्ठिर को सम्बोधित करते हुए ब्रह्मचर्य की महिमा का उपदेश दिया। उन्होंने कहा- ब्रह्मचर्यक्य च गुणं शृणु त्वं वसुधाधिप । आजन्म मरणाद्यस्तु ब्रह्मचारी भवेदिह। अर्थात्-हे राजन! ब्रह्मचर्य के गुण सुनो, जो मनुष्य इस संसार में जन्म से लेकर मरण पर्यन्त ब्रह्मचारी होता है उसको संसार का कोई शुभ गुण ऐसा नहीं जो उसे प्राप्त न हो। वह ब्रह्मचर्य के प्रभाव से सर्वगुण सम्पन्न महापुरुष बन जाता है। ब्रह्मचारी राममूर्ति पहलवान को कौन नहीं जानता जो कई मण का पत्थर छाती पर रखवाकर घन से तुड़वाता था। एक तख्ता छाती पर रख कर हाथी को ऊपर चढ़वाता था। राममूर्ति पहलवान ने तो रेलगाड़ी के इन्जन को रोकने का प्रस्ताव भी रखा था परन्तु उसे अनुमति नहीं दी गई। यह ब्रह्मचर्य का ही प्रताप था ।
ब्रह्मचर्य के बल पर ही महर्षि दयानन्द ने वैदिक नाद बजाया था । उन्होंने अकेले ही पाखण्डियों को कंपायमान कर दिया था। बड़े-बड़े योद्धा भी महर्षि दयानन्द की आँखों से आँखे मिलाने का साहस नहीं कर पाते थे । ब्रह्मचर्य के तेज का प्रकाश उनके मुख मण्डल पर सदैव छाया रहता था। ब्रह्मचर्य के बल से ही महर्षि दयानन्द ने कर्णवास में रहते हुए वहाँ के रावकर्ण सिंह द्वारा वध करने हेतु उठाई गई तलवार को छीनकर भूमि के साथ टेककर दबाव से उसके दो टुकड़े कर दिये तथा कहा कि "राव महाशय शास्त्रार्थ करना हो तो अपने गुरु जी को यहाँ ले आइए हम कटिबद्ध हैं। परन्तु यदि आपको शास्त्रार्थ (युद्ध) करने का चाव है तो सन्यासी से क्यों टकराते हो? जयपुर, जोधपुर के राजाओं से जा भिड़ो"
वेद के अनुसार मनुष्य का जीवन कम से कम सौ वर्ष का माना गया है तथा इसे चार आश्रमों में विभाजित किया गया है। ब्रह्मचर्याश्रम, गृहस्थाश्रम, वान प्रस्थाश्रम तथा सन्यासाश्रम । इनमें पहला पाँच से आठ वर्ष की उम्र से अड़तालीस वर्ष पर्यन्त ब्रह्मचर्याश्रम का समय है। और ब्रह्मचर्याश्रम ही सब आश्रमों से उत्तम है। जिस प्रकार भवन की नींव लोहे, कंकरीट तथा सिमेन्ट से ठोस, पक्की व मजबूत बनाई जाती है तथा उस पर अनेक मंजिलें बन सकती हैं। उसी प्रकार ब्रह्मचर्याश्रम भी मानव जीवन की दृढ़व ठोस नींव है तथा बाकी तीनों आश्रम इसकी दृढ़ता पर ही आधारित है। महर्षि ने संस्कार विधि में बालक के लिए 8 वर्ष से लेकर 25, 30, 36, 40, 44 व 48 वर्ष तक ब्रह्मचर्य पालन तथा कन्या के लिए 8 वर्ष से लेकर 18, 20, 22, 24 वर्ष तक ब्रह्मचर्य पालन का समय बतलाया है। इसमें कम से कम बालक को 25 वर्ष और कन्या 18 वर्ष तक ब्रह्मचर्य का पालन अत्यावश्यक है। इसके बाद ही गृहस्थ जीवन में प्रवेश करने का विधान है। यदि कोई बालक या कन्या अधिक समय तक ब्रह्मचर्य पालन करना चाहें तो उत्तम है। परन्तु आजीवन ब्रह्मचर्य पालन बड़ा कठिन है। लोहे की नंगी तलवार की धार पर नंगे पांव चलने के समान है। दृढ़वती एवं योगी ही इस परीक्षा में उत्तीर्ण होते हैं।
यजुर्वेद में एक मन्त्र है, जिसमें ब्रह्मचर्य द्वारा तीन सौ से चार सौ वर्ष तक जीवित रहने की कामना की गई है। त्र्यायुषं जमदग्नेः कश्यपस्य त्र्यायुषम् । यद्देवेषु त्र्यायुषं तन्नो अस्तु त्र्यायुषम । हे परमात्मा ! आपकी कृपा से अखण्डित ब्रह्मचर्य के पालक और योग साधक विद्वान जनों को तीन सौ अथवा चार सौ वर्ष की आयु प्राप्त होती है, वहीं तीन व चार सौ वर्ष की आयु मुझे भी प्राप्त कराओ। महर्षि दयानन्द ने ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका में भी लिखा है कि ब्रह्मचर्य आश्रम सुशिक्षा और सत्य विद्यादि गुण ग्रहण करने का सबसे उत्तम समय होता है । धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चार पदार्थों की प्राप्ति के लिए चार आश्रमों का सेवन करना सब मनुष्यों को उचित बतलाया है । पुन: कहा है कि ब्रह्मचर्य आश्रम सबका मूल है। उसके ठीक-ठीक सुधरने से सब आश्रम सुगम और बिगड़ने से नष्ट हो जाते हैं। अत: ब्रह्मचर्याश्रम में ही बल, बुद्धि, शौर्य और तेज बढ़ाकर मानव को भावी जीवन के लिए योग्य बनने का शुभ अवसर प्राप्त होता है। इस आश्रम में जितना अधिक से अधिक ज्ञान, बल, बुद्धि संचित किया जाएगा उतना ही मनुष्य अपने भावी जीवन को सुखमय बनाता जाएगा। वर्तमान में ब्रह्मचर्याश्रम व्यवस्था के बल आर्ष गुरुकुलों, वेद-विद्यालयों में ही उपलब्ध है जहाँ भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति को जीवित रखने का प्रयास अभी भी चल रहा है। जागरुक अभिभावक चाहें तो अभी भी अपने बच्चों को आर्ष पाठ्य प्रणाली गुरुकुलों में प्रवेश दिलाकर सुयोग्य सन्तान बनाकर पुण्य के भागी बन सकते हैं तथा नव पीढ़ी का सही निर्माण कर सकते हैं।

-- देशराज आर्य (से.नि. प्रधानाचार्य), रेवाड़ी