चकाचौंध समाज में भी अंधविश्वास
अंध विश्वास का शाब्दिक अर्थ है आँखें बंद कर बिना जांच परख किये किसी बात को जिस रूप में भी बताया जाए उसे स्वीकार कर लेना । अंध विश्वास एक प्रकार से भेड़चाल की तरह अंधानुसरण है। समाज में व्याप्त इसी कमजोरी का दुरुपयोग धूर्त और शातिर लोगों ने उठाया तथा राष्ट्र को प्रगति के स्थान पर गर्त में डूबो दिया। समाज में जितनी भी बुराईयाँ पनप रही हैं उन सबका मुख्य स्रोत अंधविश्वास ही रहा है। चाहे भूत-प्रेत के किस्से हों, जादू-टोने की बात हो या शकुन अपशकुन की बात हो, अंध विश्वास ने मानव जीवन के हर पहलु को अपंग बना दिया है। अंध विश्वास के आधार पर ही समाज के रीति-रिवाज भी प्रभावित हो गये हैं। यदि महर्षि दयानन्द ने अपने ब्रह्मचर्य के तप त्याग और वैदिक ज्ञान से अंध विश्वास पर कुठाराघात कर समाज को झकझोर कर जागृत नहीं किया होता तो आज समाज की क्या स्थिति होती। हम कल्पना मात्र से सिहर उठते। महर्षि ने अपने कई ग्रन्थों में उस समय के समाज के अंध विश्वास का चित्रण किया है कि किस प्रकार मठ, मन्दिरों में लोग अपनी कन्याओं को भी दान स्वरूप भेंट कर देते थे। मन्दिर की उन दासियों का जीवन कैसा होगा, आप सहज अनुमान लगा सकते हैं।
आज भले ही विज्ञान ने बहुत उन्नति कर ली है। मनुष्य ने अपने सुख सुविधा की सब वस्तुएं निर्मित कर ली हैं, परन्तु उनके विचार आज भी अंध विश्वासी हैं। घर से बाहर निकलने पर बिल्ली द्वारा रास्ता काटना, सामने खाली (रीता) घड़ा दिखाई देना, पीछे से किसी की छींक सुनना, गोबर के उपले या जलाने की लकड़ी ( ईंधन ) दिखाई देना या किसी के द्वारा टोकना (पूछना) कि कहां जा रहे हो आदि बातें अपशकुन मानी जाती हैं। इन अपशकुनों को देखकर वह ठीठकता है बेशक उसकी बस या ट्रेन निकल जाए तथा आवश्यक कार्य से वंचित हो जाए। कितना अच्छा हो यदि हम अपने घर पर हवन यज्ञ करके बाहर जाए? मुझे बचपन की बातें याद हैं कि स्कूल में वार्षिक परीक्षा का परिणाम सुनने जाते तो कहा जाता कि दही खाकर जाना, गाय के दर्शन अवश्य करना तथा सामने पानी भरे घड़ों को भी देखकर जाना परीक्षा परिणाम अच्छा होगा। परीक्षा परिणाम तो वर्ष भर की गई पढ़ाई का फल पास ही होता था। भला दर्शनों से इसका क्या सम्बन्ध? इन सब शकुनों का कोई औचित्य नहीं था। हाँ इसका दूसरा पहलु यह अवश्य था कि उन दिनों सब गाय रखते थे, दही के साथ ही प्रात: रोटी खाते थे तथा कुओं से घड़ों में भर कर पानी लाते थे। ये सब शकुन दिन चर्या में शामिल थे।
वर्तमान में भी बीमारी या अन्य किसी परेशानी के लिए उचित उपचार कराने के स्थान पर टोना-टोटका, बूझा निकलवाना झाड़े लगवाना आदि का रिवाज है तथा पाखण्डी लोग उन्हें अच्छी प्रकार ठग रहे हैं। मैंने कई बार सुना है कि गाय और भैंस भी बीमार हो जाने पर उनकी बेल (जंजीर) ले जाकर झाड़े लगवाते हैं। रोग का निदान तो औषधी से होता है वहम् का कोई ईलाज नहीं। बहुत पुरानी बात है कि किसी गाँव में एक वैद्य था। उसके पास औषण रूप में केवल त्रिफले का चूर्ण होता था। भोले-भाले गाँव वालों को किसी भी रोग में वह त्रिफले का चूर्ण पुड़ियों में देता तथा गर्म, ठण्डे ताजा पानी या छाछ के साथ लेने को कह देता। कुछ समय बाद लोगों का ठीक तो होना ही था। वैसे त्रिफला नुकसान भी नहीं करता था। वैद्य का नाम प्रसिद्ध हो गया। संयोग वश वहाँ के राजा-रानी की आपस में अनबन हो गई। एक-दूसरे से पहले बात करने में अपना अपमान समझते थे। राजा का एक विश्वास पात्र सेवक वैद्य जी से तीन दिन के लिए तीन पुड़िया ले गया। सेवक ने सोचा तीन दिन क्या इन्तजार करें, तीनों पुड़िया रानी को एक बार में ही दे दी। ऐसा हुआ कि त्रिफले की फांकी रानी के गले में फंस गई और वह बेहोश हो गई आँखे निकल आईं। राजा को पता चला तो भागा भागा आया। इतने में रानी को होश आ गया तथा राजा को अपने महल में देखकर खुश हो गई। आपस की अनबन समाप्त। लोगों ने कहा देखो वैद्य जी की करामात, दोनों का समझौता करा दिया। अब इसे आप क्या कहेंगे?
अपने देश में दो चीजें विशेष हैं। पहली यह कि यहाँ हर व्यक्ति वैद्य (डॉक्टर) है। बीमारी की बात चलते ही वह तुरन्त उपचार की सलाह देता है कि ऐसा करो वैसा करो। दूसरी यह कि यहाँ हर स्थान लघुशंका (टायलेट) करने का है। जहाँ जब चाहा किसी भी स्थान पर लघुशंका करने बैठ जाना हर व्यक्ति की आदत है। ऐसे राष्ट्र का उद्धार कैसे हो पायेगा ? यहाँ से अंधविश्वास समाप्त होने में युगों का समय लगेगा। या महर्षि दयानन्द जैसी कोई विभूति पुनः इस धरा पर जन्म लेकर मार्जन करेगी। अंध विश्वास में लोग इतने डूबे हुए हैं कि उनका विवेक भी समाप्त हो गया। मैंने एक दृष्टान्त पढ़ा था कि रात्रि के समय एक उल्लू पेड़ की टहनी पर बैठा था। दो चूहे पेड़ के नीचे से निकले। उल्लू की आवाज आई यू टू यूटू यह उल्लू की स्वाभाविक आवाज है। चूहों ने समझा तुमसे तुमसे चूहों ने अन्य जानवरों से उल्लू की समझदारी का जिक्र किया। सभी सहमत होकर उल्लू के पास गये और कहा तुम हमारे नेता हो हम सब तुम्हारे पीछे चलेंगे। दिन का समय था उल्लू को दिखाई नहीं देता था वह इधर-उधर चलने लगा, सब जानवर भी उसके पीछे चलने लगे। उल्लू पत्थर से टकराता तो जानवर भी जान बूझकर उस पत्थर से टकरा कर चलते चलते-चलते सब सड़क के बीच में पहुँच गये। एक समझदार पक्षी ने कहा सड़क के बीचों- बीच चल रहे हो आगे से एक ट्रक आ रहा है। परन्तु उल्लू को दिखाई नहीं देता था क्या करे। अन्य जानवर भी उसके पीछे थे। ट्रक सबको रौंदता हुआ निकल गया। यह सब अंधविश्वास का परिणाम था।
मैंने तीर्थ स्नान करने के कई ऐसे पवित्र स्थान देखें हैं जहाँ लोग नहाने जाते हैं। कई बार तो वहाँ इतना कम, गंदा तथा कीचड़ जैसा पानी होता है, जिसमें हाथ देने को भी मन नहीं करता परन्तु मूर्ख लोग उसमें स्नान कर कई तरह की बीमारी लेकर भी अपने आपको भाग्यशाली तथा पापों से मुक्त हुआ समझ लेते हैं। आजकल दूर-दर्शन पर भी कई बाबाओं के अंधविश्वास की पोल खुलती हुई देख सकते हैं। काश इन सबने सत्यार्थ प्रकाश पढ़ा होता। परिवार के सभी सदस्यों ने मिलकर संध्या हवन किया होता तो उनका जीवन अंधकारमय नहीं होता।
-- देशराज आर्य (से.नि. प्रधानाचार्य), रेवाड़ी