शिक्षा ही सर्वोत्तम धन एवं दान है
आर्य समाज के संस्थापक महर्षि दयानन्द ने अपने अमर ग्रन्थसत्यार्थ प्रकाश के अन्त में स्वमन्तव्यामन्तव्य प्रकाश प्रकरण में शिक्षा की परिभाषा दी है। महर्षि लिखते हैं कि “शिक्षा' जिससे विद्या, सभ्यता, धर्मात्मता, जितेन्द्रियतादि की बढ़ोतरी होवे और अविद्यादि दोष छूटे उसको शिक्षा कहते हैं। मानव जीवन में शिक्षा सतत् चलने वाली प्रक्रिया है तथा मनुष्य अन्तसमय तक कुछ न कुछ नया सीखता रहता है। शिक्षा अनन्त है इसकी कोई सीमा नहीं होती। महर्षि की उपरोक्त परिभाषा में यह स्पष्ट सन्देश मिलता है कि मनुष्य सद्शिक्षा से ही मनुष्य कहलाता है। सद्गुरु द्वारा दी गई सशिक्षा से महामूर्ख भी पण्डित बन जाता है। पंच तन्त्र में कहानी है कि भारत वर्ष के दक्षिण प्रदेश में महिलारोप्यनगर के राजाअमरशक्ति के तीन महामूर्ख पुत्रों को 80 वर्षीय वृद्ध पण्डित विष्णु शर्मा ने छ: मास की कालावधि में प्रतिज्ञानुसार शिक्षित और राजनीति निपुण बना दिया। शिक्षा मनुष्य के मस्तिष्क को विकसित करती है, बद्धि बल को बढ़ाती है, मनोबल को बढ़ाकर विषम परिस्थितियों में भी उसे निराश नहीं होने देती। विद्या का बड़ा महत्व है। संस्कृत श्लोक -
रूप यौवन संपन्ना विशाल कुल संभवाः ।
विद्या-हीनाः न शोभन्ते निर्गन्धा इव किंशुका ।।
कोई भी मनुष्य चाहे वह ऊंचे वंश में उत्पन्न हुआ हो, रूप यौवन और सम्पत्ति से युक्त हो, विद्या के बिना वह वैसे ही शोभा नहीं पाता, जैसे गंध विहीन किंशुक (समर) का फूल शोभा नहीं पाता है। अत: विद्या मानव का सर्वांगीण विकास कर उसका जीवन सुखमय बनाती है। विद्या का दान अक्षय दान है।
"सर्वोषामेव दानानां ब्रह्मदान विशिष्यते ।' यजु.
यजुर्वेद में कहा है कि संसार के सब दानों से वेद विद्या का दान अति श्रेष्ठ है। एक संस्कृत श्लोक में कहा है "अन्नदानं परं दानं, विद्या-दानमतः परम् । अन्नेन क्षणिका तृप्तिर् यावज्जीवं च विद्यया ।। अन्न दान को श्रेष्ठ दान कहा है क्योंकि अन्नदान से भूख की तृप्ति होती है। विद्यादान इससे भी श्रेष्ठ है क्योंकि विद्या से जब तक जीवित रहते हैं, तब तक तृप्ति होती रहती है। भोजन, वस्त्र, धन यहाँ तक कि भूमिदान भी कुछ समय की तुष्टि करते हैं तथा ये सब नष्ट हो जाते हैं परन्तु विद्या जीवन पर्यन्त साथ देती है। विद्या अनुपम एवं सर्वश्रेष्ठ धन है। "न चौरहार्य न च राजहार्य न भातृभाज्यं न च भारकारि। व्यये कृते वर्धत एवं नित्यं विद्या-धनं सर्वधनंप्रधानम् ।।" विद्याधन को न चोर चुरा सकता है, न राजा छीन सकता है,न भाई इसे बंटा सकते हैं, न इससे भार लगता है। विद्या धन व्यय करने से बढ़ता है और व्यय नहीं करने पर क्षीण होता है। अतः विद्या धन को ही सबसे प्रधान धन माना गया है। इसी से यश मिलता है।
विद्या मनुष्य की परम मित्र होती है। विपरीत समय में सब मित्र बन्धु भी साथ छोड़ देते हैं, परन्तु विद्या ऐसे संकट काल में भी मनुष्य की मित्र बन सहायक होती है। कहा, है "विद्या मित्रं प्रवासेषु भार्या मित्रं गृहेषु च । व्याधितस्यौषधं मित्रं धर्मो मित्रं मृतस्य च ।। प्रवास में अर्थात् अनजान व अज्ञान स्थान पर विद्या मित्र होती है, घर में मनुष्य की स्त्री मित्र होती है, रोगी की मित्र औषधी होती है और मृतक का मित्र धर्म होता है। जिस प्रकार अन्धे व्यक्ति को रंगों का ज्ञान नहीं होता, उसी प्रकार विद्याहीन व्यक्ति को वेद शास्त्रों का ज्ञान नहीं होता । विद्या ही मनुष्य की शोभा है, विद्या ही मनुष्य का अत्यन्त गुप्त धन है, विद्या ही मानव को भोग्य पदार्थ यश और सुख देने वाली है, विद्या ही गुरुओं की गुरु है। विदेश यात्रा में विद्या ही कुटम्बीजनों के समान सहायक होती है। राजाओं और विद्वानों की सभा में विद्या का ही आदर सम्मान होता है। अत: बिना विद्या मनुष्य पशु के तुल्य है।
विद्यार्थी जीवन जिसे वेद में ब्रह्मचर्य आश्रम भी कहा है, विद्या अर्जन का समय होता है । प्रायः मानव 5 या 6 वर्ष की आयु से लेकर लगभग 25 वर्ष तक विद्या ग्रहण करता है । मनुष्य जीवन का यही वक्त उसके भावी जीवन के निर्माण का समय होता है। यही शिक्षा उसे आजीवन स्मरण भी रहती है। बाल्यकाल और प्रौढ़ावस्था की बातें चिरस्मरणीय नहीं होती। अपवाद स्वरूप महर्षि दयानन्द 36 वर्ष की आयु में गुरु विरजानन्द जी से मथुरा में शिक्षा ग्रहण कर आजीवन उसको नहीं भूले थे और परोपकार में लगे रहे । शिक्षा ग्रहण करते समय उन्होंने अनेकों कष्ट भी सहे।
एक कहावत है 'झरवत विद्या, पचत खेती' विद्या झरवने से, बार-बार पढ़ने से, रटने से और धोखने से आती है। बिना परिश्रम विद्या नहीं मिलती। पुराने समय में विद्यार्थी पढ़ते समय अपनी शिखा को छत के साथ डोरी से बांध लेते थे ताकि नींद की झपकी आने पर झटका लगे और आँख खुल जाए। बार-बार उठकर ठण्डे पानी से आँखे धोना भी नींद को दूर भगाता है। भाव यह है कि विद्या सहज प्राप्त नहीं होती। कड़ी मेहनत करनी पड़ती है। संस्कृत श्लोक है-सुखार्थी वा त्यजेत् विद्या, विद्यार्थी वा त्यजेत् सुखम् । सुखार्थिन कुतो विद्या, कुतो विद्यार्थिनः सुखम् ।। सुख चाहने वाला जो परिश्रम नहीं करता विद्या को त्याग दे और जो विद्या को ग्रहण करना चाहता है सुख चैन आराम को त्याग दे। क्योंकि सुख चाहने वाले को विद्या कहाँ? और विद्या चाहने वाले को सुख कहाँ? अतः विद्यार्थी को बड़ी श्रद्धा, लगन व चेष्ठा से विद्या ग्रहण करनी चाहिए। विद्या ही मनुष्य को धैर्यवान, गुणवान, बुद्धिमान बनाती है। शिक्षा स्वाभिमान को जागृत करती है। विद्यावान सुख में सुखी और दुःख में दुःखी नरहकर सदैव समरस रहता है।
-- देशराज आर्य (से.नि. प्रधानाचार्य), रेवाड़ी