जीवन का वास्तविक आनन्द
जीवन का वास्तविक आनन्द अपने लिए नहीं बल्कि औरों के लिए जीने में है। यह बात आपको कुछ अजीब-सी लगती होगी। ऐसा लगने का कारण यह है कि मुट्ठी भर लोगों को छोड़कर शेष सभी अपने लिए ही जीते हैं। इस प्रकार जीने के पीछे कई सपने छिपे हैं। इसमें रंग भरने की प्रतिस्पर्धा में दिन-रात भाग रहा है। ऐसा प्रतीत हो रहा है कि इसमें समाहित वैभवता ही इसका सुख सम्पत्ति, सम्पन्नता तथा सामाजिक प्रतिष्ठा है। इसने एक ओर मानवीय मूल्यांकनों को लील लिया है तो दूसरी और स्वार्थपूर्ण संकीर्ण विचारों ने आत्मीयता को औपचारिकता के कगार पर खड़ा कर दिया है। इससे वह कदम-कदम पर कठिनाइयाँ एवं बेचैनी महसूस करता अन्ततः पछताता है। इस संदर्भ में किसी ने यथार्थ ही कहा है-
जो बीत गयी सो बीत गयी, तकदीर का शिकवा कौन करे?
जो तीर कमान से छूट गया, उस तीर का पीछा कौन करे? सुख और दुःख एक ही सिक्के के चित-पुट है। यह व्यक्ति के विचारों पर निर्भर करता है। विचार बाज़ार में नहीं बिकते हैं। यह तो व्यक्ति के स्वयं का चिन्तन है। स्वामी विवेकानन्द का कथन है कि "जहाँ विचार नहीं, वहाँ कार्य नहीं। अत: मस्तिष्क को उच्च विचारों से, उच्च आदर्शों से भर दो। उन्हें दिन-रात अपने सामने रखो, तभी उनमें से महान कार्य निष्पन्न होगा।" वैसे हम एक कमरे में बंद हैं। उसकी खिड़कियाँ, दरवाजे और रोशनदान बंद है। आपको गरमी लगेगी, दम घुटने लगेगा, अजीब-सा महसूस होगा। जब आप दरवाजे, खिड़कियों और रोशनदान खोल देंगे तो मन को शान्तिमिलेगी। सुखद सुख की अनुभूति होगी। धूप-सी प्रसन्नता स्वत: खिल उठेंगी। अत: विचार ही मन की शक्ति है, जिसे हम आत्मबल कहते हैं।
आप खेत बोते हैं, फसल खड़ी होती है, अनाज पक जाता है, तो चिड़ियों का झुण्ड आकर खाने लगता है। आपको दुःख होता है। गुस्सा आता है। विवश होकर उड़ाते रहते हैं। इसी अनाज़ को जब कभी चिड़ियाँ और कबूतरों के लिए लेकर जाते हैं और अपने हाथों से उछालते हैं। फिर उन्हें खाते देखकर हृदय एक अलौकिक आनन्द की अनुभूति करता है। पहले खुद खाती थी तब दुःख होता था, अब हम स्वयं उछालते हैं तो मन को शान्ति मिलती है। पहले विचारों में संकीर्णता थी अब विचारों में खुलापन है, उदारता है। अत: यह जीवन सिर्फ विचारों का ही खेल है। इस खेल के दो पाले हैं। एक “तेरा" और दूसरा “मेरा"। इन तेरा-मेरा में शताब्दियों से द्वेष चलता आ रहा है। इसी ने प्रत्येक प्राणी को दुःखी बना दिया है। जिसने अपने जीवन की राह से “मेरा" रूपी रोड़े को हटा दिया है उसका जीवन फिर अतुलित आनन्द से भर गया है। जन्म के समय व्यक्ति अपने साथ कुछ भी लेकर नहीं आया है। जगत् की हवा ने “मेरा" नाम की घुटकी देकर उनके आनन्द को विषैला बना दिया। जीवन को अंधेरे में धकेल दिया।
प्रकृति खुले हाथों से सभी प्राणियों को लुटा रही है। यही जीवन का आनन्द है, सौन्दर्य है, अनूठा प्रेम है, ज्ञान की ज्योति है, जिज्ञासाओं का रंग है। इसी के इन्द्रधनुषी रंगों को भूल से अपना मान लिया है। इसी त्रुटि ने हमारे जीवन को वैभवता रूपी कैदखाने में बंद कर दिया है। इससे मुक्त करवाने के लिए हमें अर्जुन की इसी बात को आत्मसात करना होगा कि-"चिड़िया नहीं, सिर्फ आँख ही दिखाई देती है।" तभी गुरु द्रोणाचार्य ने तीर चलाने का आदेश दिया और आँख को भेद दिया। इसी प्रकार "मेरे" को भेदकर ही हम जीवन को बंधन मुक्त करवा कर वास्तविक आनन्द अर्जित कर सकते हैं।
भगवद्गीता ले. राधाकृष्णन् पृ. 74-75 पर लिखते हैं "जनक अपने कर्तव्यों का पालन करता था और संसार की घटनाओं से क्षुब्ध नहीं होता था।" फुटनोट में उदाहरण के अन्तर्गत उल्लेख किया है- “सचमुच मेरी यह सम्पत्ति असीम है, जिसमें मेरा कुछ भी नहीं है। यदि मिथिला जलकर राख हो जाए तो भी मेरा कुछ भी नहीं जलेगा।"
अनन्तंवत्में वित्तं यस्य में नास्ति किश्चन।
मिथिलायां प्रदीप्तायां न में नास्ति किञ्चित् प्रदाह्यते।।
(महाभारत, शान्ति पर्व, 7, 1) इस प्रकार भगवान तेरे-मेरे से परे है, अतः वे सबके हैं। पद्मपुराण, उत्तरखण्ड 92/22 भगवान् ने नारद से कहा है कि
नाऽहं वसामि बैकुण्ठे योगिनां हृदये न च।
मद्भक्ता: यत्र गायन्ति तत्र तिष्ठामि नारद।।
इसलिए तो भक्त शिरोमणि मीराबाई ने कहा है- “मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरों ने कोई।" उनकी आँखों में सिर्फ कृष्ण ही बसे थे। शेष दृष्टि से ओझल थे। भक्ति की इस पराकाष्ठा के कारण वह सशरीर मूर्ति में समाकर आवागमन से मुक्त हो गई थी। अत: साधकों के लिए तेरा ही "मेरा" बनकर सामने आया है। रहीम ने भी कहा है
"प्रियतम छबि नयन बसी, पर छबि कहाँ समाय।
भरी सराय रहिमन लखि, आपु पथिक फिर जाय।।"
इस प्रकार "तेरे" व "मेरे" तानों-बानों से बुना और झंझटों के रंग से रंगा यह संसार बड़ा ही विचित्र है। इसमें रहकर जीवन यापन करना भी कला है। इसका सूत्र गोस्वामी तुलसीदास जी ने बताते हुए कहा है-“पर हित सरिस धर्म नहिं भाई।" इसको आत्मसात कर ले तो हम जीवन को आनन्द से भर सकते हैं। आइन्सटाइन का कथन है- “केवल वह जीवन काम का है, जिसे दूसरों के लिए जिया जाए।" इससे स्वतः प्राप्त होने वाले आनन्द में हम प्रभु की छबि के दर्शन कर जीवन को सफल बना सकते हैं।"
-- दीपचंद सुथार, जोधपुर