संस्कार निर्माण में सहायक एवं बाधक तत्त्व क्या है?
समाज में जितने भी अपराध होते हैं. उनकी जन्मदात्री संस्कारहीनता है। मनुष्य के समक्ष दो ही मार्ग हैं पहला संस्कारवान बनने का, दूसरा मार्ग संस्कारहीन बनने का, मनुष्य कौनसा मार्ग चुनता है, यह उसकी बुद्धि पर निर्भर है। संस्कार निर्माण में दो ही कारक महत्त्वपूर्ण हैं। पहला कारक पैतृक गुण और दूसरा वातावरण। मनुष्य में माता-पिता के गुण आते हैं। मनुष्य के रूप, रंग, केश, दाँत, नेत्र, कद, वाणी सभी में माता-पिता की झलक आती है। कई लोग तो बालक को देखकर यह कह देते हैं कि तुम फलां के लड़के हो क्या? मनुष्य में मानसिक गुण भी माता-पिता के आते है।
मनोविज्ञान ने यह सिद्ध कर दिया कि मनुष्य में कई पीढ़ियों के गुण भी आते हैं। बोलचाल की भाषा में भी यह कहा जाता है कि "नर नाने रै जावै" अर्थात् बालक में कई गण ननिहाल के भी आते हैं। इसीलिए अपने मामा, नाना के गुण आते हैं। संस्कार निर्माण में दूसरा कारक वातावरण है। जैसे वातावरण में मनुष्य रहता है वैसा ही बन जाता है। चोरों के साथ रहेगा तो चोर बन जावेगा और जेब कतरों के साथ रहेगा तो जेबकतरा बन जावेगा। पशुओं के साथ रहेगा तो पशुओं की आदतें मनुष्य में आ जाएगी। मनुष्य परिवार, समाज, स्कूल से ही सभ्य, सुसंस्कारित बनता है। यह भी पाया गया है कि मनुष्य की शिक्षा गर्भकाल से ही शुरू हो जाती है। सुभद्रा को अर्जुन ने चक्रव्यूह बेधने की कथा सुनाई तो अभिमन्यु सीख गया। चक्रव्यूह से बाहर निकलने की क्रिया बताई तो सुभद्रा को नींद आ गई, इसलिए अभिमन्यु बाहर नहीं निकल सका। अष्टावक्र जन्म से विशेष ज्ञानी थे। उसने विद्वान पण्डितों को शास्त्रार्थ में पराजित किया था। आदि शंकराचार्य जन्म से ही शास्त्रों के ज्ञाता हुए। वे वेदज्ञ हुए। तुलसीदास जी ने जन्म के समय ही रामनाम शब्द का उच्चारण किया।
इन रहस्यों को देखते हुए हमारा दायित्व हो जाता है कि गर्भवती महिला को सात्विक वातावरण मिलना चाहिए। गर्भवती की इच्छा के अनुकूल भोजन मिलना चाहिए। यदि घर में गृहकलह, तनाव, कुण्ठा, वैरभाव, झगड़ा, अभद्र व्यवहार होता है तो इसका प्रभाव गर्भ में पलने वाले बच्चे पर भी पड़ेगा। हो सकता है कि उस बालक की प्रकृति वातावरण के अनुकूल हो जावे। गर्भवती महिला के लिए पौष्टिक आहार भी मिलना चाहिए। जिन विटामिन्स की आवश्यकता है समुचित मात्रा में मिलने चाहिए नहीं तो दुबला, पतला, मदबुद्धि बालक जन्म सकता है। बालक को सुसगति में रखना आवश्यक है यदि बालक बचपन से ही कुसंगति में पड़ जाता है तो उसका जीवन बर्बाद हो जाता है। घर में माता का ज्यादा महत्त्व है। यदि कोई बालक किसी साथी की गेंद चुराकर ले आता है तो माता का धर्म है कि उसी समय उनको लौटाए और बालक को बताए कि चोरी करना पाप है। जब कनपटी मार शंकरिया को फांसी लगी थी, तब उससे पूछा कि तुम ऐसे क्यों बने? उसने उत्तर दिया था कि मेरे को बिगाड़ने में मेरी माता का हाथ था। संस्कार निर्माण में प्रकृति का महत्त्वपूर्ण योगदान होता है।
प्रकृति क्या है ? : भगवान श्री कृष्ण की श्रीमद्भगवद्गीता के अनुसार जल, वायु, अग्नि, धरती, आकाश, अहंकार, बुद्धि, मन इन आठ तत्वों से प्रकृति बनी है। भिन्न-भिन्न प्रकृति के अनुसार विभिन्न प्रकार के मनुष्यों की रचना हुई। अहंकारी, मूडी, क्रोधी, लोभी, ईर्ष्यालु, झगड़ालु, कृपालु, दयालु, जिद्दी, बहमी, कामी, सहिष्णु आदि प्रकृति वाले मनुष्य हए। बालकों से उसकी प्रकृति के अनुसार ही व्यवहार करना चाहिए। यदि कोई बालक किसी बात पर अधिक क्रोध करता है तो वैसी बातें नहीं करनी चाहिए। वातावरण के अनुसार बालकों की प्रकृति घटती-बढ़ती भी है।
संस्कार निर्माण के बाधक तत्त्व क्रोध : क्रोध एक प्रकार की अग्नि है। क्रोधाग्नि में मनुष्य स्वयं भी जलता है और दूसरे को भी जलाता है। क्रोधी मनुष्य में क्रोध के दौरे पड़ते हैं। जब क्रोध आता है तो विवेक भाग जाता है। क्रोध शान्त होने पर मनुष्य प्रायश्चित करता है। यदि भयभीत हो जाता है तो आत्महत्या तक कर लेता है। क्रोध में बड़े से बड़ा अपराध भी कर लेता है। बाहुबली के सामने क्रोध नहीं आता है। क्रोधी मनुष्य कमजोरों पर हावी हो जाता है। इसलिए बालकों को अपने माता-पिता, दादा-दादी का भी भय रहना आवश्यक है। भय रहने से वह मर्यादा नहीं तोड़ता है।
अहंकार : अहंकार एक जन्म जात प्रवृत्ति है। अहंकारी व्यक्ति दूसरे व्यक्ति को छोटा, कमजोर समझता है। वह अपने अहम् को दूसरे पर थोपना चाहता है। मनुष्य को काया, धन, पद, विद्या का भी अहंकार हो जाता है। यदि हम बालक को जो चाहें वस्तु देते रहें तो वह अहंकारी बन जाता है। अनुचित वस्तु की मांग जब बालक करता है, तब उसको उचित-अनुचित वस्तुओं के गुणदोषों को समझाना आवश्यक है। छोटे बालक को यदि कार दे दी जावे तो वह एक्सीडेन्ट में कई लोगों को मार देगा। बच्चों को ज्यादा इतराने से अहंकारी बन जाते हैं।
संवेग : संवेदनशील बनना तो अच्छा है, परन्तु संवेगशील बनना बुरा है। संवेगों से बालक सनकी बन जाता है। सनकी बालक जिद्दी भी हो जाता है। अपनी सनक पूरी करने के लिए हट कर लेता है। संवेगों के भी दौरे पड़ते हैं। सनकी मनमानी करता है। सनकी अज्ञानता में उचित बात को भी अनुचित समझकर हट करने लगता है। बच्चों को सनकी बनने से रोकना चाहिए। संवेग जन्मजात प्रवृत्ति है।
ईर्ष्या : ईर्ष्या एक प्रकार की जलन है, जो दूसरे व्यक्ति की प्रगति व समृद्धता देखकर होती है। ईर्ष्यालु व्यक्ति गतिशील व्यक्ति को देखकर उसको हानि पहुँचाना चाहता है। बच्चों में भी बचपन से ही ईर्ष्या हो जाती है। किसी के परीक्षा में अधिक अंक आने पर ईर्ष्या हो जाती है। किसी की अच्छी वेशभूषा देखकर हो जाती है। संतोषी बच्चों में ईर्ष्या नहीं होती है। ईर्ष्या का भाव किसी में कम किसी में अधिक होता है। माता-पिता एवं गुरुजनों को चाहिए कि बच्चों में ईर्ष्या का भाव न हो। प्रतिस्पर्धा के लिए अग्रसर करना चाहिए।
नशा : आजकल नशे की प्रवृत्ति छात्रों में, युवकों में, सभी लोगों में बढ़ रही है। जर्दा, खैनी, चुटकी तो आज युवक खाते हैं। शराबखोरी भी बढ़ रही है। विवाह-शादियों में खुलेआम नौजवान शराब पीते हैं। जब दुर्व्यसनों में बालक, किशोर बुरी तरह फंस जाते हैं तो उनको मुक्त कराना दुष्कर हो जाता है। नशे से स्वास्थ्य, अध्ययन, अर्थ की हानि होती है।
मोबाइल : मोबाइल ने हमारे संस्कारों का सत्यानाश किया है। पोर्न वीडियो तो सबसे खतरनाक है। बच्चे सारे दिन मोबाइल पर अंगुलियाँ चलाते हैं। इस पर नियंत्रण रहना आवश्यक है। लाभप्रद सीरियल एवं फिल्म ही बालकों को देखनी चाहिए।
निष्कर्ष : शिक्षा का प्रचार-प्रसार बढ़ने के बाद भी हमारे संस्कार घटते जा रहे हैं। आज़ादी से पूर्व हमारे परिवार संगठित, अनुशासित, मर्यादित होते थे। मर्यादाएं टूट गई तो हमारे परिवार भी टूट गए। परिवार टूट गए तो अपराध बढ़ गए। जब ऋषि-मुनि शिक्षा देते थे तो धार्मिक शिक्षा देते थे। दूषित वातावरण उस समय नहीं था। आज समाज भी दूषित हो रहा है। हमें दूसरों को नहीं सुधारना है। हमकों तो स्वयं को और अपने परिवार को सुधारना है। आजकल सब लोग ज्ञानी ही नहीं महाज्ञानी बन गए हैं।
अंत में मैं कहना चाहूँगा कि जो सरल, सुशील और सहिष्णु स्वभाव का होता है, वह सुसंस्कारित होता है। बाकी लोग अपने प्रकृति का प्रभाव दिखाते हैं, इसलिए कहा गया है -
ज्यां का पड़गा सुभावड़ा, जासी जीव सैं।
नीम न मीठा होय, चाहे सींचों गुड़ घी सैं।।
-- छाजूलाल जांगिड (से.नि. व्याख्याता) , नवलगढ़