गौ की आत्मकथा
मैं एक गौ हूँ। इस देश में अनादिकाल से मेरी पूजा अर्चना और सेवा होती आई है। वेद, पुराण, उपनिषद्, भागवत, रामायण और महाभारत जैसे धार्मिक ग्रंथों में मेरी महिमा और पवित्रता का बखान किया गया है। विवाहोत्सव, यश, श्राद्ध एवं अन्य कई धार्मिक अनुष्ठानों में मेरा दान किया जाता रहा है। देशवासी मेरे प्रति श्रद्धा भाव रखते आ रहे हैं।
मैं भारत माता के सपूतों को दुग्ध पिलाकर बलिष्ठ बनाती रही हूँ। मैं उनका बौद्धिक विकास भी करती रही हूँ। कामधेनु, नन्दिनी जैसी गौ मेरी ही वंश की गैया थी, जिन्होंने राजा दिलीप को आशीर्वाद देकर वंश वृद्धि की थी। मनुष्य मेरे अंग यहाँ तक कि गोबर और मूत्र को भी उपयोगी और पवित्र मानता आ रहा है। मेरे गर्भ से वत्स का जन्म होने पर गृह में खुशी की लहर दौड़ जाती थी। भगवान् श्री कृष्ण ने मेरे वंश की वृद्धि की थी, जिन्होंने मुझे प्रगाढ़ प्रेम दिया था। उनकी बांसुरी के मधुर स्वर सुनकर मैं विमोहित हो जाया करती थी। उनके पीछे-पीछे घूमा करती थी। वे वृन्दावन में धेनु चराते समय रास रचाते खेल खेलते थे। उस विपिन में वे मेरा दुग्ध निकालकर खीर बनाकर पल्लव के दोनों पर खीर खाया करते थे। बृज में दूध-दही की नदी बहती थी। मेरे गुणों के कारण कई युगों तक मेरी पूजा होती रही ।
कलियुग के आगमन पर धीरे-धीरे मेरी महिमा घटने लगी। मनुष्य लोभी और स्वार्थी बन गया। इसलिए मेरी वृद्ध माताओं, बहिनों और वत्सों का वध करने लगा। परहेज न रखने वाले लोग मेरा मांस भी खाने लगे। ज्यों-ज्यों मैं वृद्ध होती हूँ मेरा दूध कम हो जाता है निर्दयी और निष्ठुर लोग मेरा खाना दाना कम करने लगे। मैं धीरे- धीरे कृश होने लगी। मेरी तरूण बहिनों को भी समुचित पौष्टिक आहार न मिलने पर बांझ रहने लगी। ऐसी स्थिति में मनुष्य ने मुझे आवारा बना दिया।
मैं भूख से पीड़ित होकर गली, कूंचों, सड़कों और बाजारों में कागज, गत्ते, प्लास्टिक, टाट, लोहा, गले सड़े फल-फूल और झूठे छिलके खाने लगी। मेरे शरीर पर भी प्रहार होने लगे। मेरी बहने भूख- प्यास से तड़पती हुई दम तोड़ने लगी मुझे उपयोगी न मानकर कुछ लोग मेरी जाति के झुंड के झुंड किसी सूनसान स्थान पर अंधेरे में छोड़ने लगे। भाटिया और बंजारा जैसे लोग अपनी शरण में लेकर मेरी बहनों को भूखी प्यासी रखते हुए कोसों दूर ले जाने लगे। ऐसी नीरीह बहनों को निर्दय लोगों को बेचने लगे। मेरा वध करने के लिए कई कारखाने खुल गए। मेरी दर्दनाक हालत से कौन परिचित नहीं है? मेरी फरियाद सुनने वाला कोई नहीं है? पहले मेरे में ऐसा क्या गुण था जो मेरी हजारों वर्ष तक पूजा हुई थी? और अब मेरे में क्या अवगुण हो गया जो मुझे भिक्षुक बना दिया? मैं इतना ही जानती हूँ कि मेरी जगह उस काली कलूटी मोटी त्वचा वाली दूधारू भैंस को अपना लिया गया। वह मोटा दूध देती है और आलस्य में सोयी रहती है। इसका दूध पीने वाले भी आलसी बन गये हैं।
मनुष्य के कोई प्रीति नहीं है। वह हानि- लाभ को देखता है। धर्म कर्म से उसको कोई प्रयोजन नहीं है। खैर, मैं तो भटकती रहूंगी और मेरे वत्स भी भटकते रहेंगे। मैं अपना आत्म बलिदान करती रहूंगी परन्तु मनुष्य जाति को मेरा शाप है कि उसकी प्रज्ञा शक्ति का विनाश होता रहेगा। उसकी विवेक शक्ति क्षीण होती जायेगी। वह नैराश्य, कुण्ठा, कलह, ईर्ष्या, असंतोष और पिपासा में भटकता रहेगा। मैं उस युग तक जीवित रहूंगी जब तक मेरी खोई हुई प्रतिष्ठा मुझे वापस न मिलेगी।
-- छाजूलाल जांगिड (से.नि. व्याख्याता) , नवलगढ़