हिन्दू धर्म के मौलिक सत्य : पुनर्जन्म
आत्मा अमर है और शरीर नश्वर है। अतः शरीर के नाश होने पर आत्मा उस शरीर से दूसरे शरीर में प्रवेश करती है, यही पुनर्जन्म है। इसी तरह पुनर्वतार में भी आत्मा पूर्णत: दुबारा मानवीय शरीर ग्रहण करती है और स्थानान्तरण में आत्मा एक स्थान से दूसरे स्थान पर नए शरीर में प्रवेश करती है।
श्री कृष्ण कहते हैं कि जीवात्मा मेरा अंश है, याने ब्रह्म का अंश है। अत: जीवात्मा में भी ब्रह्म की शक्ति है। यही श्रुति शास्त्र भी कहता है। बीज का जमीन पर गिरना, उपजना और पेड़ बनने में स्थान और अवधि का अन्तर होता है। इसी तरह जीवात्मा का दूसरे शरीर में प्रवेश करने में भी स्थान और अवधिका अन्तर होता है। पेड़ से जो बीज पैदा होता है, उसमें पड़ अपनी आकृति और गुण दे देता है। इसी तरह ईश्वरीय जीव जब दूसरे पदार्थ में प्रवेश करता है, तो वह धीरे-धीरे अपनी ऊर्जा व सामर्थ्य से बढ़कर ईश्वर बन जाता है और उसकी प्रकृति भी ईश्वर की प्रकृति ही होती है। ईश्वर शक्तिशाली व बुद्धिमान है, जबकि जीव शक्तिहीन और बुद्धिहीन है। जीव की वृद्धि के साथ उसकी शक्ति और बुद्धि में भी वृद्धि होती है, इस तरह उसका विकास होता है।
जीव प्रारंभ में खनिज जगत में आया, जहाँ उसे प्रकृति के प्रलयकारी स्वरूप, भूकंप, ज्वालामुखी एवं भूस्खलन जैसी विध्वंसक क्रियाओं से उसकी चेतना को ब्राह्य शक्तियों का आभास हुआ। तत्पश्चात् कालांतर में जीव विकसित होकर वनस्पति व पेड़-पौधों में परिवर्तित हुआ। वनस्पति जगत् में जीव को धूप, छाँव, वर्षा और हवाओं का आभास होने लगा। वर्षा उनके लिए जीवनदायिनी थी व समय के साथ उनका जीवनकाल बढ़ने लगा व आकृति भी झाड़ियों से बढ़कर बड़े पेड़ों तक पहुंच गई। इसी के साथ वनस्पति के रूपों में विकास हुआ व उनकी आन्तरिक शक्ति में वृद्धि से विकसित होकर जीव जगत में पशुओं की योनी में पहुँच गया। पशुओं की योनी में जीव का विकास तेजी से हुआ, क्योंकि उन्हें खाने के लिए और अपने अस्तित्व के लिए आपस में एक-दूसरे को मात देने व लड़ने की आवश्यकता पड़ी। जिससे उनके मानसिक व शारीरिक शक्ति का विकास तेजी से हुआ। पशुओं की योनी से अगला विकास उनका मानव के रूप में हुआ।
जीव जो कठोर स्थूल शरीर में बंद रहा वह अपनी इन्द्रियों के प्रभाव से भेदन करके बाहरी वातावरण की शक्तियों को महसूस करके धीरे-धीरे अपनी आँखें व अन्य शरीर के अंगों का विकास स्वयं करने लगा। जीव शरीर के अंगों को अपनी सुविधा के अनुसार आकृति देने की कोशिश करने लगा। अग्नि, वरूण व अन्य देव जीवात्मा की इस कोशिश में मदद करते हैं। इस तरह जीव अपने अंगों का निर्माण करते है। जैसे-जैसे जीव अपने प्रयत्न मे सफल होते है उसकी शक्ति बढ़ती है और प्रगति का वेग तेज हो जाता है।
विकास की साधारण प्रक्रिया में प्रकृति में अनेक मोड़ आते हैं। यदि जीवात्मा ने विकास की ऊपरी योनी के गुण हासिल नहीं किए हैं, तो जीवात्मा को फिर से नीचे की योनी में आना पड़ता है। अत: मानव की योनी में पहुँचने के बाद भी जीवात्मा पशु या पौधों की योनी में जा सकती है। यदि जीवात्मा ज्यादा पतित या तामसिक है तो वह खनिज की योनी में भी जा सकती है। उस योनी में तब तक रहेगी जब तक कि उस जीवात्मा ने मानव योनी के गुण ग्रहण नहीं कर लिए हैं।
जीवात्मा जन्म-मरण के चक्र में सदा के लिए नहीं बंधती। मानव की इच्छाएँ उसे जन्म-मरण के चक्र में बांधे रखती हैं। अत: जब तक मानव की सांसारिक इच्छाएँ प्रबल होती हैं तब तक मानव को उन्हें प्राप्त करने और भोगने के लिए संसार में आना पड़ता है। परन्तु जब मानव की सांसारिक इच्छाएँ समाप्त हो जाती है तब उसका संसार से बन्धन टूट जाता है और मानव जन्म-मरण के चक्र में स्वतंत्र हो जाता है, अर्थात् उसे मुक्ति प्राप्त हो जाती है।
वेदों, उपनिषदों व इतिहास के अनुसार मुक्ति प्राप्त महापुरुष होने पर भी साधारणतया जीवात्मा इसी संसार में महान ऋषि या राजा या कभी-कभी साधारण मानव के रूप में रहकर संसार के विकास में मदद करती है। ऐसे परोपकारी ऐसे सद्कर्म करते हैं, जिससे अन्य लोगों को भी जल्दी ही मुक्ति प्राप्त हो सके। ऐसे लोग देखने में कुछ भी हों, परन्तु वे शान्त, पवित्र व नि:स्वार्थ होते हैं और दूसरों की मदद करके ही सन्तुष्ट होते हैं, वे सदा ईश्वर के साथ रहते हैं।
-- ब्रिगेडियर मोहन लाल (से.नि.), जयपुर