हिन्दू धर्म के मौलिक सत्य - कर्म
कर्म अर्थात् कार्य जो क्रम एवं व्यवस्थित ढंग से किया जाता है, जिसका भविष्य में फल जरूर मिलता है। बीज जब जमीन में बोया जाता है, उगने पर छोटा तना निकलता है, फिर पत्ते, फिर फूल और फिर फल आते हैं और फल में फिर वही बीज पैदा हो जाते हैं। इन्हीं बीजों को फिर बोया जाता है तो वही तना, पत्ते, फूल, फल और बीज पैदा होते हैं। अत: जैसा बीज बोया जाए वैसा ही पौधा उपजता है। चावल से चावल पैदा होता है, गेहूँ से गेहूँ पैदा होते हैं और बबूल से बबूल पैदा होते हैं। यही कर्म का मूलभूत गुण है, अर्थात् जैसी करनी वैसी भरनी।
कर्म जैसा दिखता है उतना सरल नहीं है। यदि मैं किसी व्यक्ति को पूछूं कि तुम शहर क्यों गए? उसका उत्तर होगा कि मुझे कपड़े चाहिए थे, अत: मैंने सोचा कि वे शहर में मिल जाएंगे, इसलिए मैं शहर गया। इसमें तीन मुख्य बातें साथ में मिलेंगी - मुझे चाहिए था, मैंने सोचा, अत: मैंने किया। इसमें जो चाहिए था वह इच्छा है, यह कर्म का पहला चरण है। इसके बाद मैंने उसे प्राप्त करने की सोची यह कर्म का दूसरा चरण है। उसके बाद मैंने उसे प्राप्त करने की क्रिया की यही कर्म का तीसरा चरण है। यह किसी भी कार्य को करने का साधारण क्रम है। इस तरह इच्छा, सोच और कार्य के तीनों डोरे आपस में गूंथे हुए हैं। हमारे कार्य दूसरों को खुश या नाराज़ करते हैं। यदि हमने किसी को खुश किया है तो हमने खुशी का बीज बोया है और वह हमारे लिए खुशी बढ़ाता है। इसी तरह यदि हमने किसी को नाराज़ किया है तो हमने नाराज़गी का बीज बोया है, जो कि हमारे लिए नाराज़गी बढ़ायेगा। यदि हम किसी के साथ क्रूरता करते हैं तो हम क्रूरता का बीज बोते हैं और वह हमारे लिए क्रूरता बढ़ायेगा। इसी तरह हम दया का बीज बोते हैं तो वह हमारे लिए अधिक दया लेकर आएगी। अत: जो भी हम अपने कार्य से बोते हैं वही वापस हमारे पास आजाता है। यही कर्म का सिद्धान्त है।
किसी भी कार्य के पीछे सोच-विचार होता है। यही सोच विचार हमारा चरित्र बनाता है और वैसे ही हमारे बौद्धिक विचार होंगे। हम जैसे किसी के बारे में चिन्तन करते हैं, हमारी बौद्धिक शक्ति भी उसी तरह की हो जाती है। यदि हम दूसरों के प्रति दया की भावना रखते हैं तो हम दयालु बन जाते हैं। यदि हम क्रूर विचार रखते हैं तो क्रूर बन जाते हैं। यदि हम दूसरों को धोखा देने के विचार रखते हैं तो हम धोखेबाज बन जाते हैं। यदि हम दूसरों के प्रति ईमानदारी के विचार रखते हैं तो हम ईमानदार बन जाते हैं। इस तरह हमारे विचारों से हमारा चरित्र बनता है और जब हम पुनर्जन्म लेते हैं तो हमारा चरित्र वैसा ही होगा जो वर्तमान विचारों (सोच) ने बनाया है। अत: हम अपने चरित्र के अनुसार कार्यशील होते हैं। अर्थात् एक दयालु व्यक्ति दया के साथ कार्यशील होता है और एक क्रूर व्यक्ति क्रूरता के साथ कार्यशील होता है। इसलिए यह भी स्वाभाविक है कि पुनर्जन्म में हम वैसा ही कार्य करेंगें जैसे हमारे इस जन्म में सोच-विचार हैं। यही कर्म है।
हमारे सोच के पीछे इच्छा होती है और इच्छा पूर्ति तभी होती है जब हमें वह चहेती वस्तु मिलती है। जैसे चुम्बक लोहे को अपनी तरफ खींचता है उसी तरह इच्छा भी चहेती वस्तु या उद्देश्य को अपनी तरफ खींचती है। यदि हमें पैसे की इच्छा है तो अगले जन्म में हमें धनवान बनने का मौका मिलेगा। यदि हमें सीखने की इच्छा है तो हम अगले जन्म में विद्वान बनेंगे। यदि हमें प्यार चाहिए तो अगले जन्म में प्यार मिलेगा। यदि हमें अधिकार की इच्छा है तो अगले जन्म में अधिकारी बनेंगे, यही कर्म है। इच्छा ही हमारे दु:ख और सुख का मूल कारण है। अत: हमें दृढ़ता के साथ अपनी इच्छाओं को वश में करना चाहिए। इसी में जीवन का सुख और शान्ति समाहित है।
माना कि एक व्यक्ति ने क्रूरता से व्यवहार किया और उसे विदित हुआ कि उसके क्रूरता के व्यवहार का कारण उसके भूतकाल में क्रूर सोच-विचार थे। क्योंकि उसे जिस वस्तु को प्राप्त करने की इच्छा थी उसे सिर्फ क्रूरता से ही प्राप्त किया जा सकता था। उसे यह भी विदित हुआ कि उसके क्रम व्यवहार से अन्य लोग दुःखी हुए और वे उससे घृणा करने लगे, जिससे वह दुःखी हो गया और अपने आप को अकेला महसूस करने लगा। अत: उसने चिन्ता के मूल कारण के बारे में सोचा। तब उसे ज्ञात हुआ कि उसकी चिन्ता का मूल कारण था, उसके जीवन की उस वस्तु की इच्छा जो क्रूरता के बिना नहीं प्राप्त की जा सकती थी। इसलिए उसने निश्चय कर लिया कि भविष्य में वह उन वस्तुओं की इच्छा नहीं करेगा, जो क्रूरता के बिना नहीं प्राप्त की जा सकती। इस तरह वह सोचविचार करके इच्छाओं पर नियंत्रण करता है न कि इच्छाएँ उसके विचारों को नियंत्रित करती हैं। वह अपने विचारों को उन्हीं वस्तुओं के बारे में सोचने देगा जिसको प्राप्त करनेसे खुशी मिलती है।
किशोर जीव अपनी इच्छाओं से प्रभावित हो जाते हैं, जिससे उन्हें दुःख प्राप्त होता है। वृद्ध जीव बुद्धिमान हो जाते हैं और अपने भूतकाल की इच्छाओं द्वारा जीवन के दु:ख महसूस किए होते हैं। अत: वे अपनी इच्छाओं पर नियंत्रण रखते हैं। हमें अपनी इच्छाओं का अवलोकन करते रहना चाहिए जिन इच्छाओं से हमें और दूसरों को खुशी मिले, उन्हीं इच्छाओं को पूर्ण करनी चाहिए।
जन्म और मृत्य से मुक्त होने के लिए किसी विशेष तरीके से जीने की आवश्यकता नहीं है। परन्तु जैसे भगवान् कृष्ण ने श्रीमद्भगवद्गीता में कहा है -
सर्वभूतस्थितं यो मां भजत्येकत्वमास्थितः। सर्वथा वर्तमानोऽपि स योगी मयिवर्तत। (अ. 4/31)
अर्थात् जो पुरुष एकीभाव से सर्वदा और सर्वत्र मेरे को ही भजता रहे वह योगी सब प्रकार से बरतता हुआ भी मुझ में ही बरतता है। जैसे राजा जनक और तुलाधार वैश्य दोनों को ही भौतिक इच्छाओं को त्यागने और भगवान् में ध्यान लगाने के कारण मुक्ति प्राप्त हुई न कि संन्यास धारण करने के कारण।
महाभारत के शान्तिपर्व में उल्लेख है कि मिथिला के राजा जनक पूर्ण शान्ति प्राप्त कर चुके थे, उनके पास असीमित धन-सम्पत्ति होने के बावजूद भी उनको कोई लगाव नहीं था। यदि पूरी मिथिला भी भस्म हो जाती तो भी वे समझते थे कि उन्हें कोई नुकसान नहीं हुआ। उन्होंने तो ऋषि माण्डव्य से कहा था कि जो कुछ सम्पत्ति मानव के पास है वह कष्ट का कारण है। जो खुशी इच्छाओं के लुप्त होने से मिलती है, वह तो स्वर्ग में भी नहीं मिल सकती। जैसे गाय की वृद्धि के साथ उसके सींग की भी वृद्धि होती है, उसी तरह सम्पत्ति के स्वामित्व की वृद्धि के साथ सम्पत्ति की इच्छा की भी वृद्धि होती है। अतः सम्पत्ति को भलाई के लिए उपयोग मेंलानी चाहिए। परन्तु सम्पत्ति की इच्छा तो कष्टदायक है।
ऋषि याज्ञवल्क्य के प्रवचन से राजा जनक को इस जगत् से मुक्ति प्राप्त हो गई थी और वे ब्रह्म प्राप्ति के योग्य बन गए थे। वे इतने ज्ञानी हो गए थे कि महर्षि वेदव्यास जी ने अपने पुत्र शुका को उनके पास मोक्ष प्राप्ति के धर्म की शिक्षा के लिए भेजा था।
जाजली मुनि को अपनी महान् तपस्या के बाद घमंड आ गया कि उनके बराबर तपस्वी कोई नहीं है। तब आकाशवाणी हुई कि तुम तो तुलाधार वैश्य के बराबर भी नहीं हो। जाजली मुनि को अचम्भा हुआ कि एक साधारण वैश्य को एक तपस्वी ब्राह्मण के ऊपर कैसे दर्जा दे दिया। अत: वे तुलाधार को ढूँढकर इस पहेली को सुलझाने के लिए चल दिए। इस तरह परेशान जाजली मुनि बनारस पहुँचे जहाँ तुलाधार वैश्य मिल गया। तुलाधार वैश्य ने उठकर जाजली मुनि का आदर सत्कार किया और उनकी महान् तपस्या की प्रशंसा की और यह भी बता दिया कि महान् तपस्या से ब्राह्मण मुनि को अभिमान हो गया है, अत: वह उनकी क्या सेवा कर सकता है। विनम्र तुलाधार वैश्य की जाजली मुनि के बारे में इतनी जानकारी से वे अचम्भित हो गए। उसके पश्चात् तुलाधार ने नैतिकता का प्रवचन देते हुए जाजली मुनि को अवगत कराया किजीवन में ऐसे जिएं कि हमारे से किसी को कोई हानि नहीं हो और यदि हानि ऐसी है कि जिससे बचा नहीं जा सकता तो दूसरों को कम से कम हानि हो। इसलिए तुलाधार ने न किसी से उधारी ली, न किसी से झगड़ा किया, न किसी से घृणा की, न किसी को अपने लिए आकर्षित किया, न किसी की झूठी प्रशंसा की, न किसी की आलोचना की। जब हम निर्भय हैं, न हमें कोई प्रिय है या अप्रिय है, न किसी के साथ अन्याय करते हैं, तब हम ब्रह्म की स्थिति में पहुँच जाते हैं। तुलाधार ने अपने अति सुन्दर प्रवचन में आगे बताया कि बलिदान के समय क्रूरता से मनुष्यों और पशुओं को कैसे क्षतिग्रस्त किया जाता है। जबकि जीवन में बिना किसी को दु:ख-दर्द या हानि पहुँचाने से भी मुक्ति प्राप्त की जा सकती है।
-- ब्रिगेडियर मोहन लाल (से.नि.), जयपुर