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ईश्वर की आराधना

इस ब्रह्माण्ड में मनुष्य और सभी जीव-जन्तु, पशु-पक्षी व वनस्पति आपस में एक-दूसरे पर निर्भर है। अत: कोई भी मनुष्य सिर्फ पाँच दैनिक समर्पण पूर्ण करके संतुष्ट नहीं होता। मनुष्य स्वयं भी ईश्वर का ही हिस्सा होने के कारण वह ईश्वर से सम्बन्ध बनाना चाहता है। मनुष्य की यह इच्छा ईश्वर की आराधना (पूजा) करने से पूर्ण होती है। महर्षि वेदव्यास सदा ही सभी जीवों की भलाई करते हुए ईश्वर की सत्यता के प्रति विशेषज्ञता प्राप्त कर चुके हैं। उन्होंने मानव जाति की भलाई के लिए 'महाभारत' और 'ब्रह्म सूत्र' लिखे। इसके बावजूद भी उन्हें शान्ति नहीं प्राप्त हुई। अत: नारद मुनि ने उन्हें ईश्वर के भजन करने की सलाह दी। उसके पश्चात् महर्षि वेद व्यास ने 'विष्णु भागवत' लिखी जिससे उन्हें परम शान्ति मिली।
ईश्वर की आराधना क्या है। आराधनाकर्ता के विकास और स्वभाव के अनुसार ईश्वर के प्रति प्रेम और श्रद्धा व्यक्त करना, ईश्वर की पूर्णता की प्रशंसा करना, ध्यान करना ही आराधना है। ईश्वर के प्रति प्रेम व श्रद्धा व्यक्त करने का तरीका आराधनाकर्ता के ज्ञान या अज्ञान व उसकी बुद्धिमता या भावुकता पर निर्भर करता है। परन्तु उसका मूल उद्देश्य ईश्वर के प्रति श्रद्धा और प्रेम ही है।
आराधना के समय पुजारी के मस्तिष्क को एकाग्र करने के लिए और उसके मनोभाव को उत्साहित करने के लिए सहज गुण युक्त किसी मूर्त पदार्थ या वस्तु की आवश्यकता होती है। अत: पूजा के समय सगुण ब्रह्म याने ईश्वर ही पूजा का मूर्त पदार्थ होता है, जिस पर सभी प्रार्थना या ध्यान या श्रद्धा आकर्षित की जाती है और ये प्रार्थना उन्हें पहुँच जाती है। इस श्रद्धा का सगुण ब्रह्मा, शिव या विष्णु, दुर्गा या लक्ष्मी या सरस्वती, गणेश या इन्द्र या उनके अवतार जैसे राम या कृष्ण या बुद्ध कोई भी हो सकता है। इनमें से किसी भी रूप में ईश्वर की ही पूजा की जाती है। कुछ लोग यहाँ समझने में असमर्थ हो सकते हैं कि कभी राम तो कभी विष्णु आदि को परमात्मा माना जाता है और फिर एक 'पुराण' किसी एक ईश्वर को परमात्मा मानते हैं तो दूसरा 'पुराण' किसी और ही ईश्वर को परमात्मा मानता है। ये सभी एक ही ईश्वर के अलग-अलग रूप हैं। इनमें से जो भी रूप पुजारी को अच्छा लगे उसी रूप में ईश्वर का ध्यान करता है। वह रूप की पूजा नहीं करता, परन्तु उस रूप में जो ईश्वर है उसकी पूजा करता है। पुजारी अपनी इच्छानुसार जिस ईश्वरीय रूप में परमात्मा की पूजा करे उस ईश्वर की शक्ति, प्रभाव एवं प्यार का अहसास करता है। श्रीमद्भगवद्गीता में श्री कृष्ण ने कहा है -
यो यो यां यां तनुं भक्त: श्रद्धयार्चितुमिच्छति।
तस्य तस्याचलां श्रद्धां तामेव विदधाम्यहम्॥ अ.7/21
अर्थात जो-जो सकाम भक्त जिस-जिस देवता के स्वरूप को श्रद्धा से पूजना चाहता है, उस-उस भक्त की श्रद्धा को मैं उसी देवता के प्रति स्थिर करता हूँ।
सभी धर्म और संप्रदाय एक ही ईश्वर की पूजा करते है, परन्तु इन धमों और संप्रदायों के पुजारी अलग-अलग होने से ईश्वर के नाम भी अलग-अलग हैं। इन अनभिज्ञताओं के कारण अन्य धर्म और संप्रदाय आपस में लड़ते झगड़ते हैं जो कि बिल्कुल अनुचित है। साधारणतया पूजा एक सरल आराधना है, जिसमें एक मूर्ति या प्रतिमा या मन में छवि का प्रयोग करते हुए मंत्रों का उच्चारण किया जाता है। पुष्प अर्पित किए जाते हैं, जल चढ़ाया जाता है आदि। इस तरह के बाहरी तरीकों से आन्तरिक श्रद्धा प्रदर्शित की जाती है, जो हमारी कल्पना के परे ईश्वर तक पहुँच जाती है। मूर्ति या प्रतिमा पुजारी स्वयं या उनके गुरु चुनते हैं, जो कि हमारी कल देवी-देवता या इष्टदेवता की होती है।
सनातन धर्म के समर्थको को उपासना करनी चाहिए। उपासना में अनेक पूजा के तरीके सम्मलित हैं, जैसे ध्यान, दैनिक संध्या आदि। संध्या के दो तरीके हैं वैदिक संध्या और तान्त्रिक संध्या। युवाओं को अपनी जाति और परिवार के प्रचलित रिवाजों के अनुसार संध्या करनी चाहिए। संध्या का तरीका युवाओं को अपने गुरु से सीखना चाहिए और प्रतिदिन संध्या पूजा करनी चाहिए। ध्यान युवाओं के लिए नहीं है बल्कि यह पुरुषत्व के लिए है।

-- ब्रिगेडियर मोहन लाल (से.नि.), जयपुर