हिन्दू धर्म के मौलिक सत्य-त्याग
मनुष्य को दूसरों की भलाई के लिए त्याग करना अति आवश्यक है। इसके पीछे क्या | सिद्धान्त है ? श्रुति, स्मृति शास्त्र और ऋग्वेद में स्पष्ट है कि सृष्टि की रचना ही ईश्वर द्वारा हमारे लिए त्याग है। भगवान् श्री कृष्ण ने भी यही स्पष्ट किया है:
अक्षरं ब्रह्म परमं स्वभावोऽध्यात्मुच्यते।
भूतभावोद्भवकारी विसर्गः कर्मसंज्ञितः।। अ. 8/3
अर्थात् : चराचर प्राणियों में ब्रह्म (जीवात्मा) प्रदान करना ईश्वर का त्याग रूपी कर्म है। इसलिए दूसरों को जीवन प्रदान करने के लिए जीवात्मा को अपने आप को त्याग करके स्थूल शरीर में प्रवेश होना, यही त्याग का प्राथमिक अर्थ और सिद्धान्त है।
त्याग का सिद्धान्त जीव के लिए अपने ही प्राणों की रक्षा से जुड़ा है। जीवों के विकास के प्रारंभिक युग में उन्हें त्याग के लिए बाध्य किया जाता था। यहाँ तक कि हिन्सापूर्वक भी उनका बलिदान किया जाता था। ताकि वे विकास की अगली योनी में पहुँच सकें। इस तरह जीव खनिज योनी से नष्ट होकर वनस्पति योनी में जाने को तैयार थे। इसी तरह पशुओं के जीवन का प्रोत्साहन देने के लिए वनस्पति योनी को नष्ट करके जीव पशुओं की योनी में जाने को तैयार थे। इस क्रम में मानव को प्रोत्साहन देने के लिए जीव पशुओं की योनी छोड़कर के मानव योनी में प्रवेश करने को तत्पर थे। इन सभी परिस्थितियों में दूसरों के हित के लिए जीव की बिना स्वीकृति के उनके शरीर का त्याग किया गया। असंख्य वर्षों के बाद जीव को अपने शरीर में इस नियम की पहचान होती है। तब वह जीव अपने आस-पास के जीवों की भलाई के लिए स्वयं ही त्याग करता है। यही स्वयं त्याग है जो जीव की ईश्वरी प्रकृति को प्रदर्शित करता है।
महाभारत में स्वयं त्याग की कहानी का उल्लेख इस प्रकार है। देवराज इन्द्र ने अनुचित कार्य करके ऋषियों को क्रोधित कर दिया। ऋषियों ने क्रोध के आवेग में बड़े असुर वृत्तासुर को जन्म दिया। वृत्तासुर ने इन्द्र और उनकी सेना को हरा करके उनकी राजधानी अमरावती से पीछे धकेल दिया और इन्द्र का राज्य छीन लिया। अत: इन्द्र और देवों को लम्बे समय तक जंगलों में भ्रमण करना पड़ा। देवों ने अपनी राजधानी को वापस लेने के लिए अनेक बार कोशिश की परन्तु असुरों ने उन्हें बार-बार पराजित कर दिया। अंत में देवों को विदित हुआ कि ऋषि का उचित क्रोध तभी ठंडा होगा जब दूसरा ऋषि दया करके अपना जीवन दान दे और उस ऋषि की हड्डियों से बने वज्र प्रहार से ही वृत्तासुर को मारा जा सकता है। अत: देवों ने ऋषि दधीचि के पास जाकर अपनी व्यथा सुनाई। ऋषि दधीचि को देवों पर दया आई और अपने शरीर का बलिदान देने के लिए तैयार हो गए। जब विश्वकर्मा जी ने ऋषि दधीचि के पवित्र शरीर को छुआ तब तपस्वी दधीचि ने उन्हें आदेश दिया कि उनके शरीर को नमक से लीप दो और गायों को लाओ ताकि वे नमक और उनके शरीर के माँस को चाट लेंगे। फिर आप आवश्यकतानुसार हड्डियों को ले लो। इससे शरीर को कोई भी कण व्यर्थ नहीं होगा। इस आश्चर्यजनक बलिदान से असुर वृत्तासुर का अन्त हुआ।
ऋषि-मुनि जीवात्मा को यह सिलखाते हैं कि यदि हम अपनी सम्पत्ति व प्रतिभा दूसरों की भलाई के लिए त्याग करते हैं तो इस उपहार के बदले में भविष्य में अनेक गुणा होकर सम्पत्ति व प्रतिभा हमें मिलेगी। आगे हमें यह सिखलाया गया कि मनुष्य अपनी हंसी-खुशी, आनन्द, प्रसन्नता आदि इस जीवन में त्याग करते हैं तो ये सभी वृद्धि होकर मृत्यु के पश्चात् स्वर्ग में हमें प्राप्त होगी। अतः हमारा कर्तव्य है कि हम अपनी सम्पत्ति, वैभव, आनन्द, प्रसन्नता, सुख आदि दूसरों की सेवा के लिए त्याग करने की आदत डालें। इसी में ही हमारा कल्याण है। इस परस्पर त्याग की भावना से हमें यह शिक्षा मिलती है कि सभी जीव एक-दूसरे पर निर्भर हैं और ये जीव तभी फल-फूल सकते हैं जब ये एक-दूसरे के रिश्ते और निर्भरता को पहचाने। अत: इस जगत में मनुष्य न तो अकेला है और न ही वह अन्य जीवों से अलग हो सकता है।
ऋषि-मुनियों ने हमें यह भी सिखलाया कि हमें दूसरों पर निर्भर रहना पड़ता है अत: हम भी दूसरों के ऋणी हैं। इसलिए हमें निम्नलिखित दैनिक समर्पण का स्वेच्छापूर्वक पालन करना चाहिए
* ऋषियों व धार्मिक शास्त्रों से समर्पित रहना (ब्रह्म यज्ञ)
* देवों से समर्पित रहना (देव यज्ञ)
* पित्रों से समर्पित रहना (पितृ यज्ञ)
* मानव से समर्पित रहना (अतिथि यज्ञ)
* अन्य जीवों से समर्पित रहना (वैश्य देव यज्ञ)
ये सभी मनुष्य के लिए लगातार त्याग करते रहते हैं, तभी मनुष्य की जिन्दगी समृद्ध होती है। इस तरह मनुष्य इनके प्रति ऋणी है। अत: मनुष्य का कर्तव्य है कि त्याग करके ऋण चुकाए।
जैसे-जैसे जीव अपनी उत्पत्ति के माता-पिता (ईश्वर) को पहचानता है और प्रकृति में ईश्वर के साथ अपनी अभिन्नता को पहचानता है, तब अपने जीवन को दूसरों के लिए त्याग करने में स्वाभाविक आनन्द व दैविक शक्ति महसूस करने लगता है। अत: जीव दूसरों को अधिक से अधिक देना चाहता है और अपने लिए कम से कम लेना चाहता है। यहाँ तक कि वह अपने खाने-पीने व मनोरंजन का त्याग कर देता है, ताकि दूसरों को कम से कम कष्ट पहुंचे। इस तरह वह सभी जीवों का मित्र बनना चाहता है। मनुष्य को समझ आ जाता है कि पशुओं द्वारा पशुओं का वध या शिकार करना या फिर मनुष्य द्वारा पशुओं को काटना या शिकार करना निश्चित अवस्था तक आवश्यक है ताकि जीवों में आवश्यक ज्ञानेन्द्रियों व शक्ति का विकास हो सके। इस अवस्था के पश्चात् मनुष्यों को दूसरों की बली करना या सताने के बजाय दूसरों के प्रति विनम्रता, सहानुभूति, दया आदि की ज्ञानेन्द्रियों का विकास आवश्यक है।
मानव बचपन से ही अपने माता-पिता, परिवार, अड़ोस-पड़ोस के साथ मिलजुल कर जीना सीखता है। अत: मनुष्य धीरे-धीरे महसूस करता है कि मनुष्य का दूसरों के लिए जीना ही जीवन का मुख्य उद्देश्य है। जैसे ईश्वर सभी के लिए है, अत: मनुष्य का सच्चा आनन्द इसी में है कि वह ईश्वर द्वारा जीव की प्रवाहित धारा में अपने आप को प्रवाहित समझे। इस तरह मनुष्य का हर कार्य, हर कदम ईश्वर को समर्पित हो जाता है और मनुष्य की अपनी इच्छा उसे नहीं बाँधती। इस तरह दूसरों के लिए त्याग व समर्पण ही मुक्ति का सिद्धान्त बन जाता है।
-- ब्रिगेडियर मोहन लाल (से.नि.), जयपुर