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Dr. Ashok

एक फसाना नहीं था

घर आंगन में गूंज रही शहनाईयां आज आचार्य केशव भार्गव के घर में खत्म हो चुकी थी। बच्चे आज विदेशी धरती पर नौकरी का मजा ले रहे थे। इस सफल जीवन को सार्थक कर माता-पिता की शान बढ़ा रहें थे। वक्त बेवक्त कभी कभार घर आकर आचार्य केशव भार्गव और उसकी पत्नी मुग्धा के चेहरे की खुशियां बढ़ा जातें थे। यही कुछ पलों का मिलन हीं भार्गव दम्पति को कुछ-कुछ सन्तोष देती थी। इस उम्र में बस बच्चों की यादें ही सिमटकर रह गई थी ।
एकलौती बिटिया को लेकर भी सवाल नहीं उठता था। इसके पीछे भी छिपा हुआ कारण था । घर-आंगन में ऐश्वर्य और खुशियों ने मुख मोड़ लिया था । सामाजिक प्रतिष्ठा को आघात न लगे, इस कारण दोनों ही ने एक सुयोग्य वर की तलाश कर प्यारी सी बिटिया की भी शादी पाश्चात्य संस्कृति का विचरण करने के लिए इटली में इंजीनियर मधुप मोहता से शादी रचा दी गई थी।
मुग्धा तो अपने उम्र की महिलाओं के साथ कभी-कभार किट्टी पार्टी में शामिल होकर कुछ-कुछ वक्त के खाली समय का मजा ले आती थी परन्तु आचार्य केशव भार्गव के पास अपने बच्चे की कमियां काफी तकलीफ पहुंचाती थी ।
वह अपने बागवान क्लब के दोस्तों के साथ लगभग प्रतिदिन एक रेस्तरां में जाते और चाय-काफी का मजा लेते थे।
परन्तु उद्देश्य दूसरा रहता था। पैसे की कमी नहीं थी परन्तु बेटे की तस्वीर पुनः याद करने के लिए उन्हें उसी रेस्तरां में एक बेवकूफ वैरा मिल गया था जो उन्हें पसंद था और कारण था उसकी मुस्कान और बेवकूफी वाली हरकतें।
अपने बचपन के हमराज़ रहें दोस्तों को यह खेल दिखाने में आचार्य केशव भार्गव को काफी मज़ा आता था । वह प्रत्येक दिन चाय-कॉफी पीने के बहाने रेस्तरां में अपने दोस्तों के साथ जाते और फिर लौटकर आने के पहले अपने दोस्तों को एक खेल दिखाया करते थे। उसके खेल का विषय था बैरा नवीन की बेवकूफियां आचार्य केशव भार्गव को बहुत खुशियां देती थी और एक पल की वह मुलाकात उन्हें अपने बेटे पार्थ की यादें ताजा करा देती थी। खेल था पैसे के मूल्य को नहीं पहचानने का खेल।
आचार्य केशव भार्गव चाय काफी का मजा लेकर लौटते समय टिप्स के लिए कुछ पैसे प्यारे नवीन को देने की चाहत रखते थे। वो प्रतिदिन लौटते समय टिप्स देते समय अक्सर दो नोट जिसमें एक पचास और एक पांच सौ का रहता था. नवीन के सामने रख दिया करते थे।
उस टिप्स के रस्म अदायगी में नवीन को एक नोट चुनने की आजादी थी।
नवीन इस प्यार से दिया जाने वाला उपहार को शरमाते हुए लें लेता था परन्तु नवीन हर दिन पचास रुपए का ही चयन करता था। यह आचार्य केशव भार्गव को तो अटपटा सा लगता था परन्तु उनके साथ आने वाले दोस्तों को नवीन की यही बेवकूफियां आश्चर्य भी कराती थीं।
चूंकि यह खेल प्रतिदिन ही खेला जाता था। इस कारण नवीन के रेस्तरां का मालिक भी प्रतिदिन ये खेल देखते हुए आश्चर्यचकित रहता था । फिर एक दिन अपने मन की शंका मिटाने के उद्देश्य से नवीन से इस हरकत का विशेष कारण जानना चाहा। तब नहीं चाहते हुए भी नवीन ने अपनी बेवकूफियों का राज़ खोल दिया।
उसने अपने मालिक को संकुचित होते हुए कहा कि मालिक आचार्य केशव भार्गव बेवकूफ नहीं हैं और उनका उद्देश्य भी हमें बेवकूफ बनते हुए नहीं देखना है।
वो तो बस अपने बेटे पार्थ की झलक मुझमें देखने आते हैं, जो अक्सर उनसे पैसे के लिए बचपन में जिद किया करता था और फिर बचपन की शरारतें और सुकून देने वाली पलों को याद करते हुए यहां वह अपने बागवान क्लब के दोस्तों के साथ मुझे यह अवसर देते हुए अपने दोस्तों के साथ पुरानी यादों का मजा लेते हैं।
उन्हें उम्मीद है कि उनके बेटे पार्थ की तरह ही एक दिन उनके पचास और पांच सौ रुपए का बचपन छीनने के लिए मैं आगे आऊँ । मैं उनके उम्मीद को खोने नहीं देना चाहता हूँ। इस कारण से मैं जानबूझकर ऐसा करता हूं ताकि वो मुझे अपने पार्थ की झलक मुझमें देखने के लिए प्रतिदिन और प्रतिबद्ध तरीके से यहां आएं।
उन्हें देखकर ही प्रसन्न हो जाता हूँ क्योंकि मुझे देखकर वो भी प्रसन्न हो जाते हैं। जिस दिन मैंने पचास और पांच सौ रुपए के बीच फर्क किया कि उनके यहां रेस्तरां में आने-जाने का यह सिलसिला ही खत्म हो जाएगा।
आज रेस्तरां मालिक को यह आभास हो गया था कि यह प्रतिदिन का खेल एक फसाना नहीं प्यार की अनंत गहराई से सिमटी हुई एक अनबुझी पहेली है।

-- -- डॉ. अशोक, पटना